प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
प्रणाम |
महारानी दुर्गावती (5 अक्टूबर, 1524 – 24 जून, 1564) कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल
की एकमात्र संतान थीं। बांदा जिले के कालिंजर किले में 1524 ईसवी की
दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही
तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी।
दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी लेकिन फिर भी
दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर गोण्डवाना साम्राज्य के राजा
संग्राम शाह मडावी ने अपने पुत्र दलपत शाह मडावी से विवाह करके, उसे अपनी
पुत्रवधू बनाया था।
दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस
समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था। अतः रानी ने स्वयं ही
गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। उन्होंने अनेक मठ, कुएं, बावड़ी तथा
धर्मशालाएं बनवाईं। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने
अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान
आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया।
रानी दुर्गावती का यह सुखी और सम्पन्न राज्य पर मालवा के मुसलमान शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला किया, पर हर बार वह पराजित हुआ। महान मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम
में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद
हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास
भेजने को कहा। रानी ने यह मांग ठुकरा दी |
इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में गोण्डवाना
साम्राज्य पर हमला कर दिया। एक बार तो आसफ खां पराजित हुआ, पर अगली बार
उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुत
कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा
स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में 3,000 मुगल
सैनिक मारे गये लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई थी।
अगले दिन 24 जून 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला बोला। आज रानी का पक्ष
दुर्बल था, अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया।
तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरे तीर ने उनकी
आंख को बेध दिया, रानी ने इसे भी निकाला पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी।
तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया।
रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी
तलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी
कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं।
महारानी दुर्गावती ने अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपनी जान गंवाने
से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया था।
जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला
है, जो मंडला रोड पर स्थित है, वही रानी की समाधि बनी है, जहां गोण्ड
जनजाति के लोग जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। जबलपुर में स्थित रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय भी इन्ही रानी के नाम पर बनी हुई है।
ब्लॉग बुलेटिन टीम और हिन्दी ब्लॉग जगत की ओर से वीरांगना रानी दुर्गावती को शत शत नमन |
सादर आपका
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हुण मैं अनहद नाद पजाया.. अपने दिल का हाल सुनाया
25 जून 1975 से 25 जून 2018 तक 43 साल बाद ( विडंबना ) डॉ लोक सेतिया
चमकते बिहार को टूटा हुआ तारा बना डाला
कलात्मक चेतना और कला - १
साहित्य में उठाने गिराने का खेल
हर अदा कमसिन
तराशे हुए बाजुओं का सच
सामने दिखती ढलान
जिंदगी
आप के इंतजार में ख्वाब ...
मुझसे बातें करती जाती है
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अब आज्ञा दीजिये ...
जय हिन्द !!!
3 टिप्पणियाँ:
वीरांगना रानी दुर्गावती को नमन |सुन्दर बुलेटिन प्रस्तुति।
बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति
आप सब का बहुत बहुत आभार |
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