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मंगलवार, 24 जुलाई 2012

एक दावानल सा है सौम्या का यह ब्लॉग



आज की मुलाकात का एक स्वप्निल चेहरा - सौम्या का , जो लिखती हैं ब्लॉग

Echo from my heart... कुछ इस ख्याल से -


मेरी नज्में
कुछ कुछ मुझ जैसी हैं
सादा-दिल
चुप-चुप सी
ज्यादा कुछ नहीं कहतीं "

हाँ , क्योंकि कल्पना अधिक सशक्त , सार्थक होती है ज्ञान की अपेक्षा ! ज्ञान के साथ कल्पना की उड़ान न हो तो मकसदों को मंजिल नहीं मिलती .
अपना ब्लॉग बनाया सौम्या ने 22 मई 2009 को . पहले कदम में ही गजब की जिजीविषा है और परियों से मिले पंख हैं .

गर जानना चाहते हो मेरी उड़ान,
मेरी मंजिल ,मेरे अरमान,
तो ऊंचा करो,ऊंचा करो उस आसमान को,
लहरों के उफान को ,
बढ़ा दो सूरज की गर्मी,
मिटा दो भाग्य की नरमी,
शायद मेरी उड़ान तुम देख पाओगे,
फिर भी मेरा गंतव्य ना तुम भेद पाओगे।

अभी तो सफर का इरादा किया है,
ख़ुद से ही लड़ने का वादा किया है,
अरसों बाद आंखों ने यह हौसला दिखाया है,
जिंदगी ने आज हमें मरना सिखाया है!!!... "

मकड़ी का मर्म... वही समझ सकता है , जो गहराई से उसके कार्य की निरंतरता को देखता हो , जानता हो , समझता हो और दृढ़ता के मध्य टूटने की

तकलीफ से वाकिफ हो ... निःसंदेह वही स्वयं प्रश्न और उत्तर बनता है -

अपना आगार सँवारने के लिए,
तुम मेरा आशियाना क्यूँ तोड़ती हो?
कल्प-कल्प से हर कण जुटाती मैं,
तुम पल भर में ही उधेड़ देती हो।
क्यूँ,क्यूँ करती हो तुम ऐसा ?
क्या कृत्य तुम्हारा नही यह नृशंस जैसा?

प्रश्न यह कुछ अप्रत्याशित था,
इक मूक के मर्म का साक्षी था।
मैंने उत्तर दिया,
मैं तो मात्र अपना घर बुहारती हूँ,
दीवारों से लिपटे जालों को हटाती हूँ।

प्रतिउत्तर मिला की तुम,
दृग में लगे जालों को,
दिल में लगे जालों को,
क्यूँ नही हटाती ?
क्यूँ नही मिटाती ?...."

कविता..... वही लिख सकता है , वही समझ सकता है ... जो लिखने से परे भी लिखा होता है . शब्दों की पकड़ से परे भी कई भावनाएं धूप-छाँव सी

गुजरती है . यह धूप-छाँव भी सबकी अपनी अपनी होती है , पर इन बंजारों की झुग्गियां आपस में न कहकर भी बहुत कुछ कह लेती हैं और बारिश को झेलने
के लिए अपनी अपनी हथेलियों की कविता का छत एक-दूसरे को देती हैं .

कविता वो नहीं
जो मैं संवेगहीन स्याही की रिक्तता में घोल देती हूँ
और किसी सीले हुए से कोरे कागज़ पर उकेर देती हूँ
उसका आवेग तो शब्दों के छिछले सागर तक ही गहरा होता है,
हर आवेश में ज़माने के दस्तूरों का पहरा होता है |
कविता तो वो है
जो मैं मन ही मन बुदबुदाती हूँ
जो रिसती है मेरी रगों में,
मेरी सांसों के तार जोड़ती है
मुझसे मुझको मिलवाती है ….
लोग कहते हैं मैं बोलती कम हूँ ….
कैसे कहूँ ये कविता हर पल मुझसे बतियाती है|
डरती हूँ ………….
कि जब ये शरीर जलेगा ..
तो मेरी राख पर
हर अनकही नज्म
उभर ना आये..."

जब सोच की आँखें बरसने लगती हैं , सिसकियों से शब्द निकलते हैं और लोग उसे कविता कहते हैं .... कभी प्यार आँखों को बोझिल कर
देता है , और होठों पर बेवक्त की मुस्कान पन्नों पर शक्ल लेती है तो लोग उसे कविता कहते हैं ....... जो भी कहो , जो दिल को छू जाए और
लोरी बन जाए उन शब्दों को खुदा कहते हैं ....

जो ज़िन्दगी के करीब से ना गुजरे वो न खुदा को पाता है , न अपने भीतर की उलझन को आवाज़ , आगाज़, यलगार बना पाता है ....

मेरे मिट्टी के खिलौनों से
उस पार की मिट्टी की भी
महक आती है
तो क्या तोड़ दोगे तुम
मेरे सारे खिलौने ?

मेरी पतंग
जब कभी उड़ कर
उस पार जायेगी
और क्षितिज के शिखर को
छूना चाहेगी
तो क्या फाड़ दोगे तुम
मेरे रंगीन सपनों को ?
या फिर काट दोगे-
मेरे ही हाथ?

कुछ बोलो......
क्या करोगे तुम?

उस पार से जब कभी पंछी
मेरी बगिया में
गीत गाने आयेंगे
तो क्या रोक दोगे तुम
उनकी उड़ान ?
या उजाड़ दोगे
मेरी ही बगिया?..."


जब कभी अकेले में तुम सिसक रही हो
मैं ना रहूँ तुम्हारे पास
तुम्हारे आंसूं पोछने को |
हो सकता है
अगर कभी तुम्हे चोट लगे
मैं ना रहूँ तुम्हारे पास
तुम्हारे ज़ख्म पर प्यार से फूंकने को |
हो सकता है
जब कभी तुम परेशान हो
मैं ना रहूँ तुम्हारे पास
तुम्हे गले से छपटाकर
’सब ठीक हो जाएगा ’ कहने को |
हो सकता है
जब कभी तुम हार कर टूटने लगो
मैं ना रहूँ तुम्हारे पास
तुम्हे हौसला देने को |
हो सकता है
जब कभी अकेले में तुम डर जाओ
मैं ना रहूँ तुम्हारे पास
तुम्हारा हाथ पकड़ने को|
हो सकता है......"

एक कवि को तो अपने प्रश्न लेकर हवाओं की गतिविधियों से गुजरना होता है ...

क्या गलत है जो बिरजू घर-घर भीख मांगता है.
जब भूख लगती है ,तो दिल बिलखता है.
महंगाई की मार में, सिर्फ बचपन बिकता है
क्या गलत है जो वो मासूम ,यूँ दर-दर फिरता है |

क्या गलत है जो अब्दुल चोरी करता है
गरीबी की आग में ईमान झुलसता है
बहन हुई है तीस की ,बाप दहेज़ के लिए फिरता है
क्या गलत है जो अब्दुल चोरी करता है |

क्या गलत है जो कश्मीर में बच्चा ,बन्दूक उठाता है
तो क्या हुआ,कि गोलियों की आवाज़ से वो डर-डर जाता है.
वो नन्हा परिंदा अपने घर में आज़ादी चाहता है
क्या गलत है जो उसकी आँखों में ,खून उतर आता है |

क्या गलत है जो अफज़ल आतंक फैलाता है
मासूम इक दिल पत्थर बन जाता है.
है कौन वो जो उसकी 'आत्मा' मरवाता है
अफज़ल की क्या गलती , वो 'आतंक' फैलाता है |

क्या गलत है कि इक माँ ,बेटी का गला दबाती है
जमाने के दस्तूरों पर,उसकी चिता जलाती है
समाज उन्हें वैसे भी जीने ना देगा
बोलो,क्या गलत है........"

एक दावानल सा है सौम्या का यह ब्लॉग ..... अलग अलग चिंगारियां दहकने को आतुर . कहीं कहीं पानी के छींटे भी हैं , पर वह भी मिलकर चिंगारी ही बन जाती
है- ऐसा मेरा ख्याल है !

आड़ी-तिरछी रेखाएं

एक छोटा सा ख्वाब


अनगिनत सवाल , कई बेचैनियाँ ...... फिर भी

ये ज़िन्दगी क्यूँ .…फिर भी अच्छी लगती है


बात बात पर देखो ना …हर पल झगड़ती है
ये ज़िन्दगी क्यूँ .....…फिर भी अच्छी लगती है ?

कभी बिना गुनाह किये ही ..............…सज़ा सुनाती है
मासूम किसी गुड़िया को .......... बेवजह रुलाती है
हर साँस में रूह ….......... कितनी बार बिलखती है
ये ज़िन्दगी क्यूँ ........…फिर भी अच्छी लगती है ?

कभी सपने दिखाकर …............सपने तोड़ देती है
हवाओं का रुख ही............ उल्टा मोड़ देती है
कभी उठ कर गिरना .…कभी गिर कर उठना….लुढ़कती -संभलती है
ये ज़िन्दगी क्यूँ ……………..फिर भी अच्छी लगती है ?

जिसे शिद्दत से चाहो ….........…वो कहाँ बक्श्ती है
जो दुआओं में मांगो .........…वो कहाँ सुनती है
दिल की प्यारी बातों को ......…ये कहाँ समझती है
ये ज़िन्दगी क्यूँ ……………. फिर भी अच्छी लगती है ?

हँसाती है.......रुलाती है......बनाती है.......मिटाती है
सिखाती है.........दुलराती है.......गिराती है.........भगाती है
हाथ की रेखाओं पर बस..............चलती जाती है.....

इस कोने कभी.........कभी उस कोने सिसकती है
ये ज़िन्दगी क्यूँ...............फिर भी अच्छी लगती है?

..................................... यही सच है न ?

13 टिप्पणियाँ:

virendra sharma ने कहा…

बेशक एक बड़े कैनवास बड़े क्षितिज की रचनाएं हैं लेकिन गरीबी और वंचना से पैदा हालातों को फैज़लों से कैसे जोड़ा जा सकता है .बहती हुई विचार धारा आतंक वाद की जननी है सबको एक ही बास्किट में डाला कैसे जा सकता है .फिर भी रचनाएं सशक्त हैं बेहतर हो इस मेधा का जरा संभल के प्रयोग किया जाए ,सन्देश गलत भी जा सकता है .बख्शना /बख्शता है कर लें बक्शना को .

रश्मि प्रभा... ने कहा…

:)

Saumya ने कहा…

rashmi ji...kehte hain naa...jab bhaavnaayein gehri hoti hain..to shabd maun ho jaate hain...kya kahun...shukriya bauhat chota sa lafz hai....fir bhi bauhat bauhat abhar...mujhe is layak samajhne ke liye....thankyou so much....kuch samajh nai aa raha kya kahun...bas bauhat accha feel kar rahi hun....god bless you...bauhat saara pyaar aur aabhaar :) :)

Dr.NISHA MAHARANA ने कहा…

bahut hi acchi abhiwayakti hai...

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

पढ़ चुकी हूँ सौम्या को.....
बेहतरीन क्षमता है उसमें अभिव्यक्ति की...
उसको शुभकामनाएं.

शुक्रिया दी
सादर
अनु

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बहुत बढ़िया प्रस्तुती, सुंदर बुलेटिन,,,,,,

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

सौम्या जी रचनाओं में जहां जिम्मेदारी का संदेश है तो वहीं सामाजिक सरोकारों को लेकर भी गहरी फिक्र दिखाई दे रही हैं। इन रचनाओं में उनकी संवेदनशीलता साफ झलकती है।
सौम्या जी और उनकी रचनाओं को हम सब तक पहुंचाने के लिए आपका भी बहुत बहुत आभार..

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सौम्याजी की सशक्त लेखनशैली ने प्रभावित किया..

Saras ने कहा…

रश्मिजी कहाँसे मिल जाते हैं आपको यह हीरे..... किस कान मैं खोजती हैं...किस सागर में डुबकी लगाती हैं ....और ऐसे नायाब मोती बीनकर लाती हैं .......कोटि कोटि आभार सौम्या को हमसे मिलाने के लिए

Saumya ने कहा…

utsaah vardhan ke liye aap sabhi ka bauhat bauhat shukriya :)

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ब्लॉग जगत के इन रतनों को हम तक पहुंचाने के लिए आपका बहुत बहुत आभार रश्मि दी !

सदा ने कहा…

आपकी कलम से सौम्‍या जी को पढ़ना बहुत ही अच्‍छा लगा ... आभार आपका इस प्रस्‍तुति के लिए

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

Saumya edition achchha laga:)

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