वैसे तो मुझे रविवार को आप सब से मिलना था पर कुछ काम ऐसे आ पड़े कि आना न हो सका ... शाम शिवम भाई का फोन आया कि आज बुलेटिन मुझे संभालनी है तो उनसे तो कह दिया ठीक है पर फुर्सत अब मिल पायी ... सो आज का माल आप को थोड़ा बासी लग सकता है ... पर जनाब याद रखिएगा ... शराब जितनी पुरानी हो मज़ा उतना ही ज्यादा आता है ... और सच जानिए ब्लॉग पोस्टो का भी कुछ ऐसा ही है ... न मानिए तो पढ़ कर देख लीजिये ... ;-)
1.
पोस्टमार्टम के बहाने रक्तमयी तंत्र का पोस्टमार्टम
मित्रों, सरविन्द नाम था उनका। वे मेरे चचेरे साले थे। उम्र ४० के आसपास थी। मोटरसाइकिल चलाना उनका पैशन था। उन्होंने मोटरसाइकिल से ही अपने गाँव कुबतपुर जो महनार के पास है से कोलकाता तक का सफ़र तय किया था और वो भी एक बार नहीं बल्कि कई-कई बार। वो भी बेदाग़, बिना किसी दुर्घटना के। परन्तु २५ अप्रैल,२०१२ को जब वे अपने गाँव कुबतपुर से 15-२० किलोमीटर दूर पानापुर दिलावरपुर के लिए निकले तो फिर घर वापस नहीं लौट सके और पानापुर चौक पर ही भीषण दुर्घटना का शिकार हो गए।
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3.और मरने में फर्क बड़ा है .....!
4.
यह कैसा देश, कैसा लोकतंत्र जहां एक निर्वाचित सांसद सार्वजनिक रुप से यह कहता है कि सांसद और विधायक की उम्मीदवारी के लिए 'बैंक बैलेंस' देखा जाता है, पारिवारिक पाश्र्व को अहमियत दी जाती है! क्या सचमुच 'धन' और 'वंश' ने पूरी की पूरी राजनीतिक व्यवस्था को अपने मजबूत आगोश में जकड़ रखा है? अगर यह सच है तो तय मानिए कि आदर्श लोकतंत्र की मौत निकट है। स्वर्गीय इंदिरा गांधी के पौत्र और युवा भाजपा सांसद वरुण गांधी दो टूक शब्दों में जब इन बातों की पुष्टि करते हैं, तब इस पर एक गंभीर राष्ट्रीय बहस होनी ही चाहिए थी। आश्चर्य है कि वरुण के शब्दों को मीडिया ने भी एक सामान्य खबर की तरह छोटा स्थान दिया। क्यों? पड़ताल और बहस इसपर भी होनी चाहिए।
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लोकतंत्र की मानवाधिकारों के बिना कल्पना असंभव है। भारत में लोकतंत्र पर बातें होती हैं लेकिन मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में बातें नहीं होतीं। हमारे यहां का अधिकांश लेखन संवैधानिक नजरिए और उसके विकल्प के वाम-दक्षिण दृष्टियों के बौद्धिक विभाजन या दलीय वर्गीकरण में बंटा है।इसके अलावा मानवाधिकारों पर शीतयुद्धीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य के परे जाकर देखने की भी आवश्यकता है।
14.
डा. शिवमंगल सिद्धांतकर न सिर्फ़ प्रतिबद्ध कवि हैं बल्कि शब्द को कर्म में रूपान्तरित करने वाले संस्कृतिकर्मी भी. सीमा आज़ाद और विश्वविजय के पक्ष में आवाज़ बुलन्द करने वालों में वे अग्रणी हैं. यहां उनकी ताज़ा टिप्पणी दी जा रही है जो आपातकाल विरोधी दिवस 26 जून को जारी की गयी थी
अदालती आतंकवाद
कोई एक दल या संगठन या व्यक्ति अन्यायपूर्ण सरकार और सत्ता के खिलाफ यदि संघर्ष छेड़ता है तो वह संघर्ष देश और दुनिया भर में चल रहे संघर्षों का एक हिस्सा होता है और जिस दल, संगठन या व्यक्ति ने संघर्ष छेड़ा होता है वह किसी एक दल या संगठन या व्यक्ति का संघर्ष नहीं रह जाता बल्कि इस प्रकार के सभी तत्त्वों का संघर्ष बन जाता है। सत्ता विरोधी किसी दल या संगठन या व्यक्ति को यदि प्रतिबंधित किया जाता है तो वह इस तरह के अन्य तत्त्वों पर भी प्रतिबंध समझ लिया जाता है। ऐसी हालत में प्रतिरोधकारी और विद्रोहकारी एकता जरूरी हो जाती है।
15.
कुछ समय पहले एक मानवश्रेष्ठ से उनकी कुछ समस्याओं पर एक संवाद स्थापित हुआ था। कुछ बिंदुओं पर अन्य मानवश्रेष्ठों का भी ध्यानाकर्षण करने के उद्देश्य से, इस बार उसी संवाद से कुछ सामान्य अंश यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं। यह बताना शायद ठीक रहे, कि संवाद के व्यक्तिगत संदर्भों को हटा कर यहां सार्वजनिक करने के लिए उनकी पूर्वानुमति प्राप्त कर ली ही गई है।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
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(पिछली कड़ी से आगे)
करांची के एक मित्र ने अपने प्रांत की विशेषता बताते हुए बड़े अभिमान से कहा – ‘सिंधी भिखमंगे नहीं होते, मजूर, मोची, तेली-तमोली, सुनार-दर्जी सिंधी नहीं होते; वेश्याएं भी सिंधी नहीं होतीं.” “तो आखि़र ये आये कहां से?” मैंने उलटकर पूछा तो जवाब मिला “कच्छ, राजपूताना, पंजाब से; और घरेलू नौकर हमें आपके युक्त प्रांत से बहुत सस्ते मिलते हैं.”
17.
जी, कुछ कहना है तुम से | इस पर वे हमेशा की तरह शिकायत और उलाहना भरे अंदाज़ में चहकी , फिर 'जी' लगाया आपने | मैंने कहा , मैं तो कब से 'जी' लगाए बैठा हूँ, पर तुम्हारा "जी है कि मानता नहीं" | क्या मतलब इसका ,उसने पूछा | मैंने कहा, 'जी' का अर्थ दिल होता है , अब जब तुमसे दिल लगा लिया है फिर तो नाम से भी 'जी' लगाना पडेगा न, और तुम कहती हो कि 'जी' मत लगाइए |
मेरा 'जी' तो तुमसे लग गया है और तुम्हारे नाम से भी, फिर बिना 'जी' लगाये बात कैसे करें | कोई किसी से बिना जी लगाए बात कर भी कैसे सकता है ,और मेरा 'जी' तो तुम्हारी बातें सुनने को ही बेक़रार रहता है । दिल तो करता है कि तुम्हें 'जी सुनो जी' कह कर पुकारा करूं | इसी बहाने मेरे 'जी' के बीच तो रहोगी तुम | खिलखिलाते हुए वे बोली , "जी आप भी एकदम वो हैं जी" |
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मिल्ली गजट के संपादक जफरउल इस्लाम ने कहा कि वादा निभाओ धरने को संविधान के वादे से जोड़कर देखना जरुरी है क्योंकि संविधान किसी भी निर्दोष व्यक्ति के उत्पीड़न की इजाजत नहीं देता हैएइसलिए यदि कोई सरकार किसी निर्दोष का उत्पीड़न करती हैए तो वह संविधान के साथ धोखा करने जैसा हैएजिसे किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि लखनऊ में हो रहे इस धरने के मकसद को पूरे सूबे में ले जाने की जरूरत है।
21.
अच्छा जी , तो अब मुझे आज्ञा दीजीए । मैं चलता हूं , अपना ख्याल रखिए और पढते लिखते रहिए ।
1.
पोस्टमार्टम के बहाने रक्तमयी तंत्र का पोस्टमार्टम
मित्रों, सरविन्द नाम था उनका। वे मेरे चचेरे साले थे। उम्र ४० के आसपास थी। मोटरसाइकिल चलाना उनका पैशन था। उन्होंने मोटरसाइकिल से ही अपने गाँव कुबतपुर जो महनार के पास है से कोलकाता तक का सफ़र तय किया था और वो भी एक बार नहीं बल्कि कई-कई बार। वो भी बेदाग़, बिना किसी दुर्घटना के। परन्तु २५ अप्रैल,२०१२ को जब वे अपने गाँव कुबतपुर से 15-२० किलोमीटर दूर पानापुर दिलावरपुर के लिए निकले तो फिर घर वापस नहीं लौट सके और पानापुर चौक पर ही भीषण दुर्घटना का शिकार हो गए।
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यादों का पाखी ( हाइकु )
यादों का पाखी
मेहमान हमारा
बिन बुलाया ।
नहीं उड़ता
दिल के कंगूरे से
याद का पाखी ।
3.और मरने में फर्क बड़ा है .....!
एक हल्की-फुल्की संजीदा सी मुलाकात ...
सत्य पर अधारित...एक सपना !
बचपन के दोस्त ...से मुलाक़ात
जो बड़ी जल्दी ही अपनी मंजिल
को पा गया ........
मैं और मेरा दोस्त ये गई बीती रात की बात है भले ही सपने की मुलाक़ात है मुश्किल से आँख लगी थी मेरी उसमें भी मुझे याद आ गई तेरी |
4.
वरुण के दो टूक पर यह कैसा राष्ट्रीय मौन?
यह कैसा देश, कैसा लोकतंत्र जहां एक निर्वाचित सांसद सार्वजनिक रुप से यह कहता है कि सांसद और विधायक की उम्मीदवारी के लिए 'बैंक बैलेंस' देखा जाता है, पारिवारिक पाश्र्व को अहमियत दी जाती है! क्या सचमुच 'धन' और 'वंश' ने पूरी की पूरी राजनीतिक व्यवस्था को अपने मजबूत आगोश में जकड़ रखा है? अगर यह सच है तो तय मानिए कि आदर्श लोकतंत्र की मौत निकट है। स्वर्गीय इंदिरा गांधी के पौत्र और युवा भाजपा सांसद वरुण गांधी दो टूक शब्दों में जब इन बातों की पुष्टि करते हैं, तब इस पर एक गंभीर राष्ट्रीय बहस होनी ही चाहिए थी। आश्चर्य है कि वरुण के शब्दों को मीडिया ने भी एक सामान्य खबर की तरह छोटा स्थान दिया। क्यों? पड़ताल और बहस इसपर भी होनी चाहिए।
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दीन’ में समाया ‘ध्यान’ [1]
ए क-सी ध्वनि वाले शब्द भी भिन्न अर्थवत्ता की वजह से भाषा को समृद्ध बनाते हैं । हिन्दी में दो “दीन” बसे हुए हैं । एक “दीन” वह है जिसका साथ देना मानवता का धर्म है । ‘दीन’ यानी दुखी, वंचित, विपन्न व्यक्ति । एक अन्य ‘दीन’ वह है जिसका पालन कर हम मानवीय बने रह सकते हैं । ‘दीन’ यानी धर्म । पहला ‘दीन’ हिन्दी की तत्सम शब्दावली का हिस्सा है और दूसरा ‘दीन’ विदेशज शब्दावली में शामिल है । अक्सर ईमानदारी, नैतिकता को अभिव्यक्त करते हुए हम “दीनो-ईमान” और “दीन-धर्म”, “दीन-मज़हब” जैसे मुहावरों का प्रयोग करते हैं । “दीन-दुनिया” भी ऐसा ही मुहावरा है जिसका अर्थ है धर्म और समाज । तात्पर्य यह कि जीवनयापन करते हुए धर्म और समाज दोनो का ध्यान रखना । जो ऐसा नहीं करता, उसे गाफिल, बेफिक्र, बेगाना, बेहोश, पागल समझा जाता है । ऐसे लोगों के बारे में ही “दीन-दुनिया का होश न रहना” जैसा मुहावरा कहा जाता है । हिन्दी शब्दसागर में “दीन-दुनिया” का अर्थ लोक-परलोक बताया गया है, जो मेरे विचार में सही नहीं है । इन सभी मुहावरों में ‘दीन’ शब्द बराबर मौजूद है जिसमें नैतिक कर्तव्य या धर्म का भाव है और प्रस्तुत आलेख में इसी ‘दीन’ की बात होगी ।
6.
भ्रष्टाचारी का आत्मविश्वास तगड़ा है
क्या हमारा समाज सादा जीवन उच्च विचार का मंत्र भूलता जा रहा है?महाराष्ट्र के एक पूर्व मुख्यमंत्री एक बड़े और चर्चित घोटाले की जांच के लिए राज्य सरकार द्वारा गठित आयोग के समक्ष शनिवार को पेश हुए। आज शाम यह समाचार सभी चैनेलों पर वीडियो क्लिप के साथ आ रहा है। गाड़ी से उतरकर नेता जी बत्तीसो दाँत मुस्करा रहे हैं और अपने समर्थकों और “प्रशंसकों” से हाथ मिलाते हुए ऐसे आगे बढ़ रहे हैं जैसे दिल्ली में खाली हुए वित्तमंत्री के पद की शपथ लेने जा रहे हों। चेहरे पर ऐसा आत्मविश्वास सी.डब्ल्यू.जी. और थ्रीजी घोटाले के सरगनाओं के चेहरे पर भी चस्पा रहता था जब चैनेल वाले उनके जेल से अदालत आने जाने की तस्वीरें दिखाते थे। ऐसा आत्मविश्वास देखकर मुझे पहले तो आश्चर्य होता था लेकिन अब अपनी सोच बदलने की जरूरत महसूस होने लगी है।
7.
अल्पसंख्यक आरक्षण: कोटे की नीयत पर सवाल?
उत्तरप्रदेश समेत पाँच विधानसभा चुनावों के दौरान केंद्र सरकार ने जब केंद्रीय शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश के लिए निर्धारित पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में ही मुस्लिम छात्रों को साढ़े चार फीसदी आरक्षण देने का ऐलान किया था तो इसमें कम से कम राजनीतिक दलों को राजनीति ही नजर आई थी। संविधान मजहब-आस्था के आधार पर किसी भी किस्म के आरक्षण का निषेध करता है, लेकिन केंद्रीय सत्ता ने ठीक ऐसा ही किया और अल्पसंख्यक तबकों विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय को आकर्षित करने के लिए उसने आनन-फानन आधिकारिक ज्ञापन के जरिये साढ़े चार फीसद आरक्षण की घोषणा कर दी। यह घोषणा तब की गई जब निर्वाचन आयोग चुनाव कार्यक्रम घोषित करने की तैयारी कर रहा था। सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह यह कहा कि अल्पसंख्यक आरक्षण के लिए जिस आधिकारिक ज्ञापन का सहारा लिया गया उसका कोई संवैधानिक या वैधानिक आधार ही नहीं है उससे यह स्वत: सिद्ध हो जाता है कि केंद्रीय सत्ता अपने इस फैसले के जरिये वोटों की फसल काटना चाहती थी। हालांकि उसके फैसले का विरोध हर स्तर पर हुआ, लेकिन उसने यह तर्क दिया कि उसने इस तरह के आरक्षण का वायदा 2009 के अपने चुनाव घोषणा पत्र में किया था। वह अभी तक यह स्पष्ट नहीं कर सकी है कि उसने अपने चुनावी वायदे को पूरा करने में तीन साल की देर क्यों की ?8.
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में जुगुप्सा और अमंगल जनित अश्लीलता एवं अन्य दोषों के परिहार की स्थितियों पर चर्चा अभीष्ट है। इस अंक में कुछ अन्य दोषों के परिहार की स्थितियों पर चर्चा होगी।
जहाँ कहीं आत्म-चिन्तन या परामर्श का काव्य में वर्णन किया गया हो, वहाँ अप्रतीतत्व दोष काव्यदोष न होकर काव्य का गुण माना जाता है। निम्नलिखित श्लोक मॆ प्रयुक्त नाड़ी, चक्र, शक्ति एवं शक्तिनाथ जैसे शब्द हठयोग और तंत्र शास्त्रों के हैं। परन्तु यह श्लोक कपालकुण्डला के आत्मचिन्तन के अवसर को प्रदर्शित करने के लिए लिखा गया है। अतएव यहाँ अप्रतीत्व दोष गुण बन गया है-
षडधिकदशनाडीचक्रमध्यस्थितात्मा हृदि विनिहितरूपः सिद्धिदस्तद्विदां यः।
अविचलितमनोभिः साधकैर्मृग्यमाणः स जयति परिणद्धः शक्तिभिः शक्तिनाथः।।9.
मिलिये मेरे नए दोस्त 'नवाब' से ...
10.
सर्वेश का पत्र
11.
दुनिया में कंजूस आदमी सबसे दयालु इन्सान होता है -- क्या आप भी हैं
पूर्वी दिल्ली के एक शानदार मॉल की सबसे उपरी मंजिल पर खड़ा मैं देख रहा था नीचे की चहल पहल -- आते जाते , हँसते मुस्कराते , इठलाते चहकते --- युवा नर नारी , कोई हाथों में हाथ डाले , कोई कोने में खड़े होकर चिपियाते, फुसफुसाते ( कड्लिंग ), -- लेकिन सब खुश -- बाहर की दुनिया से बेखबर .
कितनी अजीब बात थी -- बाहर की दुनिया में कहीं पानी नहीं , कहीं बिजली -- पेट्रोल ज्यादा महंगा या सब्जियां -- गर्मी से परेशान काम पर जाते लोग या ट्यूशन के लिए जाते छात्र .
लेकिन यहाँ बस एक ही दृश्य -- सब खुश , मग्न , चिंतारहित, पूर्णतया मित्रवत .
12.
यानिस रित्सोस की कविता
यानिस रित्सोस की एक और कविता...जड़ता : यानिस रित्सोस
(अनुवाद : मनोज पटेल)
अकेला बैठा था वह कमरे के अँधेरे में सिगरेट पीता हुआ.
कुछ भी दिख नहीं रहा था. केवल उसके सिगरेट की चमक
धीरे-धीरे हरकत करती थी यदा-कदा, सावधानीपूर्वक,
जैसे वह कुछ खिला रहा हो किसी बीमार लड़की को
चांदी के एक चम्मच से, या जैसे इलाज कर रहा हो
किसी सितारे के जख्म का एक छोटे से नश्तर से.13.
मानवाधिकार के ग्लोबल पैराडाइम के अंतर्विरोध
लोकतंत्र की मानवाधिकारों के बिना कल्पना असंभव है। भारत में लोकतंत्र पर बातें होती हैं लेकिन मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में बातें नहीं होतीं। हमारे यहां का अधिकांश लेखन संवैधानिक नजरिए और उसके विकल्प के वाम-दक्षिण दृष्टियों के बौद्धिक विभाजन या दलीय वर्गीकरण में बंटा है।इसके अलावा मानवाधिकारों पर शीतयुद्धीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य के परे जाकर देखने की भी आवश्यकता है।
14.
अदालती आतंकवाद
डा. शिवमंगल सिद्धांतकर न सिर्फ़ प्रतिबद्ध कवि हैं बल्कि शब्द को कर्म में रूपान्तरित करने वाले संस्कृतिकर्मी भी. सीमा आज़ाद और विश्वविजय के पक्ष में आवाज़ बुलन्द करने वालों में वे अग्रणी हैं. यहां उनकी ताज़ा टिप्पणी दी जा रही है जो आपातकाल विरोधी दिवस 26 जून को जारी की गयी थी
अदालती आतंकवाद
कोई एक दल या संगठन या व्यक्ति अन्यायपूर्ण सरकार और सत्ता के खिलाफ यदि संघर्ष छेड़ता है तो वह संघर्ष देश और दुनिया भर में चल रहे संघर्षों का एक हिस्सा होता है और जिस दल, संगठन या व्यक्ति ने संघर्ष छेड़ा होता है वह किसी एक दल या संगठन या व्यक्ति का संघर्ष नहीं रह जाता बल्कि इस प्रकार के सभी तत्त्वों का संघर्ष बन जाता है। सत्ता विरोधी किसी दल या संगठन या व्यक्ति को यदि प्रतिबंधित किया जाता है तो वह इस तरह के अन्य तत्त्वों पर भी प्रतिबंध समझ लिया जाता है। ऐसी हालत में प्रतिरोधकारी और विद्रोहकारी एकता जरूरी हो जाती है।
15.
मानसिकताओं में परिवर्तन एक धीमी प्रक्रिया है
हे मानवश्रेष्ठों,कुछ समय पहले एक मानवश्रेष्ठ से उनकी कुछ समस्याओं पर एक संवाद स्थापित हुआ था। कुछ बिंदुओं पर अन्य मानवश्रेष्ठों का भी ध्यानाकर्षण करने के उद्देश्य से, इस बार उसी संवाद से कुछ सामान्य अंश यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं। यह बताना शायद ठीक रहे, कि संवाद के व्यक्तिगत संदर्भों को हटा कर यहां सार्वजनिक करने के लिए उनकी पूर्वानुमति प्राप्त कर ली ही गई है।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
16.
सिंध में सत्रह महीने - अंतिम किस्त
करांची के एक मित्र ने अपने प्रांत की विशेषता बताते हुए बड़े अभिमान से कहा – ‘सिंधी भिखमंगे नहीं होते, मजूर, मोची, तेली-तमोली, सुनार-दर्जी सिंधी नहीं होते; वेश्याएं भी सिंधी नहीं होतीं.” “तो आखि़र ये आये कहां से?” मैंने उलटकर पूछा तो जवाब मिला “कच्छ, राजपूताना, पंजाब से; और घरेलू नौकर हमें आपके युक्त प्रांत से बहुत सस्ते मिलते हैं.”
17.
" जी " क्यों लगाया ............"
जी, कुछ कहना है तुम से | इस पर वे हमेशा की तरह शिकायत और उलाहना भरे अंदाज़ में चहकी , फिर 'जी' लगाया आपने | मैंने कहा , मैं तो कब से 'जी' लगाए बैठा हूँ, पर तुम्हारा "जी है कि मानता नहीं" | क्या मतलब इसका ,उसने पूछा | मैंने कहा, 'जी' का अर्थ दिल होता है , अब जब तुमसे दिल लगा लिया है फिर तो नाम से भी 'जी' लगाना पडेगा न, और तुम कहती हो कि 'जी' मत लगाइए |
मेरा 'जी' तो तुमसे लग गया है और तुम्हारे नाम से भी, फिर बिना 'जी' लगाये बात कैसे करें | कोई किसी से बिना जी लगाए बात कर भी कैसे सकता है ,और मेरा 'जी' तो तुम्हारी बातें सुनने को ही बेक़रार रहता है । दिल तो करता है कि तुम्हें 'जी सुनो जी' कह कर पुकारा करूं | इसी बहाने मेरे 'जी' के बीच तो रहोगी तुम | खिलखिलाते हुए वे बोली , "जी आप भी एकदम वो हैं जी" |
18.
कार्टून:- पैचान कौन ...
19.
फूल पर घिरती शाम
कल जून महीने का आखिरी दिन था. रेगिस्तान, आँधियों की ज़द में है इसलिए तापमान कम था. दोपहर के वक़्त, नेशनल हाई वे पर पसरा हुआ सन्नाटा तोडती कुछ गाड़ियाँ. अचानक तेज़ रफ़्तार बाइक पर गुज़रा, एक नौजवान. इस गरमी में भी बाइक के रियर व्यू मिरर में टंगा हुआ, हेलमेट. उसे भूल कर, रास्ते भर सोचता रहा जाने क्या कुछ.... बहुत सारी बेवजह की बातें, मगर तीन पढ़िए... कि किसी दिन आ जाओ रेगिस्तान की शाम की तरह20.
खूफिया एजेंसियों और एटीएस साम्प्रदायिक संगठन
विधान सभा पर हुआ वादा निभाओ धरना
बेगुनाह मुस्लिम युवकों छोड़ने के चुनावी वादों को पूरा करने की उठी मांग
लखनऊ। 30 जून 2012। सपा सरकार के वादे को याद दिलाते हुए विधान सभा पर विशाल धरने का आयोजन किया गया, इस अवसर पर सैकड़ों की संख्या में लोग पहुंचे इसके अलावा मानवाधिकार नेताओंएकार्यकर्ताओं और अन्य संगठनों के प्रतिनिधि धरने में शामिल हुए। धरने का आयोजन आतंकवाद के नाम कैद निर्दोंषों का रिहाई मंच बैनर तले आयोजित किया गया ।मिल्ली गजट के संपादक जफरउल इस्लाम ने कहा कि वादा निभाओ धरने को संविधान के वादे से जोड़कर देखना जरुरी है क्योंकि संविधान किसी भी निर्दोष व्यक्ति के उत्पीड़न की इजाजत नहीं देता हैएइसलिए यदि कोई सरकार किसी निर्दोष का उत्पीड़न करती हैए तो वह संविधान के साथ धोखा करने जैसा हैएजिसे किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि लखनऊ में हो रहे इस धरने के मकसद को पूरे सूबे में ले जाने की जरूरत है।
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जेल डायरी: अरूण फरेरा
जेल ऊँची दीवारों के भीतर की सिर्फ एक जगह का नाम नहीं है. उसके कई संस्करण हैं. दीवारों के बाहर और भीतर होना एक अलग अहसास से भर देता है. आज़ादी के विलोम में यहाँ सबकुछ मौजूद है. अथाह झूठ के पुलिंदो से ग्रसित ज़ेहन की अनसुनी और अनकही कहानियों वाली कई रातें और कई दिन. अरुण फरेरा कों मई 2007 में माओवादी होने के आरोप में नागपुर से गिरफ्तार किया गया था. अखबारों में उनके गिरफ्तारी, नार्को टेस्ट के दौरान दिए गए बयान की सच्ची-झूठी कहानियां पिछले 4 वर्षों तक आती रही. अदालती फैसलों के तहत जेल से उनका छूटना और फिर जेल की सलाखों में धकेल दिया जाना. इस माह ओपन पत्रिका में उनकी लम्बी जेल डायरी प्रकाशित हुई. जिसका हिन्दी अनुवाद अनिल ने किया है. इसे हम तीन किस्तों में यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं. डायरी के साथ प्रकाशित जेल की स्थिति दर्शाते चित्र भी अरुण फरेरा ने खुद बनाए हैं.
अच्छा जी , तो अब मुझे आज्ञा दीजीए । मैं चलता हूं , अपना ख्याल रखिए और पढते लिखते रहिए ।
9 टिप्पणियाँ:
अच्छे लिंक्स
इधर आई बेहतरीन पोस्टों का चुनाव किया है आपने।
आज पता चला ब्लॉग बुलेटिन कितना काम का है...:P
दो तीन दिन से ब्लॉग नहीं पढ़ा था तो आज यहीं से मस्त लिंक मिल गए ;)
बहुत सारे बेहतरीन लिंक्स मिले !
ढूढ़कर लाये नायाब सूत्र..
जय हो अजय भाई ... सही बोले ... पुरानी पोस्टो मे पुरानी शराब जैसा ही मज़ा होता है ... खूब सर चढ़ बोलता है इन का भी नशा ... जय हो !
बहुत ही अच्छे लिंक्स और प्रस्तुति।
बुलेटिन के अंदाज की बात ही अलग है ...
badhiya buletin
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बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!