शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा.
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा.
कुछ ऐसा सोचते हुए हमारे वीर बाँकुरे देश को आज़ादी दिलाने के लिए हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को चूम लिया करते थे. समय गुजरने के साथ-साथ वीरों की शहादत को भुलाया सा जाने लगा. उनको निश्चित तिथियों, जयंतियों, राष्ट्रीय पर्वों पर औपचारिकतावश याद करने की परिपाटी सी विकसित कर ली गई. कालांतर में राजनीति के चलते, शहीदों को जाति, धर्म, क्षेत्र में बाँटने के साथ-साथ उनको आतंकवादी, अराजकता फ़ैलाने वाला, हिंसक प्रवृत्ति का साबित करने का प्रयास किया जाने लगा. पाठ्यक्रमों से उनकी शहादत के किस्से गायब हैं; उनकी वास्तविकता कहीं दफ़न है; उनके जीवन से सम्बद्ध सामग्री को, विचारों को कैद कर दिया गया है.
कहा जाता है कि अंधकार कितना भी घना क्यों न हो रौशनी की एक छोटी सी पुंज भी उसका खात्मा कर देती है. रात कितनी भी काली क्यों न हो सूर्य की पहली किरण उसको मिटाकर भोर का उजास कर देती है. कुछ ऐसे ही उजाले के आने और अँधेरे के दूर होने का सुखद आभास हो रहा है. पाकिस्तान में लाहौर हाईकोर्ट में एक बड़ी बेंच बनाये जाने का आदेश दिया है, जिसके माध्यम से शहीद भगत सिंह की फाँसी के 85 वर्ष बाद उनको बाइज्जत बरी करवाने की कानूनी लड़ाई शुरू हो गई है. पाकिस्तान के ‘भगत सिंह मेमोरियल फ़ाउंडेशन’ नामक संगठन द्वारा दायर याचिका पर इस केस को सुनवाई हेतु दोबारा खोला जा रहा है. स्मरण रहे कि भगत सिंह के साथ-साथ सुखदेव और राजगुरु को सांडर्स हत्याकांड में सजा की निर्धारित तिथि 24 मार्च से एक दिन पहले 23 मार्च 1931 को गुपचुप तरीके से रात में फाँसी दे दी गई थी.
फाउंडेशन के चेयरमैन इम्तियाज़ राशिद कुरैशी के अनुसार ये तीनों शहीद निर्दोष थे और उनको किसी साजिश के तहत फाँसी दी गई थी. इसी कारण से फ़ाउंडेशन द्वारा सन 2014 में लाहौर कोर्ट में याचिका दायर कर सांडर्स हत्याकाण्ड में दर्ज FIR की कॉपी माँगी गई. कोर्ट के आदेश पर सम्बंधित अनारकली थाने के रिकॉर्ड की छानबीन करने पर लाहौर पुलिस को सांडर्स हत्याकांड की FIR मिली. 17 दिसंबर 1928 को शाम 4 बजकर 30 मिनट पर लिखी FIR में दो अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा कायम किया गया था. आश्चर्य की बात यह है कि उर्दू में लिखी इस FIR में शहीद भगत सिंह का नाम ही नहीं था. इसके साथ ही एक और खुलासा हुआ कि भगत सिंह के मामले की सुनवाई के दौरान 450 गवाहों को सुने बिना भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को मौत की सज़ा सुना दी गई थी. इतना ही नहीं केस की सुनवाई में भगत सिंह के वकीलों को अपनी बात रखने का मौका भी नहीं दिया गया था. याचिकाकर्ता ने यहाँ तक दावा किया है कि भगत सिंह को पहले उम्रकैद की सज़ा सुनाई गई थी बाद में आरोपों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हुए उन्हें फाँसी दे दी गई.
अब जबकि एक संगठन की पहल पर लाहौर हाईकोर्ट ने उस केस को दोबारा सुनवाई हेतु खोला है, तो आशा की किरण बँधती दिखाई देती है. अंतिम परिणाम क्या होगा ये तो भविष्य के गर्भ में है पर हम सब आशान्वित हैं कि शहीदों के साथ होती आई साजिशों का खुलासा एक-एक करके अवश्य ही होगा. इस आस-ज्योति को प्रज्ज्वलित रखते हुए आनंद लें आज की बुलेटिन का, शेष अगले सप्ताह.
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4 टिप्पणियाँ:
हमें तो इस जमाने के भगत सिंहों की चिंता है ।
न्याय हो पाएगा इतने सालों के बाद ... फिलहाल तो ऊपरी बेंच पर भेजा गया है केस ... अच्छा लगा आपने इस मुद्दे हो उठाया ... आभार आपका |
रोचक व पठनीय सूत्र...
देरी से आने के लिए खेद है..शहीदों को न्याय मिले इससे बढ़कर क्या हो सकता है..सच सामने आना ही चाहिए
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