वक़्त की भी अपनी एक साजिश होती है - प्रश्नों के कई घेरे बनाता है, उत्तरों के बुलबुले हवा में तैरते रहते हैं, कभी छू लेते हैं,कभी छूकर फूट जाते हैं तो कभी हलक में ठहर जाते हैं,कभी क्षितिज से इशारे करते हैं ......................प्रश्न है तो उत्तर है, पर प्रश्नों का चक्रव्यूह कई बार भीष्म पितामह की शक्ल में उत्तर देता है ...कभी कर्ण और द्रोणाचार्य बनकर - दुर्योधन की तो बात ही हटाओ ...
मन,समाज,परिवार,सन्नाटा .... पूछते हैं तुम कौन, खोजते हैं पहचान तो कोई कह पाता है,कोई अनमना रह जाता है .... कुछ कहे को सुनते हैं =
मैं एक कृति हूँ...... जिसका हर पन्ना
भावों की चासनी से
सराबोर होकर
चिपक गया है
कुछ इस तरह
के धुँधले पड़ गए हैं
हर हर्फ़...............
चींटियों और दीमकों ने
चांट डाली है मिठास
कुतर डाले हैं पन्ने
मिटा दिए हर्फ़..........
अब शेष हैं कुछ भुरभुरे टुकड़े
जिनमें न मिठास है
न कोई हर्फ़..................
सिर्फ कुछ कमजोर टुकड़े
जिन्हें हवा न जाने कब उड़ा ले जाये
मिटा दे इस कृति की सम्पूर्ण कहानी को
कभी भूले से भी
कोई दिल न कहे
कि.....वो एक कृति थी
बावरा मन: एक लम्हा(सुमन कपूर 'मीत')
कुछ अरसा पहले
एक लम्हा
ना जाने कहाँ से
उड़ कर आ गिरा
मेरी हथेली पे
कुछ अलग सा
स्पर्श था उसका
यूँ लगा... मानो !
जिंदगी ने आकर
थाम लिया हो हाथ जैसे
और मैंने उस हथेली पर
रख कर दूसरी हथेली
उसे सहेज कर रख लिया |
शायद ये दबी सी ख्वाहिश थी
जिंदगी जीने की.....
वक्त बदलता रहा करवटें
और मैं
उस लम्हे से होकर गुजरती रही
.
.
वहम था शायद !
मेरा उस लम्हे से होकर गुजरना ..
आज, अरसे बाद
वो लम्हा
मांगे है रिहाई मुझसे
अनचाहे ही मैंने
हटा ली हथेली अपनी
कर दिया रिहा उसको
अपने जज्बात की कैद से |
पर ..आज भी उसका स्पर्श
बावस्ता है मेरी इस हथेली पर
दौड रहा है रगों में लहू के संग
यही है जीने का सामान मेरा
यही जिंदगी के खलिश भी है ....!!
एक लम्हा.... कुछ अपना सा.... ..(सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी)
क्या यही सच था...
सच ही होगा...
बहुत कड़वा था...स्वाद में..
पर वो कहाँ है ....
जो कि गुजर गया...
तेरे-मेरे इस विवाद में....
वो लम्हा कहीं पे, बिखरा होगा,
शीशे सा टूट-टूट के..
जरा ढूंढो उसे तुम, रोता होगा,
किसी कौने में, फूट-फूट के...
तुम उसको अपनालो...
अपने गले लगा लो...
रखलो सहेजे उसको, अपनी किसी ...याद में....
देखो तकिये के नीचे...सोया तो नहीं है...
ख्वाबों के जैसे, खोया तो नहीं है.....
कोई करवट कहीं पे, उसने ली तो नहीं है..
कोई सिलवट चादर की, उसने सिली तो नहीं हैं..
उजले आँगन में देखो..
धुंधली शामों में देखो,
या छुपा होगा वो, रात की किसी.. बात में...
पर वो कहाँ है ....
जो कि गुजर गया...
तेरे-मेरे इस विवाद में....
6 टिप्पणियाँ:
बढ़िया..अच्छा लगा सभी कवितायें पढ़ कर
हर पोस्ट अलग अलग लम्हों की कशिश लिए...बहुत सुन्दर रचनायें ...:)
बहुत ही सुन्दर.
कितनी नयी प्रतिभाओं से परिचय हुआ यहाँ!!
अवलोकन का यह सफर चलता रहे ... :)
बहुत बहुत शुक्रिया रश्मि जी ....आपका कार्य सराहनीय है ...बहुत सी प्रतिभाओं को जाने का मौका मिला ...मेरी कलम को जगह देने के लिए आभार
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