(पिछले वर्ष के अवलोकन को एक अंतराल के बाद हमने पुस्तक की रूपरेखा दी ..... इस बार भी यही कोशिश होगी . जिनकी रचनाओं का मैं अवलोकन कर रही हूँ , वे यदि अपनी रचना को प्रकाशित नहीं करवाना चाहें तो स्पष्टतः लिख देंगे . एक भी प्रति आपको बिना पुस्तक का मूल्य दिए नहीं दी जाएगी - अतः इस बात को भी ध्यान में रखा जाये ताकि कोई व्यवधान बाद में ना हो )
आरम्भ है कमज़ोर सी सशक्त लेखिका का - जिसके लेखन में यदि आक्रोश है,हिकारत है तो कडवे सत्य का असह्य सह्नेवाला दर्द भी है . आराधना चतुर्वेदी (मुक्ति)... उतार-चढ़ाव ना हो तो ज़िन्दगी के हुबहू सांचे नहीं बनते . मन का कई कोना कटता है,मरता है - फिर भी अपना अस्तित्व संभाले हुए परिवर्तन के सूरज की राह देखते पूरब दिशा में नज़रें टिकाये रखता है . सूरज !!! वह तो मन के पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण ....हर दिशा से अपने सात घोड़ों के रथ पर निकलता है और आग उगलता है - कुछ इस तरह ,
शीर्षक पढ़कर ही अजीब सा एहसास होता है ना? कैसे गंदे-गंदे ख़याल आ जाते हैं मन में. ”एक तो औरत, ऊपर से अकेली. कहाँ है, कैसी है, मिल जाती तो हम भी एक चांस आजमा लेते.” … ऐसा ही होता है. अकेली औरत के साथ सबसे बड़ी समस्या ये होती है कि उसे सब सार्वजनिक संपत्ति समझ लेते हैं. बिना जाने कि वह किन परिस्थितियों में अकेले रहने को मजबूर है, लोग ये समझ लेते हैं कि वो अत्यधिक स्वच्छंद प्रवृत्ति की है और इसीलिये किसी एक के साथ बंधकर नहीं रह सकती. जो लोग थोड़े भले होते हैं वो शादी ना करने के नुकसान बताकर शादी करने की सलाह देने लगते हैं. जैसे वो औरत इतनी बेवकूफ है कि उसे शादी के फायदे-नुकसान के बारे में पता ही नहीं है.
दो-तीन दिन पहले मैंने एक ब्लॉग पर टिप्पणी में ये बात कही थी और फिर यहाँ दोहरा रही हूँ कि अकेले रहना ना पूरी तरह मेरी मजबूरी है और ना ही मेरी इच्छा. बेशक मैंने बचपन से ही और लड़कियों की तरह कभी दुल्हन बनने के सपने नहीं संजोये. मैंने हमेशा ये सोचा कि मुझे कुछ अलग करना है. और ससुराल का इतना डर बिठा दिया जाता है हमारे यहाँ कि मुझे लगता था मैं जो कुछ भी करना चाहती हूँ, वो ससुराल वाले नहीं करने देंगे. इसलिए मैंने सोच लिया था कि कभी शादी नहीं करूँगी. बचपन में माँ के देहांत के बाद तो मेरा ये इरादा और पक्का हो गया था. लेकिन मैंने अकेले रहने के बारे में कभी नहीं सोचा था. मैं चाहती थी कि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊँ और पिताजी के साथ रहूँ. हालांकि पिताजी मुझे आत्मनिर्भर देखना चाहते थे और हमेशा कहते थे कि मेरी चिंता मत करो, बस आगे बढ़ती रहो.
ऐसा नहीं है कि मैंने कभी प्यार के बारे में नहीं सोचा. और लड़कियों की तरह मैंने भी प्यार किया और हर एक उस पल को पूरी शिद्दत के साथ जिया, ये सोचकर कि पता नहीं आने वाला कल कैसा हो? लेकिन फिर भी शादी मेरे एजेंडे में नहीं थी. मुझे हर समय पिताजी की चिंता लगी रहती थी. वे घर पर अकेले रहते थे और मैं इलाहाबाद हॉस्टल में. मैं जल्द से जल्द कोई नौकरी पाकर उन्हें अपने पास बुला लेना चाहती थी. लेकिन, 2006 में पिताजी के देहांत के बाद मेरा ये सपना टूट गया. अकेले रहना मेरी मजबूरी हो गई. मैं दिल्ली आ चुकी थी और महानगरीय जीवन को काफी कुछ समझ चुकी थी. ये जानते हुए कि इलाहाबाद जैसे शहर में किसी लड़की का अकेले रहना आज भी दूभर है, मैंने दिल्ली में रहने का फैसला कर लिया.
यहाँ कम से कम आपको हर वक्त लोगों की प्रश्नवाचक दृष्टि का सामना नहीं करना पड़ता. हर तीसरा आदमी आपसे ये जानने की कोशिश नहीं करता कि आपने शादी की या नहीं, नहीं तो क्यों नहीं. कुल मिलाकर ना किसी के पास इतनी फुर्सत है और ना गरज कि वो आपके व्यक्तिगत जीवन में ताँक-झाँक करे. हाँ, कुछ महिलाओं ने ये जानने की कोशिश ज़रूर की कि मेरी ‘मैरिटल स्टेटस’ क्या है? पर मैंने किसी को कोई सफाई नहीं दी. बस मुस्कुराकर इतना कहा कि इससे क्या फर्क पड़ता है? और आगे किसी ने कुछ नहीं पूछा.
जब आप अकेले होते हैं और आपके ऊपर कोई बंधन नहीं होता, तो खुद ही कुछ बंधन लगाने पड़ते हैं. कुछ सीमाएं खींचनी पड़ती हैं, कुछ नियम बनाने पड़ते हैं. सभी को चाहे आदमी हो या औरत. बस ये खुद पर निर्भर करता है कि कहाँ और कितनी लंबी रेखा खींचनी है. और ये बात सबको मालूम होती है अपने बारे में, कोई दूसरा ये तय नहीं कर सकता. ऐसा इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि हर एक बात की एक सीमा होती है. अगर आप खुद से ये तय नहीं करते तो दूसरे तय करने लग जाते हैं और फिर आपके हाथ में कुछ नहीं रहता.
मैंने भी अपनी कुछ सीमाएं तय कर रखी हैं. अब चूँकि मैं अकेली हूँ और बीमार पड़ने पर कोई देखभाल करने वाला नहीं है, तो भरसक खाने-पीने का ध्यान रखती हूँ. व्यायाम करने की भी कोशिश करती हूँ. बाहर का खाना नहीं खाती, जिससे संक्रामक रोगों से बची रहूँ. मैं बहुत कम लोगों को अपना फोन नंबर देती हूँ, यहाँ तक कि अपने बेहद करीबी रिश्तेदारों को भी नहीं. मेरा पता भी बहुत कम लोगों को मालूम है और बेहद करीबी दोस्तों के अलावा किसी को भी मैं अपने कमरे पर मिलने को नहीं बुलाती. चूँकि मुझे अपनी सुरक्षा के साथ, स्वतंत्रता का भी ध्यान रखना पड़ता है, इसलिए ये और भी ज़रूरी हो जाता है कि मैं फोन नंबर, पता ई-मेल आदि गिने-चुने लोगों को दूँ.
मेरा बहुत मन करता है रात में सड़कों पर टहलने का, पर मैंने कभी अपनी ये इच्छा पूरी करने की हिम्मत नहीं की. मैं जब भी अकेली बाहर जाती हूँ तो कोशिश करती हूँ कि आठ-साढ़े आठ बजे तक घर पहुँच जाऊँ. नौ बजे के बाद मोहल्ले से बाहर नहीं जाती. हमेशा ये याद रखती हूँ कि ये दिल्ली है, औरतों के लिए सबसे अधिक असुरक्षित महानगर. हाँ, अपने मोहल्ले में ग्यारह बजे तक टहल सकती हूँ क्योंकि यहाँ ज्यादातर स्टूडेंट्स रहते हैं जिनके कारण बारह-एक बजे तक चहल-पहल रहती है.
अब मैं अपनी सबसे पहली बात पर आती हूँ. अकेली औरत को प्रायः लोग सहज प्राप्य वस्तु समझ लेते हैं. अगर वो थोड़ी निडर और बोल्ड हो तो और मुसीबत. मेरे साथ दिक्कत ये है कि मैं अमूमन तो किसी से बात करती नहीं, लेकिन जब दोस्ती हो जाती है, तो एकदम से खुल जाती हूँ. मुझे जो अच्छा लगता है बेहिचक कह देती हूँ. अगर किसी पर प्यार आ गया है, तो ‘लव यू डियर’ कहने में कोई संकोच नहीं होता. मैं बहुत भावुक हूँ और उदार भी. मेरे दोस्त कई बार मुझे इस बात के लिए टोक चुके हैं कि किसी पर सिर्फ़ इसलिए प्यार मत लुटाने लग जाओ कि उसे इस प्यार की ज़रूरत है. ऐसे तो तुम प्यार बाँटते-बाँटते थक जाओगी. लेकिन चूँकि मैं बहुत कम लोगों से घुलती-मिलती हूँ, इसलिए आज तक मुझे लेकर किसी को कोई गलतफहमी नहीं हुयी.
लेकिन पिछले कुछ दिनों से ये सोच रही हूँ कि अपनी बोल्डनेस थोड़ा कम करूँ? क्या फायदा किसी को निःस्वार्थ भाव से ‘लव यू’ कह देने का या ‘लोड्स ऑफ हग्स एंड किसेज़’ दे देने का जब सामने वाला उसे लेकर भ्रमित हो जाय. मेरे ख्याल से हमारे समाज में लोग (विशेषकर पुरुष) अभी इतने परिपक्व नहीं हुए हैं कि इस तरह के प्यार को समझ पायें. उन्हें लगता है कि स्त्री-पुरुष के बीच सहज स्नेह सम्बन्ध जैसा कुछ नहीं होता. अगर होता है तो बस आदिम अवस्था वाला विपरीतलिंगी प्रेम होता है. जबकि मैं ऐसा मानती हूँ कि ऐसा प्रेम एक समय में एक ही के साथ संभव है, चाहे वो पति हो, पत्नी हो या प्रेमी. पर जब तक कि हमारा समाज इतना परिपक्व नहीं हो जाता कि सहज स्नेह को समझ सके, मेरा और सम्बन्ध बनाना स्थगित रहेगा.
अकेले रहने का इतना तो खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा.
सच है, स्वस्थ दृष्टिकोण ही नहीं रखता यह तथाकथित समाज, बुद्धिजीवियों की पोशाक में कुछ और कहता है और अपने नग्न लिबास में .... सोच से परे कुछ भी,कहीं भी,किसी से,किसी के लिए कहने लगता है . अकेला होना अभिशाप नहीं, पर यह तथाकथित समाज अभिशाप बना देता है . अन्याय के विरोध में जो उठता है , कोई उसका सर नहीं सहलाता .... अपने अपने घर में दुबककर अपनी कुत्सित मंशाओं की कहानियाँ बनाते हैं !
घर, बाहर, हवाओं में घुटी चीखें,आँखों में उमड़ती झील,डूबता मन ......... अपने वजूद की तलाश में जाने कितनी कलम में उतर गया . कलम सिसकी ज़रूर, पर शब्द तलवार की पैनी धार बने !!!
दिव्या शुक्ला की सोच,उनकी कलम की धार समाज की कई छवियों की आवाज़ बनती है - कुछ यूँ ,
सुनो ! रुकोगी नहीं ?
नहीं नहीं कैसे ? अब नहीं
अब तो दहलीज़ पार कर ली
तुम्हारी बनाई लक्ष्मण रेखा भी
फिर मेरी जरूरत क्यूँ ------
बहुत कोशिश की तो थी मैने
पर हुआ क्या --क्या मिला
सिर्फ यही न तुम्हे तो अक्ल ही नहीं
गंवार हो न ---सड़क तक क्रोस नहीं पाती
बिना मेरा हाथ पकडे ----अब क्या कहती
कर सकती हूँ मै ---तुम समझते नहीं
मुझे तुम्हारा हाथ पकड़ना होता है न
बाइक पर पीछे बैठ बारिश में भीगना
उफ़ कितना अच्छा लगता है मुझे
क्या कभी जान पाये तुम --नहीं ना
तुम तो सिर्फ और सिर्फ झगड़ना जानते थे
याद है तुम्हे कितना डांटा था मुझे
कितनी छोटी सी बात थी
गाडी मोड़ते हुए तुमने कहा
हाथ दो --और मै कुछ देर सोचती रही
फिर झट तुम्हे दे कर कहा लो
कितना गुस्सा किया तुमने
अब इतनी भी अक्ल नहीं तुझे
खूब रोई मै --मुझे ट्रेफिक रूल कहाँ मालुम
एक निशान और पड़ा दिल पर
ऐसे न जाने कितने घाव होते रहे
अच्छी लड़कियां इतना हंसती नहीं
तुम हमेशा कहते --और मै चुप हो जाती
धीरे धीरे भूल गई खिलखिला के हँसना
परन्तु आजकल जो तुम्हे देख रही हूँ न --
तुम वो नहीं जो मेरे साथ होते हो
कोई गैर सा पुरुष ----कित्ता गुस्सा आया मुझे
नहीं जलन नहीं ---सिर्फ क्रोध वो भी खुद पर
ठीक कहा तुमने तुम पुरुष हो -----
--यह तो जायज़ है तुम्हारे लिए ---
सजावटी सामान ही तो थी मै
अच्छे शो रूम से लाई हई ब्रांडेड वस्तु
सोसाईटी में बगल खड़े होने के लिए
तुम्हारे वंश को बढाने के लिए
बिस्तर की सिलवटें बनाने फिर उन्हें मिटाने के लिए
लाइसेंस ले कर लाई हुई औरत ---
----ये सब करते करते भूल गई थी खुद को
नहीं अब नहीं ---सुनो ! तुमसे सिर्फ
एक सवाल का जवाब चाहिए दोगे
क्या तुमने जो किया --वह मै करती
तब भी तुम यही कहते मुझसे
रुकोगी नहीं ---नहीं ना --
फिर मै कैसे रुक सकती हूँ ----
सच सुन सकोगे --सुनो
बहुत कोशिश की पर तुम्हारे लिए
अब कुछ नहीं बचा मेरे पास
न --मन में --न ही जीवन में
कहते हैं न --प्रेम का धागा न तोड़ो
जोड़े से फिर न जुडे --जुड़े गाँठ पड़ जाए
कभी कभी तो मेरा दिल भी करता है
थोडा जी लूँ कुछ पल ही को सही
खोल दूँ मन के दरवाजे जिन पर जंग लग गई है .............................. ............
.............................. .............................. .............................. ................... जीना कौन नहीं चाहता, पर भय की प्रबलता जीने के मार्ग अवरुद्ध करती है और जो भय को जीतना चाहता है उसे परिवार ही अभिमन्यु बना देता है .चक्रव्यूह अपने बनाते हैं - उसके बाद तो दुश्मन बैठा ही होता है घात लगाये !
24 टिप्पणियाँ:
shaandar /sarthak koshish!
अब कुछ नहीं बचा मेरे पास
न --मन में --न ही जीवन में
दोनो रचनाकारों से मिलकर अच्छा लगा।
स्त्री की भावनाओं को खूबसूरती से उकेरा है।
अवलोकन 2012 की प्रथम कड़ी और रचनाकार दोनों का बहुत-बहुत स्वागत है ... आपके लिये अनंत शुभकामनाएं
सादर
Aaradhna was n will always remain one of my favorite bloggers...
दोनों बहुत ही अच्छे ब्लॉग , कुछ कहने की कोशिश जिसे हम सब देख कर भी अनदेखा कर देते हैं |
जिस मुद्दे पर बात करके कोई खुद को किसी बहस में नहीं घसीटना चाहता ठीक उसी मुद्दे पर चोट , कि शायद अब तो एक सार्थक बहस की शुरुआत हो |
शायद यही है सार्थक ब्लोगिंग |
.
एक और खास बात जो मैंने गौर की , कि जहाँ आराधना जी ने अपने लेख की शुरुआत सबसे ज्यादा सशक्त रखी है वहीँ दिव्या जी ने उसका अंत |
सादर
Aradhana ke kalam ki takat dikhti hai.. shubhkamnayen:)
आराधना का ब्लॉग नियमित पढ़ती हूँ ... दिव्य शुक्ल जी से मिलवाने का बहुत बहुत शुक्रिया .... उत्तम चयन
अवलोकन २०१२ का शानदार आगाज किया है आपने ... मेरी और पूरी बुलेटिन टीम की ओर से आभार और आगे के सफर के लिए हार्दिक मंगलकामनाएँ !
बहुत प्यारे ब्लॉग है दोनों ..
आभार दी....
सादर
अनु
एक बहुत ही खूबसूरत आगाज़ ......उठाई औरत की आवाज़ .....!
जब आप अकेले होते हैं और आपके ऊपर कोई बंधन नहीं होता, तो खुद ही कुछ बंधन लगाने पड़ते हैं. कुछ सीमाएं खींचनी पड़ती हैं, कुछ नियम बनाने पड़ते हैं. सभी को चाहे आदमी हो या औरत. बस ये खुद पर निर्भर करता है कि कहाँ और कितनी लंबी रेखा खींचनी है. और ये बात सबको मालूम होती है अपने बारे में, कोई दूसरा ये तय नहीं कर सकता. ऐसा इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि हर एक बात की एक सीमा होती है. अगर आप खुद से ये तय नहीं करते तो दूसरे तय करने लग जाते हैं और फिर आपके हाथ में कुछ नहीं रहता.आज आपको ....... आप अदभुत लिखती हैं .... नमन आपको
दिव्या जी को कई बार पदा हैं बहुत खूब लिखती हैं दिव्या जी ....... रश्मि जी आपकी परखी नज़र से हमें कई अच्छे ब्लॉगर मित्रो को जानने का मौका मिलेगा शुक्रिया
आपके चयन एवं प्रस्तुति पर .....
काश ! आप देख पाती फटे नैन खुले मुख ............. !!
सशक्त और बेबाक लेखन...परिचय के लिए आभार !!
आराधना जी, दिव्या जी और आपको शुभकामनाएँ !!
आराधना का ब्लॉग नियमित पढ़ती हूँ ... दिव्य शुक्ल जी से मिलवाने का बहुत बहुत शुक्रिया .
नारी की अंतर्मन की व्यथा को हुबहू प्रस्तुत किया ! बहुत सुन्दर!
nari jeevan ki vyatha katha ka sajeev chitran
bhawna main baha leejaney wali koshis
दोनों को पढ़ते रह्ते हैं...अच्छा लगा यहाँ देख!
रश्मि जी .. हमें कई अच्छे ब्लॉगर मित्रो को जानने का मौका मिलेगा ...
सहज प्रेम को समझने में समाज की भूमिका पर मैं आराधना से सहमत हूँ .
दिव्याजी को पढना भी अच्छा लगा !
आभार !
प्रिय ब्लॉगर मित्र,
हमें आपको यह बताते हुए प्रसन्नता हो रही है साथ ही संकोच भी – विशेषकर उन ब्लॉगर्स को यह बताने में जिनके ब्लॉग इतने उच्च स्तर के हैं कि उन्हें किसी भी सूची में सम्मिलित करने से उस सूची का सम्मान बढ़ता है न कि उस ब्लॉग का – कि ITB की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉगों की डाइरैक्टरी अब प्रकाशित हो चुकी है और आपका ब्लॉग उसमें सम्मिलित है।
शुभकामनाओं सहित,
ITB टीम
पुनश्च:
1. हम कुछेक लोकप्रिय ब्लॉग्स को डाइरैक्टरी में शामिल नहीं कर पाए क्योंकि उनके कंटैंट तथा/या डिज़ाइन फूहड़ / निम्न-स्तरीय / खिजाने वाले हैं। दो-एक ब्लॉगर्स ने अपने एक ब्लॉग की सामग्री दूसरे ब्लॉग्स में डुप्लिकेट करने में डिज़ाइन की ऐसी तैसी कर रखी है। कुछ ब्लॉगर्स अपने मुँह मिया मिट्ठू बनते रहते हैं, लेकिन इस संकलन में हमने उनके ब्लॉग्स ले रखे हैं बशर्ते उनमें स्तरीय कंटैंट हो। डाइरैक्टरी में शामिल किए / नहीं किए गए ब्लॉग्स के बारे में आपके विचारों का इंतज़ार रहेगा।
2. ITB के लोग ब्लॉग्स पर बहुत कम कमेंट कर पाते हैं और कमेंट तभी करते हैं जब विषय-वस्तु के प्रसंग में कुछ कहना होता है। यह कमेंट हमने यहाँ इसलिए किया क्योंकि हमें आपका ईमेल ब्लॉग में नहीं मिला।
[यह भी हो सकता है कि हम ठीक से ईमेल ढूंढ नहीं पाए।] बिना प्रसंग के इस कमेंट के लिए क्षमा कीजिएगा।
आप से पूरी तरह सहमत हूँ !
आराधनाजी को पढ़ना सदा अच्छा लगता है, मन से बतियाती हैं वे।
बहुत सुन्दर मन भावन प्रस्तुतीकरण ।
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