इन दिनों जहां ब्लॉगिंग में आइटम पोस्ट लिखी जा रही हैं वहीं इन पोस्टों पर बराबर चिंता भी जताई जा रही है । प्रवीण शाह जी अपनी पोस्ट में इसी प्रवृत्ति पर प्रश्न उठाते हुए कहते हैं,
"एक पैटर्न देखा है शुरू से... जब कभी कोई विवाद चल रहा होता है, चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक, या फिर किसी खास ब्लॉगर या समूह के खिलाफ लामबंद हो बहिष्कार-बहिष्कार का खेल खेला जा रहा हो... अचानक से सोये पड़े ब्लॉगवुड में एक जान सी आ जाती है... खूब पोस्टें आती हैं, पाठक बढ़ते हैं, टिप्पणियाँ गति पकड़ लेती हैं, कुल मिलाकर वीराने में रौनक सी आ जाती है... और जब कहीं कोई विवाद नहीं हो रहा होता तो एक किसिम की वीरानगी सी आ जाती है अपने ब्लॉगवुड में... :( "
और जब उन्होंने सबसे पूछा कि क्या उन्हें भी ऐसा लगता है तो देखिए पाठकों की क्या प्रतिक्रिया रही ,
- @छदमावरण व छुपी मंशाएं यहाँ मूल्यों को चोट पहुचाती है ऐसी बातों का विरोध होना ही चाहिए और उसी से विवादों का सर्जन होता है। अगर ऐसे चिंतन और विमर्श ब्लॉगजगत के आबाद रहने के कारण बनते है तब भी इसमें कोई बुराई नहीं
Yess!!!
यही है परफेक्ट विव्यू..... धन्यवाद सुज्ञ जी, मेरे मन की बात कहने के लिये।
जो लोग रात-दिन घूम घूम कर मिशनरी अंदाज में ब्लॉगिंग में तमाम तरह का नैतिक पंवारा पढ़ाते रहते हैं, अल्ल्म गल्लम वाद लेकर टाईम पास करते हैं... ये होना चाहिये वो होना चाहिये, उनके छद्मालय को उजागर करने का सशक्त माध्यम है ब्लॉगिंग और इस तरह के मंथन से परहेज नहीं करना चाहिये।
वैसे भी ऐसे लोग उस तरह के हैं जिन्हें बाहर कोई नहीं पूछता इसलिये चाहते हैं कि वर्चुअल वर्ल्ड में तनिक रौब दाब बनाया जायु.....तनिक दबी कुंठाओं को, अहम को खुराक पहुंचाई जाय....सो जाहिर है ऐसी शख्सियतें खुद-ब-खुद आइटम के तौर पर नजर आएंगी....फिर तो वही होना है जो फिल्मी आइटमों पर होता है...लहालोटीकरण....हत तेरे धत तेरे....ब्ला ब्ला :)
और हां, गंभीर ब्लॉगरी अब भी चल रही है, लोग ब्लॉगिंग को गहन-गंभीर ढंग से पढ़ते हैं लिखते हैं, वो तो आइटमीकरण के चलते नेपथ्य में चले गये हैं वरना अच्छे अच्छे ब्लॉग हैं इसी ब्लॉगधरा पर.
- @ छदमावरण व छुपी मंशाएं यहाँ मूल्यों को चोट पहुचाती है ऐसी बातों का विरोध होना ही चाहिए और उसी से विवादों का सर्जन होता है। अगर ऐसे चिंतन और विमर्श ब्लॉगजगत के आबाद रहने के कारण बनते है तब भी इसमें कोई बुराई नहीं।प्रत्युत्तर दें
इससे हमारी भी सहमती ! किन्तु सुज्ञ जी ने किसी और मायने में ये बात कही सतीश जी ने किसी और मायने में इससे सहमती जताई और मैंने किसी और अब इन तीन मायनों को समझने का प्रयास करे :)
- ये लीजिए आपके विवाद के अंदेशे पे भी विवाद* शुरू :)प्रत्युत्तर दें
नोट :
हमारे कमेन्ट में प्रयुक्त 'तारांकित विवाद' शब्द का अर्थ असहमति से ही लें और आपके वाले विवाद शब्द का अर्थ वो , जो भी टिप्पणीकार मित्र और आप कहें :) - 'आईटम' तो हर फिल्म में होता भी नहीं है...इसके बिना भी फिल्में चल ही रहीं हैं और सफल भी हो रहीं हैं...
आपने विमर्श को 'आईटम' का नाम दिया बढ़िया है जी, कम से कम इसी बहाने कुछ आईटम किसिम के लोग ऐसे आईटम में हिस्सा लेंगे...
ऐसे विमर्श बहुत ज़रूरी हैं...सिर्फ़ लिखते जाना और उनपर कोई बात न होना, कोई मायने नहीं रखता, उससे अच्छा तो कोई किताब ही पढ़ ले और लेखक से कुछ भी न कहे... ब्लॉग ऐसा सशक्त मंच है, जिसकी उपयोगिता ऐसे विमर्शों से पूरी होती है...आत्मावलोकन का अवसर मिलता है, साथ ही बहुत सारी भ्रांतियाँ दूर होतीं हैं... इसलिए यह 'आईटम' तो इस फिलिम में मांगता है...अभी विमर्श /विवाद ज़ारी है आप भी फ़ौरन पहुंच कर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराएं ।लेकिन अचानक ही हमें ये ख्याल आया कि ये हिंदी ब्लॉगिंग का ही कमाल है कि कबाडखाना , जिसे लोग शायद कभी तवज्जो की सूची में नहीं रखते किंतु हिंदी ब्लॉगिंग के कबाडखाने में आपको एक से एक सुंदर पोस्टें नूमदार होती मिलेंगी , आज भाई अशोक पांडे , उनके लिए कुछ कह रहे हैं जो सुन्दर था ,
देखिए ,
क्या आपको लगता नहीं कि इस देश में जो भी सुन्दर है उसकी खाल में भुस भरने का कार्य बहुत बड़े स्तर पर जारी है -
यह रही पुरानी मूर्ति -
और यह ताज़ा तस्वीर -
जब तस्वीरों की कुछ बात चली है तो फ़िर आइए दखें कि चिडिया को देख कर किसकी आत्मा बेचैन हो रही है ,
घंटियों के ऊपर बैठी चिडिया
और ये रही एक निडर चिडिया
काका राजेश खन्ना ने आखिरकार " जिंदगी कैसी है पहेली..... को अलविदा कह दिया , उनके आखिरी सफ़र की कुछ झलकियां , भाई रंजीत जी ने अपनी पोस्ट में पाठकों के लिए रखी हैं
"वह सातवां दशक था, जब बालीवुड के प्रोडय़ूसरों ने टैलेंट हंट के जरिये एक ऐसे हीरो को तलाशा था जो पुष्पा, गीता, सुनीता, कामना, रीना और अनीता को कह सके .. आई हेट टीयर्स और उन्हें देख कर गा सके .. मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू. और उनके इस उम्मीद पर जतिन खन्ना नामक यह अदाकार सौ फीसदी खरा उतरा. हालांकि वे देवानंद के विकल्प के रूप में लाये गये थे, मगर रोमांस के साथ-साथ एक संदिग्ध छवि को जीने वाले देवानंद के बरक्श राजेश खन्ना सीधे-सादे युवक नजर आते थे जो मरदों की दुनिया में एक ऐसा चेहरा थे जो औरतों के जख्मों पर अच्छी तरह हाथ रखना जा चुके थे. वे पेन किलर भी थे और स्लिपिंग पिल्स भी.इस बात को समझने के लिए हमें वापस उस दौर में लौटना पड़ेगा. जब लोग-बाग दस लोगों के सामने अपनी घरवालियों से बतियाने में भी झिझकते थे और ऐसा करने वालों को हमारी तरफ बलगोभना कह कर पुकारा जाता था. जिसका सीधा-सपाट मतलब नामर्द होता था. औरतें मर्द के गुस्से भरे डायलॉग के बीच प्यार तलाशती थी और उस जमाने में राजेश खन्ना ने जब यह कहना शुरू किया .. कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना तो जैसे माहौल ही बदलने लगा. राजेश खन्ना को देख कर मरदों ने भी आई हेट टीयर्स कहना शुरू कर दिया. पारिवारिक और सामाजिक माहौल की घुटन में जीने वाली औरतों के लिए जाहिर सी बात है वे एक देवदूत सरीखे थे."
खैर काका को छोड अब आगे बढते हैं । प्रवीण पांडेय "उर्वशी " पर रीझे हुए हैं , और उसे पढते हुए वे कहते हैं ,"
क्या जानू, क्या मन में मेरे |
पुरुरवा ही प्रमुख नर पात्र की ध्वजा वहन करते हैं, उन्हीं के माध्यम से नर के भीतर की विभिन्न मनोदशाओं का चित्रण किया गया है। वह एक प्रतापी राजा हैं, देवों को बहुधा सहायता देते रहते हैं, दानवों के विरुद्ध। पुरुरवा के मन में देवलोक के प्रति अप्रतिम आकर्षण है, उन्हें यह तथ्य कचोटता भी है कि श्रेष्ठ होने पर भी उनके पास वह सब क्यों नहीं है? एक अतृप्त तृषा सदा ही उनके पीछे भागती है, एक अधूरेपन के भाव का लहराना उन्हें खटकता है। "
इस पर प्रतिक्रिया देते हुए , पाठक कहते हैं ,
आमिर खान का शो सत्यमेव जयते , चाहे जैसा भी रहा हो , उसकी सफ़लता और असफ़लता , फ़ायदे नुकसान के आकलन विश्लेषण के बीच ये तो जरूर हुआ है कि इस कार्यक्रम में उठाए हुए मुद्दों पर बहस और विमर्श खूब हुआ और हो रहा है । हाल ही में अस्पृश्यता को आधार बना कर प्रस्तुत एपिसोड के लिए लिखते हुए पल्लवी सक्सेना अपनी पोस्ट में कहती हैं ,"
"
यह 'छुआछूत' की समस्या हमारे समाज में ना जाने कितने सालों पुरानी है। राम जी के समय से लेकर अब तक यह समस्या हमारे समाज में अब न केवल समस्या के रूप में, बल्कि एक परंपरा के रूप में आज भी विद्दमान है। जो कि आज एक प्रथा बन चुकी है, एक ऐसी कुप्रथा जो सदियों से चली आ रही है। जब मैंने वो सब सोचा तो, मेरा तो दिमाग ही घूम गया। हो सकता है उस ही वजह से शायद आपको मेरा यह आलेख थोड़ा उलझा हुआ भी लगे। एक तरफ तो भगवान राम से शबरी के झूठे बेर खाकर यह भेद वहीं खत्म कर दिया और यदि हम प्रभु के रास्ते पर चलना ही उचित समझते है, तो केवट और शबरी के साथ प्रभु ने सतयुग में ही इस भेद को बदल दिया था। लेकिन हम आज भी वहीं के वहीं हैं।
खैर वैसे भी बात यहाँ इंसान और भगवान की नहीं 'छुआछूत' की है। जो तब भी थी और आज भी है और इस सब में मुझे तो घोर आश्चर्य इस बात पर होता है कि यह छुआछूत की मानसिकता सबसे ज्यादा हमारे पढे लिखे और सभ्य समाज के उच्च वर्ग में ही पायी जाती है। निम्न वर्ग में नहीं, ऐसा तो नहीं है। मगर हाँ तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो बहुत कम और लोग इस मानसिकता के चलते इस हद तक गिर जाते हैं, कि इंसान कहलाने लायक नहीं बचते। क्योंकि यह घिनौनी और संकीर्ण मानसिकता न केवल बड़े व्यक्तियों को, बल्कि छोटे-छोटे मासूम बच्चों को भी इस क़दर मानसिक आहत पहुँचाती है कि उन्हें बाहरी दुनिया से कटना ज्यादा पसंद आता है। बजाय उसे जीने के, उसे देखने के, क्योंकि या तो लोग उन्हें घड़ी-घड़ी पूरे समाज के सामने अपमानित करते है या उनकी मजबूरी का फायदा उठाते है। "
इस पोस्ट पर आई प्रतिक्रियाएं भी जरूर बांचिए ,
हमारे देश में छुआछूत एक अपराध है. लेकिन तत्संबंधी नियमों का उल्लंघन होने पर किसी को आज तक कोई दंड मिला हो ऐसा देखने में नहीं आया. आपका दिया हुआ अंतर्जातीय विवाहों का सुझाव एक कारगर उपाय है जो ज़ोर पकड़ रहा है. लेकिन उसमें काफी समय लगेगा.
पल्लवी बिटिया, मुख्य मुद्दा है धन के प्रवाह का. यदि सरकार आरक्षण के माध्यम से अनुसूचित जातियों की ओर धन का प्रवाह होने देती है तो देश की अन्य जातियों को और उद्योग जगत को सस्ते श्रम की उपलब्धता खतरे में दिखने लगती है. इसी लिए इनकी शिक्षा के स्तर को भी अच्छा नहीं होने दिया जाता चाहे उसके लिए कपिल सिब्बलाना सुधार ही क्यों न लागू करने पड़ें. यह है सच्चाई.
आपका आलेख पढ़ कर अच्छा लगा
और ,
Reply
तुम बदलोगे युग बदलेगा, तुम सुधरोगे युग सुधरेगा
प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं और अपने आस पास के लोगों की मानसिकता में परिवर्तन लाना होगा तभी धीरे धीरे इससे पूरे समाज में जागरूकता आ सकती है।
एक बात और भी कहना चाहूँगा 'आरक्षण' नाम की बीमारी भी इस देश से दूर होनी ज़रूरी है क्योंकि ये भी एक वजह है जो शूद्रों को अपनी हालत वही की वही रखे रहने का लोभ है ......ये मेरा अपना नजरिया है ।
बावरी सी हो तुम
तुम तो बावरी नदी सी हो
कभी तो होती हो शांत
फूलों की पंखुड़ियों सी,
और कभी हो जाती हो चंचल,
जैसे शाम में समुद्र की लहरें...
तुम तो उस पतंग जैसी हो,
जो उड़ना चाहती है आसमान में
और थामे हो मुझे
एक डोर की तरह...
तुम तो पगली सी हो,
हर शाम बैठे बैठे
रेत के महल बनाती हो
लगाती हो उसमे एक चारपाई,
और मेरे ख्यालों को ओढ़कर प्यार से सो जाती हो...
तुम तो खुशबू बिखेरती उस हवा सी हो
घर के पीछे वाले आँगन में
प्यार के फूल लगाती हो
और हर सुबह उन प्यार भरे फूलों का एक गुलदस्ता
मेरे सिरहाने रख कर जाती हो...
और मैं...
मैं तो हमसफ़र हूँ तुम्हारा
हर पल तुम्हें ही जीता रहता हूँ,
हाथों में हाथ लिए
तुम्हें आसमान की सैर कराता हूँ,
तुम हंसती हो, खिलखिलाती हो
इतराती हो, इठलाती हो....
कभी कभी शरमा कर खुद में सिमट जाती हो...
मैं तो वो आवारा बादल हूँ
जो अपनी बरसात अपने संग लिए चलता है..
बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर, 1910 को बंगाली कायस्थ परिवार में ग्राम-औरी, जिला-नानी बेदवान (बंगाल) में हुआ था। इनका बचपन अपने जन्म स्थान के अतिरिक्त बंगाल प्रांत के वर्धमान जिला अंतर्गत खण्डा और मौसु में बीता। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में सम्पन्न हुई। 1924 में कानपुर में इनकी भगत सिंह से भेंट हुई। इसके बाद इन्होंने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए कानपुर में कार्य करना प्रारंभ किया। इसी क्रम में बम बनाना भी सीखा।
8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान का संसद भवन) में भगत सिंह के साथ बम विस्फोट कर ब्रिटिश राज्य की तानाशाही का विरोध किया। बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ पचांर्े के माध्यम से अपनी बात को प्रचारित करने के लिए किया गया था। उस दिन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो इन लोगों के विरोध के कारण एक वोट से पारित नहीं हो पाया।"
कि कुछ नहीं हो सकता
तुम्हें कुछ नहीं सोचना चाहिए
खिड़की के पेलमेट पर रखे हुए तनहा गुलदस्ते के बारे में
उसे आदत है एकाकीपन में जीने की.
कि उन फूलों ने बहुत कोशिशें की थी
लोगों से घुल मिल जाने की
मगर निराशा में चुन ली है यही जगह, ज़रा अँधेरी, ज़रा उदास
जैसे कोई हताश आदमी बैठा होता है, एक अधबुझे लेम्पोस्ट के नीचे.
मैं ऐसी ही चीज़ों के बीच
इसी घर में हूँ, तुम्हें प्रेम करने के लिए
ये मर्ज़ी है तुम्हारी कि रात भर जागते रह सकते हो कहीं भी.
सुनो मेरी बात कि अगर तुम आओगे यहाँ
तो अपनी आदत के हिसाब से मेरे कमरे में रो सकते हो रात भर
कि मुझे भी आदत है पतझड़ के पेड़ों को देखने की
और मालूम है कि सूखी पत्तियों को किस तरह उठाना चाहिए सावधानी से.
ज्यादा सोचा मत करो कि तुम्हारे बिना भी मैं कभी तनहा नहीं होता हूँ
कि मुझे अक्सर चुभते रहते हैं किसी याद के कांटे
जैसे आप बैठे हुए हों किसी नौसिखिये कारीगर की बनायी हुई दरी पर.
तुमसे बिछड़ने के बाद
मैंने कई बार आत्महत्या की और फिर लौट आया घर.
मैंने एक उदास भालू की तरह नैराश्य को सूंघा
और फिर से खो गया आदमियों की भीड़ के जंगल में
कि मरना बड़ा वाहियात काम है जब तक घर पर बच्चे कर रहे हों इंतज़ार.
इधर आने से नहीं डरना चाहिए तुमको
कि मेरे घर की गली से नहीं गुज़रता है कोई झाड़ागर,
किसी के पास नहीं बचे हैं जादुई शब्द
मोहल्ले का सबसे कद्धावर आदमी भी बैठा है, उम्मीद का सहारा लिए हुए.
मैं तुम्हें नहीं करना चाहता हूँ सम्मोहित बिल्ली की तरह आँखें टिमटिमा कर
बस कहना चाहता हूँ कि देखो अहसासों की मुफलिसी के बीच
कितना कुछ तो बचा रहता है हम सब में, उन दिनों का बाकी.
यूं इस दुनिया में नुमाईशों की फ़िल्म चलती रहती है.
आदमी और औरतें मिल कर रोते हैं, एक इंतजार करते हुए कुत्ते को देख कर
मगर भूल जाते हैं, जाने क्या क्या ?
कि कुछ नहीं हो सकता
जैसे मैं लिखता रहता हूँ ऐसी बेवजह की बातें, जो कहीं पहुँचती ही नहीं.
बेवकूफ़ लोग नंबर दो के लिए झगडा कर रहे हैं
आपका ब्लॉग खबरी .....
अजय कुमार झा
क्या 'ब्लॉगवुड' आबाद रहने के लिये विवाद रूपी ' आइटम ' पर निर्भर हो गया है ?
नहीं लगता जनाब!! क्योंकि ब्लॉगिंग हम गम्भीरता से लेते है, मात्र मनमौज का साधन नहीं!!
इसलिए भी कि हमारी दृष्टि रतौन्ध भरी नहीं न विशेष रंग के चश्मे से देखते है।
छदमावरण व छुपी मंशाएं यहाँ मूल्यों को चोट पहुचाती है ऐसी बातों का विरोध होना ही चाहिए और उसी से विवादों का सर्जन होता है। अगर ऐसे चिंतन और विमर्श ब्लॉगजगत के आबाद रहने के कारण बनते है तब भी इसमें कोई बुराई नहीं।