प्रतिभाओं की कमी न कभी थी न है न होगी ..... थकान होगी,व्यवधान अपने अपने होंगे .... पर सूरज का रथ हर दिन प्रखरता के साथ हमारे मध्य होगा . उस प्रखर प्रकाश से प्रखर किरणें मुट्ठी में भरकर आपको दे रही हूँ ..................................... आपकी रूचि का ख्याल रखते हुए . (और यहीं विराम यानी समापन की घोषणा करती हूँ . )
बुरा भला: क्या सच मे किसी को फर्क पड़ता है !!??(शिवम् मिश्रा)
"कल तक सबको 'उस' के दर्द का अहसास था ;
आज सब को अपनी अपनी जीत का अभिमान है !!
कल जहां रेप पीड़ितों की सूची थी ...
उन्ही मेजों पर आज नए विधायकों की सूची तैयार है !!
किसी चैनल , किसी सभा मे 'उसके' बारे मे कोई सवाल नहीं है ;
बहुतों के तन पर नई नई खादी सजी है
तभी तो सफदरजंग के आगे पटाखों की लड़ी जली है ...
बेगैरत शोर को अब किसी का ख्याल नहीं है !!
जो लोग रोज़ लोकतन्त्र को नंगा करते हो ...
उनको एक महिला की इज्ज़त जाने का अब मलाल नहीं है !
'तुम' जियो या मारो ...
किस को फर्क पड़ता है ...
आओ देख लो अब यहाँ कोई शर्मसार नहीं है !!
दरअसल 'तुम्हारी' ही स्कर्ट ऊंची थी ...
'इस' मे 'इनका' कोई दोष नहीं ...
"जवान लड़की को सड़क पर छोड़ा ...
क्या घरवालों को होश नहीं"
"लड़का तो 'वो' भोला था ...
यह सब चाउमीन की गलती है ...
वैसे एक बात बताओ लड़की घर से क्यों निकलती है ??"
चलो जो हुआ सो हुआ उसको भूलो ...
भत्ते ... नौकरी सब तैयार है ...
बस 'तुम' मुंह मत खोलो ...
तुम्हारी चीख से मुश्किल मे पड़ती सरकार है ...
अगली जीत - हार के लिए इनको तुम्हारी दरकार है ...
गुजरात - हिमाचल से निबट लिए ...
अब दिल्ली की बारी है ...
चुनावी वादा ही सही पर यकीन जानना ...
दोषियों को छोड़ा न जाएगा यह मानना ...
हम सब तुम्हारे साथ है डरना मत ...
पर बिटिया अंधेरे के बाद घर से निकलना मत ...
अंधेरा होते ही सब समीकरण बदल जाते है ...
न जाने कैसे ...
हमारे यह रक्षक ही सब से बड़े भक्षक बन जाते है ...
कभी कभी लगता है यह वो मानवता के वो दल्ले है ...
जिन्होने हर चलती बस - कार मे ...
खुद अपनी माँ , बहन , बीवी और बेटी ...
नीलाम कर रखी है !!
चला बिहारी ब्लॉगर बनने: (कु)सभ्यता(सलिल वर्मा)
तुम मुझे दो एक अच्छी माँ, तुम्हें मैं एक अच्छा राष्ट्र दूँगा.
बात तो जिसने कही थी सच कही थी
पर भला वो भूल कैसे ये गया कि
पूत कितने ही सुने हैं कपूत लेकिन
माँ कुमाता हो, नहीं इतिहास कहता.
माँ कहा करते थे नदियों को,
और उनको पूजते थे
तब कहीं जाकर जने थे सभ्यता के पूत ऐसे
आज भी है साक्षी इतिहास जिनका.
पुस्तकों में था पढा हमने कि
दुनिया की पुरानी सभ्यताएँ
थीं फली फूली बढीं नदियों के तट पर.
याद कर लें हम
वो चाहे नील की हो सभ्यता या सिंधु घाटी की
गवाह उनके अभी भी हैं चुनौती आज की तकनीक को
चाहे पिरमिड मिस्र के हों
या हड़प्पा की वो गलियाँ, नालियाँ, हम्माम सारे.
माँ तो हम सब आज भी कहते हैं नदियों को
बड़े ही गर्व से जय बोलते हैं गंगा मईया की,
औ’ श्रद्धा से झुकाते सिर हैं अपना
जब गुज़रते हैं कभी जमुना के पुल से.
वक़्त किसके पास होता है मगर
कुछ पल ठहरकर झाँक ले जमुना के पानी में
था जिसको देखकर बिटिया ने मेरी पूछा मुझसे,
“डैड! ये इतना बड़ा नाला यहाँ पर कैसे आया?
कितना गंदा है चलो जल्दी यहाँ से!”
कैसे मैं उसको ये बतलाऊँ कि इस नाले का पानी,
हम रखा करते थे पूजा में
छिडककर सिर पे, धोते पाप अपने,
काँप उट्ठा दिल उसी दिन
दुर्दशा को देखकर गंगा की, जमुना की.
आज की इस नस्ल को क्या ये नहीं मालूम,
नदियाँ हों जहाँ नाले से बदतर,
जन्म लेती है निठारी सभ्यता,
जिसमें हैं कत्ले-आम और आतंक के साये.
उजडती आबरू, नरभक्षियों का राज!
मित्रों,
आपको मालूम हो उस शख्स का कोई पता
तो इस नगर का भी पता उसको बताना,
और कहना
आके बस इक बार ये ऐलान कर दे,
तुम मुझे दो एक अच्छी माँ
तुम्हें मैं एक अच्छा राष्ट्र दूंगा!
anubuthi: माफ करिए आज भाषा पर नियंत्रण नहीं रहा ....(पूनम जैन कासलीवाल)
या खुदा !
आज अपने मादा होने पे ,
जी दुखता है।
हे प्रभु !
आज बेटी जनने से ,
मन सुलगता है ।
क्यूँ नहीं बनाया ,
मच्छर -मक्खी या अदना सा कीड़ा ।
बर्बरता का देख तमाशा ,
अपने पैदा होने पे ह्रदय कलपता है ।
कब तक यूँ ही रहूँ मुँह छिपा ,
और अधिक ढकूँ अपने को ,
जनांगों पर लगा ताला ,
घिस डालूँ ये उभार ?
कर नारेबाजी दिलवा दूँ कोई सज़ा ?
पर क्या यह अश्लीलता यहीं रुक जाएगी ?
मिली सज़ा जो किसी एक को तो ,
क्या यह ,बर्बरता रुक पाएगी ?
जिस चौराहे फेंका मुझे ,
वहीं दिया जाए उल्टा टांग ,
हर आने -जाने वाला करे ,
लोहे के सरिये से तुम्हारे ,
मर्दाना अंगों पे वार पे वार ,
बूंद- बूंद , रिस - रिस मारो तुम ,
तभी होगा समाज का पूर्नउद्धार....
मेरी रूह ...आत्मा.... अस्मिता ..का व्यक्तिकरण....पुनर्जन्म...
क्योंकि........ हूँ बलात्कारियों के साथ तब तक - ज़ख्म…(वंदना गुप्ता)
हम थोथे चने हैं
सिर्फ शोर मचाना जानते हैं
एक घटना का घटित होना
और हमारी कलमों का उठना
दो शब्द कहकर इतिश्री कर लेना
भला इससे ज्यादा कुछ करते हैं कभी
संवेदनहीन हैं हम
मौके का फायदा उठाते हम
सिर्फ बहती गंगा में हाथ धोना जानते हैं
नहीं निकलते हम अपने घरों से
नहीं करते कोई आह्वान
नहीं देते साथ आंदोलनों में
क्योंकि नहीं हुआ घटित कुछ ऐसा हमारे साथ
तो कैसी संवेदनाएं
और कैसा ढोंग
छोड़ना होगा अब हमें .......आइनों पर पर्दा डाल कर देखना
शुरू करना होगा खुद से ही
एक नया आन्दोलन
हकीकत से नज़र मिलाने का
खुद को उस धरातल पर रखने का
और खुद से ही लड़ने का
शायद तब हम उस अंतहीन पीड़ा
के करीब से गुजरें
और समझ सकें
कि दो शब्द कह देने भर से
कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं होती
क्योंकि .........आज जरूरी है
बाहरी आन्दोलनों से पहले
आतंरिक दुविधाओं के पटाक्षेप का
केवल एक हाथ तक नहीं
अपने दोनों हाथों को आगे बढाने का
जिस दिन हम बदल देंगे अपने मापदंड
उस दिन स्वयं हो जायेंगे आन्दोलन
बदल जायेगी तस्वीर
मगर तब तक
कायरों , नपुंसकों की तरह
सिर्फ कह देने भर से
नहीं हो जाती इतिश्री हमारे कर्तव्यों की
और मैं ..........अभी कायर हूँ
क्योंकि........ हूँ बलात्कारियों के साथ तब तक
जब तक नहीं मिला पाती खुद से नज़र
नहीं कर पाती खुद से बगावत
नहीं चल पाती एक आन्दोलन का सक्रिय पाँव बनकर
इसलिए
शामिल हूँ अभी उसी बिरादरी में
अपनी जद्दोजहद के साथ ................
वो मर्द है!
मर्ज़ी का मालिक है!
उसका मन किया!
उसने किया!
ज़रूरी है!
ये साबित करता है!
औरत जागीर है उसकी!
और उसका जिस्म मिल्कियत है!
नोच कर खाने का!
उसका मन किया!
उसने किया!
क्यूँ?!
क्यूँकि वो मर्द है!
मर्ज़ी का मालिक है!
औरत त्रियाचरित्र है!
पतिता है!
ज़रूर उकसाया होगा!
कुछ इशारा किया होगा!
हँसी होगी, निर्लज्ज!
ऐसे में वो क्या करता?!
उसका मन किया!
उसने किया!
आखिर वो मर्द है!
मर्ज़ी का मालिक है!
वो दुनिया पे राज करता है!
औरत? बांदी है उसकी!
अपनी सत्ता की मोहर लगाने के लिए!
उसे उसकी जगह दिखाने के लिए!
अपनी मर्दानगी निभाने के लिए!
उसका मन किया!
उसने किया!
अरे! वो मर्द है!
मर्ज़ी का मालिक है!
क्या? औरत की मर्ज़ी नहीं थी?!
वो ज़रूरी नहीं थी!
कहा ना! औरत जागीर है उसकी!
अपना बल दिखाने का!
उस पर हल चलाने का!
उसका मन किया!
उसने किया!
जानते हो न! वो मर्द है!
मर्ज़ी का मालिक है!
बेचैन आत्मा: शुक्र है...(देवेन्द्र पाण्डेय)
नज़र अंदाज़ कर देते हैं हम
छेड़छाड़
दहलते हैं दरिंदगी पर
शुक्र है...
अभी हमें गुस्सा भी आता है!
देख लेते हैं
आइटम साँग
बच्चों के साथ बैठकर
नहीं देख पाते
ब्लू फिल्म
शुक्र है...
अभी हमें शर्म भी आती है!
करते हैं भ्रूण हत्या
बेटे की चाहत में
अच्छी लगती है
दहेज की रकम
बहू को
मानते हैं लक्ष्मी
बेटियों का करते हैं
कंगाल होकर भी दान
शुक्र है....
चिंतित भी होते हैं
लिंग के बिगड़ते अनुपात पर!
गंगा को
मानते हैं माँ
प्यार भी करते हैं
चिंतित रहते हैं हरदम
नाले में बदलते देखकर
शुक्र है...
मूतते वक्त
घुमा लेते हैं पीठ
नहीं दिखा पाते अपना चेहरा!
यूँ तो
संसद में करते ही रहते हैं
अपने हित की राजनीति
लेकिन शुक्र है...
दुःख से दहल जाता है जब
समूचा राष्ट्र
एक स्वर से करते हैं
घटना की निंदा!
शुक्र है...
अभी खौलता है हमारा खून
किसी की पशुता पर
चसकती है
किसी की चीख
अभी खत्म नहीं हुई
इंसानियत पूरी तरह
मानते ही नहीं अपराध
तय नहीं कर पाते अपनी सजा
शुक्र है...
जानते हैं अधिकार
मांगते हैं
बलात्कारी के लिए
फाँसी!
छोड़ नहीं पाये
दोगलई
लेकिन शुक्र है...
अभी नहीं हुये हम
पूरी तरह से
राक्षस।
................
वीथी: इनकार है(सुशीला श्योरण)
सदियों से रिसी है
अंतस में ये पीड़
स्त्री संपत्ति
पुरूष पति
हारा जुए में
हरा सभा में चीर
कभी अग्निपरीक्षा
कभी वनवास
कभी कर दिया सती
कभी घोटी भ्रूण में साँस
क्यों स्वीकारा
संपत्ति, जिन्स होना
उपभोग तो वांछित था
कह दे
लानत है
इस घृणित सोच पर
इनकार है
मुझे संपत्ति होना
तलाश अपना आसमां
खोज अपना अस्तित्व
अब पद्मिनी नहीं
लक्ष्मी बनना होगा
जौहर में स्वदाह नहीं
खड्ग ले जीना होगा
12 टिप्पणियाँ:
बढिया लिंक्स
अच्छा बुलेटिंन
चिंतन देते अच्छे लिंक्स ......!!
behtareen...
hamesha kee tarah gems chun ke laayee hain rashmi ji
बेचैनियाँ समेट कर सारे जहान की
आज आपने यह बुलेटिन बना दिया!
आखिरी वाली बात समझ में नहीं आई
खता बताया नहीं, सजा भी सुना दिया!
बुरा भला क्या सच में किसी को फर्क पड़ता है-----शिवम मिश्रा
आज के सन्दर्भ की जीवंत कविता जो मन को आंदोलित करती है-----
वंदना गुप्ता की कविता में एक आक्रोश है----सलिल वर्मा,सुशीला श्योरण की भी कविता
आपनी बात कह रही हैं-----आक्रोश से रची कविताओं का सार्थक संग्रह
मन को हमेशा विचलित करेगी ये सारी ब्लॉग लिंक्स...:-(
मन आहत हुआ है तो ईमानदारी से सभी ने एक स्वर में अपनी बात रखी है!! और आपने इसे जिस प्रकार संजोया है वह सचमुच प्रशंसनीय है!!
सभी रचनाएँ प्रासंगिक, मर्म कॊ छूती !
इस बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई और मेरी पीड़ा साझा करने के लिए आभार।
बेहतरीन लिंक संयोजन …………सच प्रति्भाओं की कमी नहीं।
बाकी इतना ही कह सकती हूँ आज की स्थिति पर
आँख में आँसू नहीं
उफ़नता लावा
उद्वेलित मन
और शब्दहीन हो जाना
बेबसी भी इस बेबसी पर शर्मसार है
दर्द अपना साथी खोज ही लेता है ... ऐसा कहीं सुना था !
आभार... पिछले दो दिनो से रोज़ स्टाफ रूम मे यही बात हो रही है । हमारे यहाँ पोलैंड,यूक्रेन , कनाडा , पुर्तगाल और भारत सभी देशों के अध्यापक गण है । विश्व स्तर पर महिलाओ के प्रति बढ़ती इस प्रकार कि घटनाओं से सभी चिंतित और व्यथित ।
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बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!