अर्चना तिवारी
सुंदर अँधेरा वन है सघन, मैंने दिया स्वयं को वचन, चिरनिद्रा न आये अभी, करना है कोसों दूर गमन....
कोसों दूर चलना है
तुम्हें भी
मुझे भी
कहीं होंगी छोटी छोटी कहानियाँ
कहीं बिखरी होगी नज़्म
दूब पर बैठी होंगी कवितायेँ ओस सी
उठो
शब्द भावों का सूर्योदय देखो -
उड़न परी : लघुकथा
“ममा, मैं सलवार-कुर्ता नहीं पहनूँगी, मुझे गर्मी लगती है इसमें।” दस साल की आहना ने ठुनककर कहा।
“बेटा ज़िद्द नहीं करते, जल्दी से पहन लो, रमा आंटी के यहाँ पार्टी में चलना है। अगर हम देर से जायेंगे तो उन्हें बुरा लगेगा।” शिखा ने बेटी को प्यार से समझाया।
“नहीं, मुझे नहीं जाना पार्टी-शार्टी में, मेरी सब फ्रेंड्स फ़्राक, स्कर्ट पहनती हैं, आप मुझे सिर्फ सलवार-कुर्ता पहनने को कहती हो । वे सब पार्क में खेलती हैं, आप मुझे वहाँ भी नहीं जाने देती हो, क्यों?” आज आहना के सब्र का बाँध जैसे टूट पड़ा था।
“क्योंकि तुम सलवार-कुर्ते में इतनी प्यारी लगती हो कि पूछो मत, रमा आंटी ने भी कल मुझसे यही कहा।” बेटी को बहलाते हुए शिखा बोली।
“एकदम झूठ !” आहना ने माँ की बात को समझते हुए, अपनी नाराज़गी को छुपाते हुए कहा।
“एकदम सच्ची।” अपने गले को चुटकी से पकड़ते हुए शिखा ने कहा। फिर दोनों खिलखिला पड़ीं।
लेकिन शिखा के चेहरे से साफ़ झलक रहा था कि उसके अंदर भीषण संग्राम छिड़ा हुआ है। शादी के तीसरे साल पति की अचानक मृत्यु और फिर छः साल की आहना के साथ दूर के रिश्तेदार के उस दुर्व्यवहार ने उसे झिंझोड़ डाला था। जैसे-जैसे आहना बड़ी हो रही थी उसके मन का भय दिन-ब-दिन उसे और जकड़ता जा रहा था। वह उसे हर तरह से दुनिया की नजरों से दूर, ढक-मूँदकर रखना चाहती थी। यही सब सोचकर वह आहना के खेलने-कूदने, पहनने-ओढ़ने पर पाबंदियाँ लगाती जा रही थी। अक्सर उसके साथ काम करने वाली सहेलियाँ भी उस पर पिछड़ी, दकियानूसी होने का आरोप लगातीं, किन्तु वह सब हँसी में उड़ा देती थी। हालाँकि कभी-कभी तो उसे स्वयं लगता कि वह अपने हाथों से अपनी मासूम बच्ची का गला घोंट रही है।
अचानक शिखा की तन्द्रा टूटी। वे पार्टी में पहुँच गए थे। वहाँ बड़ी रौनक थी। खुले वातावरण में मधुर संगीत और बेला की सुगंध, मन, मस्तिष्क दोनों को ताज़गी प्रदान कर रहे थे। रमा ने आहना और शिखा का स्वागत किया। अपनी बेटी वैष्णवी से मिलवाया। आधुनिक लिबास में वैष्णवी एक परी जैसी लग रही थी। उसे देख शिखा जैसे मन्त्रमुग्ध सी हो गई। वह वैष्णवी के रूप में आहना की कल्पना करने लगी और फिर अचानक ही उस भयावह हादसे की याद से सिहर उठी।
तभी मंच पर पार्टी आरम्भ होने की घोषणा के साथ रमा और वैष्णवी से केक काटने का अनुरोध किया गया। दोनों ने मिलकर केक काटा, सारा लॉन तालियों से गूँज उठा।
रमा ने माइक पर कहा, “देवियों और सज्जनों, मैं आप सभी का अभिवादन करती हूँ। मुझे यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि मेरी बेटी वैष्णवी ने आई. पी. एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। वह अपने जीवन में इसी तरह सफल होती रहे, आप उसे आशीर्वाद प्रदान करें।”
तभी आगे बढ़कर वैष्णवी ने माँ के हाथ से माइक ले लिया और बोली, “लेकिन मैं आज जिस मुकाम पर हूँ, उस तक पहुँचाने के लिए मेरी माँ ने बहुत कष्ट सहे। बाधाओं और समाज की तमाम वर्जनाओं से मुकाबला करते हुए मेरी हर ख्वाहिश पूरी की। आज मैं आप सबको बताना चाहती हूँ कि जब मैं आठ बरस की थी तब एक ऐसे हादसे का शिकार हुई जिसे हमारा समाज किसी लड़की के जीवन को समाप्त करने के लिए पर्याप्त मानता है। लेकिन मेरी माँ ने मुझे उस अन्धकार से निकाला, कैसे, यह मैं अब भी समझने की कोशिश कर रही हूँ।....माफ करना माँ, मैंने आपकी डायरी पढ़ ली है...... ।’’ कहते हुए उसका गला रुँध गया।
पार्टी में एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया, और अगले ही क्षण तालियाँ गड़गड़ा उठीं। वैष्णवी अपनी माँ से लिपट गई। वहां मौजूद लगभग सभी की आँखें भीग गईं। और शिखा तो जैसे सुन्न ही पड़ गई। लेकिन अगले ही पल जैसे उसने कोई प्रण कर लिया था। वह आहना को गले लगाते हुए बोली, “कल हम अपनी आहना के लिए ढेर सारी फ़्राक और स्कर्ट्स लेने चलेंगे।”
“सच्ची ममा !” आहना का चेहरा गुलाब की तरह खिल उठा। वह दुपट्टे को हाथ में फैलाकर ऐसे दौड़ने लगी जैसे वह उड़ान भरने जा रही हो।
जिंदगी हर सुबह की
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह
रोज़मर्रा के काम जल्दी-जल्दी निपटाना
तैयार हो काम के लिए निकलना
ठीक स्कूटर निकालते वक़्त
एक स्कूल की वैन का घर के सामने रुकना
ड्राइवर का मुझे निकलते हुए देखना
बच्चों का खिड़की से झाँकना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।
घर से निकलते ही
कुछ दूरी पर छड़ी लिए एक बुज़ुर्ग का मिलना
चौराहे पर बस के इंतज़ार में खड़े
रोज़ाना उन्हीं चेहरों का दिखना
बगल से सर्राटा स्कूल बसों का निकलना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।
वही शहीद पथ, वही फ़्लाईओवर
वही बाईं ओर उगते सूरज का दिखना
वही रेलिंग, वही पंछियों के जोड़ों का बैठना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।
कोने वाली वही अंडे-दूध-ब्रेड की गुमटी
साईकिल पर जाते वही स्कूली बच्चे
झोपड़ी के बाहर सड़क के किनारे बैठे
कटोरे में चाय पीते फैन खाते बच्चे
पास ही कुत्तों के झुण्ड को
कूदते फाँदते देखना फिर अचानक
उनका स्कूटर के आगे आ जाना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।
वही उबड़-खाबड़ खड़न्जों का रास्ता
पानी के गड्ढों को पार कर
स्कूल पहुंचना
गुडमॉर्निंग की आवाज़ों का स्वागत करना
भागते हुए अंदर जाना
निगाह दीवार घड़ी की सात दस की सुइयों से टकराना
रजिस्टर पर पड़े वही बिना ढक्कन के पेन का होना
साइन करना और एक साँस में सीढियाँ चढ़ जाना
और स्टाफरूम में जाकर बैठ जाना
एक घूँट पानी गले से उतारना
और साँसों में स्फूर्ति का भर जाना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।
सोचती हूँ इन्हें शब्दों के डिब्बों में बंद कर लूँ
ताकि जब कभी जीवन अकेला सा लगे
हाथों से छूटता सा लगे
तो खोल कर बाहर निकाल लूँ इन खुशनुमा पलों को
फिर से अपने अंदर स्फूर्ति भरने के लिए
जीवन के बचे हुए सफ़र को तय करने के लिए
ताकि ये रहें हमेशा मेरे साथ, मेरे बाद।