लवली गोस्वामी का ब्लॉग, भावों की शाब्दिक थाती है, पढ़ने की उत्कंठा बढ़ती ही जायेगी
उनकी एक लम्बी कविता, जिसे मैंने 2017 की ब्लॉगिंग डायरी से चुना है, ...
मेरे “मैं” के बारे में
मुझे थोड़ा - थोड़ा सब चाहते थे
ज़रूरत के हिसाब से कम - बेशी
सबने मुझे अपने पास रखा
जो हिस्सा लोग गैर ज़रूरी समझ कर अलगाते रहे
मेरा “मैं” वहाँ आकार लेता था
आखिर जो हिस्सा खर्चने से बाक़ी रह जाता है
वही तो हमारी बचत है
मुझ पर अभियोग लगे,
जाने वालों को रोकने के लिए
मैंने आवाज़ नहीं लगायी
मेरा मन मौन का एक भंवर है
जिसमे कई पुकारें दुःख के घूँट पीती
कलशी की तरह डूब जाती हैं
मैंने कभी किसी से नहीं कहा
कि मेरी अधूरी कविताओं की परछाइयाँ
मेरे भीतर निशा संगीत की धुन पर
दिए की कांपती लौ की मानिंद नृत्य करती हैं
रात के तीसरे पहर मेरी परछाई
दुनिया के सफ़र पर निकलती है
उन परछाइयों से मिलने
जिन्हें अपने होने के लिए
रौशनी की मेहरबानी नहीं पसंद
कुछ पुकारें हैं मेरे पास जो सिर्फ अँधेरी रातों के
घने सन्नाटे में मुझे सुनायी देती हैं
कुछ धुनें हैं जो सिर्फ तब गूंजती हैं
जब मेरे पास कोई साज़ नहीं होता
कविता की कुछ नृशंस पंक्तियाँ हैं
जो उस वक़्त मेरा मुँह चिढ़ाती हैं
जब मेरे पास उन्हें नोट करने के लिए वक़्त नहीं होता
कुछ सपने हैं जो रोज चोला बदल कर
मुझे मृत्यु की तरफ ले जाते हैं
अंत में नींद हमेशा मरने से पहले टूट जाती है
जिस समय लोग मुझे चटकीली सुबहों में ढूंढ रहे थे
मैं अवसादी शामों के हाथ धरोहर थी
क्या यह इस दुनिया की सबसे बड़ी विडम्बना नहीं है
कि रौशनी की हद अँधेरा तय करता है ?
रौशनी को जीने और बढ़ने के लिए
हर पल अँधेरे से लड़ना पड़ता है
मैं लड़ाकू नहीं हूँ , मैं जीना चाहती हूँ
अजीब बात है, सब कहते हैं
यह स्त्री तो हमेशा लड़ती ही रहती है
मैं खुद पर फेंके गए पत्थर जमा करती हूँ
कुछ को बोती हूँ, पत्थर के बगीचे पर
पत्थर की चारदीवारी बनाती हूँ
उन्हें इस आशा में सींचती हूँ
किसी दिन उन में कोपलें फूटेंगी
हंसिये मत, मैं पागल नहीं हूँ
हमारे यहाँ पत्थर औरतों और भगवान
तक में बदल जाते हैं
मैंने तो बस कुछ कोपलों की उम्मीद की है
अपने होने में मैं अपने नाम की गलत वर्तनी हूँ
मेरा अर्थ चाहे तब भी मुझ तक पहुँच नहीं सकता
उसे मुझ तक ले कर आने वाला नक़्शा ही ग़लत है
दुनिया के तमाम चलते - फिरते नाम
ऐसे ग़लत नक़्शे हैं जो अपने लक्ष्यों से
बेईमानी करने के अलावा
कुछ नहीं जानते
जवाबों ने मुझे इतना छला
कि एक दिन मैंने सवाल पूछना छोड़ दिया
मैं नहीं हो पायी इतनी कुशाग्र
कि किसी बात का सटीक जवाब दे सकूँ
इस तरह मैं न सवालों के काम की रही
न जवाबों ने मुझे पसन्द किया
अलग बात है शब्द ढूंढते ढूंढते,
मैंने इतना जान लिया कि
परिभाषाओं में अगर दुरुस्ती की गुंजाईश बची रहे
तो वे अधिक सटीक हो जाती हैं
कुछ खास गीतों से मैं अपने प्रेमियों को याद रखती हूँ
प्रेमियों के नाम से उनके शहरों को याद रखती हूँ
शहरों की बुनावट से उनके इतिहास को याद रखती हूँ
इतिहास से आदमियत के जय के पाठ को
मेरी कमज़ोर स्मृति को मात देने का
मेरे पास यही एकमात्र तरीक़ा है
भूलना सीखना बेशक जीवन का सबसे ज़रूरी कौशल है
लेकिन यह पाठ हमेशा उपयोगी हो यह ज़रूरी नहीं है
मन एक बैडरूम के फ़्लैट का वह कमरा है
जिसमें जीवन के लिए ज़रूरी सब सामान है
बस उनके पाए जाने की कोई माकूल जगह नहीं है
आप ही बताएँ वक़्त पर कोई सामान ना मिले
तो उसके होने का क्या फ़ायदा है ?
मेरे पास कुछ सवाल हैं जिन्हें कविता में पिरो कर
मैं दुनिया के ऐसे लोगों को देना चाहती हूँ,
जिनका दावा है कि वे बहुत से सवालों के जवाब जानते हैं
जैसे जब तबलची की चोट पड़ती होगी तबले पर
तब क्या पीठ सहलाती होगी मरे पशु की आत्मा ?
जिन पेड़ों को कागज हो जाने का दंड मिला
उन्हें कैसे लगते होंगे खुद पर लिखे शब्दों के अर्थ ?
वे बीज कैसे रौशनी को अच्छा मान लें ?
जिनका तेल निकाल कर दिए जलाये गए,
जबकि उन्हें धरती के गर्भ का अंधकार चाहिए था
अंकुर बनकर उगने के लिए
एक सुबह जब मैं उठी
तो मैंने पाया प्रेम और सुख की सब सांत्वनाएं
मरी गौरैयों की शक्ल में पूरी सड़क पर बिखरी पड़ीं हैं
इसमें मेरा दोष नहीं था मुझे कम नींद आती है
इसलिए मैं कभी नींद की अनदेखी न कर पायी
मेरी नींदों ने हमेशा आसन्न आँधियों की अनदेखी की
इस क़दर धीमी हूँ मैं कि रफ़्तार का कसैला धुआँ
मेरी काया के भीतर उमसाई धुंध की तरह घुमड़ता है
कुछ अवसरवादी दीमकें हैं जो मन के अँधेरे कोनों से
कालिख़ मुँह में दबाये निकलती हैं
ये शातिर दीमकें मेरी त्वचा की सतह के नीचे
अँधेरे की लहरदार टहनियाँ गुंथतीं हैं
देह की अंदरुनी दीवारों पर अवसाद की कालिख़ से बना
अँधेरे का निसंध झुरमुट आबाद है
चमत्कार यह हैं कि काजल की कोठरी में
विराजती है एक बेदाग़ धवल छाया
जो लगातार मेरी आत्मा होने का दावा करती है
कई लोग मेरे बारे में इतना सारा सच कहना चाहते थे
कि सबने आधा - आधा झूठ कहा
अक्सर ऐसे अगोरती हूँ जीवन
जैसे राह चलते कोई ज़रा देर के लिए
सामान सम्हालने की जिम्मेदारी दे गया हो
एक दिन अपने बिस्तर पर
ऐसा सोना चाहती हूँ कि मैं उसे जीवित लगूं
एक दिन शहर की सडकों पर
बिना देह घूमना चाहती हूँ.
दुःखों की उपज हूँ मैं
इसलिए उनसे कहो, मुझे नष्ट करने का ख़्वाब भुला दें
पानी में भले ही प्रकृति से उपजी हर चीज सड़ जाये
काई नही सड़ती.