खिलौनों की टोकरी मैं,
मेरा मन
...
ढेर सारे कोमल,
नुकीले शब्द
हर थोड़ी देर में उझल देता है
कमरे के बीचोंबीच
अपने आस पास
इससे खेलूँ
इसे चलाऊँ की धुन में
पूरा कमरा
अस्तव्यस्त रहता है !
कई बार हारकर
सबको समेटकर
रख देती हूँ टोकरी में
या फिर इधर से उधर
लुढ़कने देती हूँ कमरे में
रात भर नहीं सोने के उपक्रम में
उनको छूती रहती हूँ
....
ऊपर से सहज सा लगता चेहरा
मन से कितना असहज होता है !
उमड़ता है
घुमड़ता है
बरसता नहीं
एक सोंधी सी ख्वाहिश लिए
उमस से परेशान रहता है !!
...
सोच की आँधी
करीने से रखी हुई कई सोच को
गिरा देती है
तोड़ देती है
या फिर बेशक्ल बना देती है
फ़ेविक्विक से सोच नहीं जुड़ते !!!
2 टिप्पणियाँ:
बहुत सुन्दर ।
बहुत बढ़िया
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