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मंगलवार, 17 जुलाई 2012

नारी ब्लॉग या नारी को जागरूक करती छावनी ( पहला भाग )


सर्वप्रथम हम इस बात को स्पष्ट रूप से जानें कि नारी ब्लॉग क्यूँ ! हम अक्सर उन बातों पर प्रकाश डालते हैं , जहाँ विरोधाभास , दोहरा व्यवहार पाते हैं . उदाहरण के लिए -
सती प्रथा , बाल-विवाह , शिक्षा , दहेज़-प्रथा , विधवा-विवाह , इत्यादि .
आरम्भ से स्त्री , जो अन्नपूर्णा कहलाई , लक्ष्मी ,सरस्वती का दर्जा जिसे मिला - उसे दुर्गा बनने के लिए समाज बाध्य करता रहा . जब अति का प्रकोप होता है तो सारे देवतागण
देवी के आगे नतमस्तक होते हैं . शक्ति एकत्रित अवश्य होती है , पर प्रारब्ध नारी होती है . पर समाज ने उसकी क्षमताओं को अपने द्वारा बनाये गए नियमों में जकड़ दिया - पुरुष
अधिकारी बन गया और नारी कर्त्तव्य . पुरुष ने सिर्फ अपने किये पर गौर किया कि उसने हल जोते , पैसे उगाहे , घर बनाया ..... पर उसने कभी इस बात पर चिंतन नहीं किया कि
जब उसने हल चलाये तो नारी ने उसके माथे पर उभर आए पसीनों को अपने आँचल में संजोया , उसकी थकान को राहत दी , खेत पर रोटियाँ लेकर गई , घर को संवारा , बड़े बुज़ुर्ग,
बच्चों का उचित ख्याल रखा , दीर्घायु के लिए मन्नतें उठाईं , व्रत-त्योहार को एक पवित्र आधार दिया , अनुगामिनी बन चलती रही ....... और थकी नहीं ! पुरुष खुद की सोच के भय
में जकड़ गया कि कभी वह अपने किये को ना रखे और उसे उसने प्रथाओं की बेड़ियों में जकड़ दिया . नाग-पाश की तरह जकड़ मजबूत होती गई और आग की लपटों में खोने
लगी . शारीरिक इज्ज़त, पारिवारिक मर्यादा - नारी के लिए रखा गया , पुरुष तो बस मुखिया रहा . कहते हैं - ' बेटे की भला शक्ल देखी जाती है ! ' शक्ल बेटियों की , व्यवहार बेटियों का ,
.... मर्यादा कैसे खत्म हुई , शरीर की इज्ज़त कैसे गई , वह क्यूँ जलाई गई - इस पर कोई चिंतन अपेक्षित नहीं रहा तो कुछेक नारियों ने स्व मशाल जलाई . नारी-ब्लॉग उसी मशाल
की एक चिंगारी है .
इसे ब्लॉग कहें या सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध खडी की गई छावनी - जिसमें चूड़ियों की मधुर खनखनाहट के संग तलवारें चमक रही हैं . झाँसी की रानी ने जब अंग्रेजों के विरुद्ध
शस्त्र उठाये तो उनका दत्तक पुत्र उनकी पीठ पर था , तात्पर्य यह कि बाहरी मुकाबले के संग उन्होंने अपने मातृत्व जनित कर्त्तव्य को भी निबाहा . गलत का विरोध घर को फूंकना
नहीं होता . हर मान्यताओं के संग रचना सिंह ने इस ब्लॉग का गठन किया , उद्देश्य उन्हीं के शब्दों में ,

"नारी" ब्लॉग
"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं
... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें ।
हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल
आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती
हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।

कई पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ अपने अधिकारों से अनजान हैं , इस ब्लॉग ने उनको बहुत कुछ जानने का अवसर दिया . जैसे -
स्त्री धन के विषय में ....(रचना सिंह कहती हैं )
"आप मे से कितनी महिलाए ये जानती हैं की जो जेवर / कपडा आप को शादी के समय ससुराल से आता हैं उसके लिये आप के माता पिता पहले ही वर पक्ष को पैसा दे चुके होते हैं ।

यू पी मे ये रसम "तिलक " कहलाती हैं और यहाँ वर पक्ष को तय की हुई कैश राशि दी जाती हैं ताकि वो वधु के लिये तय किये हुए जेवर और कपड़े ला सके । बहुत जगह खुद कन्या पक्ष
अपनी पसंद के जेवर और कपड़े दे देता हैं अलग से और वही वर पक्ष वाले शादी के समय लड़की के लिये लाते हैं ।
शायद यही कारण हैं की वधु के जेवर "स्त्री धन " कहलाते हैं और वो उसकी सम्पत्ति मानी जाती हैं क्युकी उसका पैसा उसके माता पिता ही देते हैं
क्या वधु पक्ष के लोगो का ये शोषण कभी ख़तम होगा ??
क्या आने वाली पीढ़ी की लडकियां कभी इसके खिलाफ आवाज उठायेगी ??"

जागरूक करनेवाला यह ब्लॉग हर उस नारी के लिए है, जो शोषण के विरुद्ध आवाज़ नहीं उठा पातीं . हर आलेख क्रांति की मशाल लिए अपनी जगह पर अविचल खड़ा है , बस एक क्लिक
और अनेकों जानकारियाँ -

कर सकती हैं थाने जाने से इनकार ( आर.अनुराधा )

कानून साफ कहता है कि कोई भी महिला शाम 6 बजे से सुबह 6 बजे तक पुलिस थाना जाने से इनकार कर सकती है, भले ही उसके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट

जारी हुआ हो।

कानूनन किसी महिला को सुबह 6 से साम 6 बजे के बीच ही गिरफ्तार किया जा सकता है। उसकी भी शर्तें साफ हैं-

कोई महिला पुलिस अधिकारी उसे गिरफ्तार करे और महिला पुलिस थाना ले जाए, या

अगर पुरुष पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी करे तो यह साबित करना होगा कि उस समय कोई महिला पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी के समय ड्यूटी पर थी।

और आधारभूत नियम तो यह है कि बिना वारंट के कोई पुलिस वाला या ट्रैफिक पुलिस वाला किसी को डिटेन नहीं कर सकता।

हमें यह बात जाननी और याद रखनी चाहिए। साथ ही ज्यादा से ज्यादा औरतों तक पहुंचानी चाहिए ताकि ऐसे हादसे आने की नौबत ही कम आए।

ये कानून महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने हैं, इनका भरसक इस्तेमाल करना चाहिए।


संयुक्त परिवार को लेकर आज कल बहुत जागरूकता छिडी हुई है. इसमे कोई संशय नही कि यह हमारी मजबूत सामाजिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण आधार रहा है . माना जाता रहा है कि घर में उपस्थित बुजुर्गों और बच्चों जको आर्थिक और मानसिक संबल प्रदान करने के लिए इससे बड़ा कोई साधन नही है .
मगर क्या सचमुच ऐसा ही है ...??
सबसे पहले संयुक्त परिवार में बुजुर्ग महिलाओं की स्थिति पर ही विचार कर लें । तमाम उम्र घर की जिम्मेदारी सँभालने वाली इन महिलाओं का संयुक्त परिवार के नाम पर अधिकतम शोषण किया जाता रहा है ।
क्या कभी आपने इस बात पर गौर किया है ...? नही मानते हैं ना ...बस अपनी कालोनी में बसने वाले कुछ संयुक्त परिवारों की दिनचर्या पर ही नजर डाल लें ...हाँ ...हो सकता है कुछ परिवारों में उन्हें यथोचित सम्मान मिल रहा हो मगर अधिकांश संयुक्त परिवारों में बुजुर्ग महिलाएं शारीरिक नही तो ..आर्थिक और मानसिक रूप से प्रताडित ही होती है । संयुक्त परिवार में रहने का एहसान जताने वाले उनके पुत्र ओर पुत्रवधू उनका भरपूर शोषण करते हैं ।
आज उदहारण स्वरुप आँखों देखे एक परिवार में बुजुर्गों की स्थिति का वर्णन कर रही हूँ । बहुत कुछ अमिताभ बच्चन अभिनीत फ़िल्म बागबां मूवी जैसा ही है । अगर फिल्मकार ये कहते हैं की हम फिल्मे समाज में हो रहे वाकयों पर बनाते हैं तो वे बहुत ज्यादा ग़लत नही होते हैं । इस घटना से तो मुझे ऐसा ही लगता है।
ये कहानी है एक बहुत ही समृद्ध परिवार की । चार बेटे थे उनके जिनमे से एक बेटे की मृत्यु बीमारी से ओर दुसरे की एक्सीडेंट के कारण हो गयी । दोनों ही सरकारी नौकरी में थे तो उनके स्थान पर गयी। अब बचे दो बेटों में से दोनों ही सरकारी नौकरी में उच्च पद पर हैं । उनकी पत्नियाँ भी बैंक में अधिकारी हैं । मैंने हमेशा देखा की वो बुजुर्ग महिला अपनी बहुओं के दुःख सुख में हमेशा काम आती रही हैं विशेषकर प्रसूतिकाल में इतना ध्यान रखती रही हैं की उनकी बहुएं मायके जाने की बजाय ससुराल में रहना ही पसंद करती थी। ये हँसी खुशी का माहौल उनके पति की सरकारी नौकरी से रिटायर होने तक ही रहा । उनके पति की भविष्यनिधि और बाकी जमा राशियों के लिए तो मार काट मची ही, वृधावस्था से अशक्त हुई उनकी जीर्ण शीर्ण काया की देखभाल को लेकर बेटे बहुओं में खूब तकरार होने लगी । आख़िर उनके बेटे बहुओं ने निर्णय लिया की एक माँ को अपने पास रखेगा और दूसरा पिता को । माँ की आँखों का ऑपरेशन एक सामाजिक संस्था के कैंप में किया गया जिससे उनका मोतियाबंद ठीक होने की बजाय और बिगड़ गया और हद तो तब हो गयी जब ऑफिस जाने के समय वे वृद्धा माँ को बाहर से ताले में बंद कर जाने लगे । एक दिन अचानक ही उनके भांजे का उनके घर जाना हुआ । वो दरवाजे पर ताला देख कर लौटने ही वाला था की खिड़की से आवाज लगा कर अपनी स्थिति उसे बताते हुए फूट फूट कर रो पड़ीं । जब दूसरे बेटे को उसने यह सब जाकर उसे बताया तो वो उसे अपने घर ले आया मगर यहाँ भी स्थिति बहुत बढ़िया नही थी। और उनकी ये बहुए बड़ी शान से संयुक्त परिवार के गुणगान करते हुए सामाजिक सभाओं में अपने सास ससुर को साथ रखने पर गर्व जताती रही हैं । इस मानसिक शोषण से उन्हें छुटकारा मृत्यु हो जाने पर ही मिला ।
क्या ऐसे संयुक्त परिवार गर्व करने लायक है ...? क्या यह बेहतर नही होता की ये वृद्ध दम्पति अपने कमाए धन से अपनी सेवा की बेहतर व्यवस्था करते हुए अकेले ही रहते ..??

स्त्री सशक्तिकरण के उदाहरण में किसी नए खून, नई पीढ़ी, जींस और तेज-तर्रार जबान/कलम का होना कतई जरूरी नहीं है।

एक गाँव के लोगों ने दहेज़ न लेने-देने का उठाया ... ( आकांक्षा यादव )

दहेज लेने के किस्से समाज में आम हैं। इस कुप्रथा के चलते न जाने कितनी लड़कियों के हाथ पीले होने से रह गये। प्रगतिशील समाज में अब तमाम ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं, जहाँ लड़कियों ने दहेज लोभियों को बारात लेकर वापस लौटने पर मजबूर किया या बिना दहेज की शादी के लिए प्रेरित किया। इन सब के बीच केरल का एक गांँव पूरे देश के लिए आदर्श बन कर सामने आया है। मालाखुरम जिले के नीलंबर गाँव के लगभग 15,000 युवक-युवतियों ने प्रण किया है कि इस गाँव में न तो दहेज लिया जाएगा और न ही किसी से दहेज मांगा जाएगा। यह प्रण अचानक ही नहीं लिया गया बल्कि इसके पीछे एक सर्वेक्षण के नतीजे थे। इस सर्वेक्षण के दौरान पता चला कि गाँव में लगभग 25 प्रतिशत लोग बेघर थे और बेघर होने की एकमात्र वजह दहेज थी। ग्रामीणों को अपनी बेटियों की शादी के लिए अपना घर बेचना पड़ा था। हर शादी पर तीन-चार लाख खर्च होते हंै और इसकी वजह से लोगों को अपना मकान व जमीन बेचनी पड़ती है और अन्ततः वे कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं। इससे मुक्ति हेतु गांव को दहेजमुक्त बनाने का यह अनूठा अभियान आरम्भ किया गया है। फिलहाल इस पहल के पीछे कारण कुछ भी हो पर इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए और आशा की जानी चाहिए कि अन्य युवक-युवतियां भी इससे सीख लेंगे।


किसी भी महिला के लिए बलात्कार का शिकार होना बहुत बड़ा हादसा है। शायद उसके लिए इससे बड़ी त्रासदी कोई है ही नहीं। बदकिस्मत से अपने देश में महिलाओं से बलात्कार की दर निरंतर बढ़ती जा रही है। यह एक जघन्य अपराध है, लेकिन अक्सर गलतफहमियों व मिथकों से घिरा रहता है। एक आम मिथ है कि बलात्कार बुनियादी तौर पर सेक्सुअल एक्ट है, जबकि इसमें जिस्म से ज्यादा रूह को चोट पहुंचती है और रूह के जख्म दूसरों को दिखायी नहीं देते। बलात्कार एक मनोवैज्ञानिक ट्रॉमा है। इसके कारण शरीर से अधिक महिला का मन टूट जाता है। बहरहाल, जो लोग बलात्कार को सेक्सुअल एक्ट मानते हैं, वह अनजाने में पीड़ित को ही `सूली' पर चढ़ा देते हैं। उसके इरादे, उसकी ड्रेस और एक्शन संदेह के घेरे में आ जाते हैं, न सिर्फ कानून लागू करने वाले अधिकारियों के लिए, बल्कि उसके परिवार व दोस्तों के लिए भी।
महिला की निष्ठा व चरित्र पर प्रश्न किये जाते हैं और उसकी सेक्सुअल गतिविधि व निजी-जीवन को पब्लिक कर दिया जाता है। शायद इसकी वजह से जो बदनामी, शर्मिंदगी और अपमान का अहसास होता है, बहुत-सी महिलाएं बलात्कार का शिकार होने के बावजूद रिपोर्ट नहीं करतीं। बलात्कार सबसे ज्यादा अंडर-रिपोर्टिड अपराध है।
बहुत से मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों का मानना है कि बलात्कार हिंसात्मक अपराध है। शोधों से मालूम हुआ है कि बलात्कारी साइकोपैथिक, समाज विरोधी पुरूष नहीं हैं जैसा कि उनको समझा जाता है। हां, कुछ अपवाद अवश्य हैं ...

7 टिप्पणियाँ:

Asha Lata Saxena ने कहा…

गहन विचार और सही मुद्दे उठाए है इस लेख के माध्यम से |
आशा

वाणी गीत ने कहा…

विचार फिर से ताज़ा हुए !
आभार !

shikha varshney ने कहा…

सार्थक लेख.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

हर पक्ष पर स्पष्ट विचार आवश्यक है..

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

रश्मि जी,

बहुत अच्छे अपने इन लेखों को एक मंच पर लेकर फिर से उनको ताजा किया है और सब अपने अपने जगह पर सत्य और यथार्थ से जुड़ी घटनाएँ हें. इनको उठाया जन जरूरी है और नारी ब्लॉग तो ऐसे ही विषयों को उठता रहा और फिर उसके लेखों को विवादस्पद बना दिया गया और कभी कभी तो लोगों ने उसे कलम की जंग का निशाना बना लिया . हम सब जानते हुए भी यथार्थ को स्वीकार नहीं कर पाते हें या फिर स्वीकार करना नहीं चाहते हें. दूसरे पर आक्षेप लगा कर विषय को भटका देते हें. आपको बहुत बहुत धन्यवाद !

--

सदा ने कहा…

बहुत ही सशक्‍त प्रस्‍तुति।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

बहुत बढ़िया ... :)

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