हम हमेशा शिवरानी - वे हमेशा प्रेमचंद
हे भगवान! आज मैं बहुत खुश हूँ कि मैं महुआ माजी की तरह खूबसूरत नही। हिन्दी जगत में खूबसूरत लेखिका होना मतलब- उसके चरित्र की धज्जियों का उड़ जाना है। हिन्दी जगत में स्त्री का होना ही फांसी पर चढ़ा जानेवाला अपराध है। खूबसूरत लेखिका होना भयंकरतम अपराध है। इसकी सज़ा उसके चरित्र की खील -बखिया उधेड़ कर दी जा सकती है। ऐ औरत! एक तो तू हव्वा!। सारे फसादात की जड़! दूसरा फसाद- कि तू सुंदर भी है। यह ऊपरवाला भी- बहुत हरामी है। उसकी कमीनगी देखिये कि वह इस दो टके की औरत को दिमाग नाम की चीज़ भी दे देता है। अब भला कहिए तो! रूप दे दिया तो दे दिया। उससे हमारा मन सकूँ पाता है। आँखों को ठंढक पहुँचती है। दिल को राहत मिलती है। अगर वह पट गई तो देह की पोर-पोर खिल जाती है। नहीं भी पाती तो उसे गाली देकर, बदनाम करके हमारी जीभ और रूह सकून पाती है। ए कम अक्लों ! कितने खुश हैं हम यह स्थापित करते हुए कि ऐसों-ऐसों की अक्कल घुटने में होती है। घुटने पर साड़ी अच्छी लगती है। दिमाग को भी हमने घुटने पर देकर हमने उनकी इज्ज़त ही बढाई है। असल में उनके पास दिमाग तो होता ही नही! और ज़रूरत भी क्या है भला! वे रूपसी है, कामिनी हैं, दामिनी हैं, मतवारी हैं, छममकछल्लो हैं, छमिया हैं। ये सब हमारे रस-रंजन के लिए हैं। उनकी खुशकिस्मती कि हम उन्हें अपने साथ होने-सोने-खोने के लिए रख लेते हैं। अब इनकी यह मजाल कि लिखने भी लगें, बोलने भी लगें, हुंकारने भी लगें। दुर्गा-काली कैलेंडरों और शास्त्रों में अच्छी लगती हैं। जीवन में नही। महुआ हो कि कमलेश, गीता हो कि विभा- जो बोलेगी, भाड़ में जाएगी। यह भाड़ हमने बनाया है, इसमें हिंसा, कामुकता, रासलीला की आग हम सदा जला के रखते हैं। हम एक छींटे से अपने ही अन्य लोगों का भी खात्मा करने की ताकत रखते हैं, जिनकी नज़र में स्त्री सम्माननीय है। अरी ऐ औरत! संभाल जा! तू मादा है, मादा रहेगी। मादा बनकर हमारे साथ रहेगी तो तेरे रूप पर तनिक दिमाग का दान भी कर देंगे।कार्टून कुछ बोलता है- राज को राज रहने दो !
उचित है !?
ऐसा प्रकाश मे आया है कि ब्लॉग जगत मे कुछ लोग विभिन्न वेब साइट्स का सहारा लेते हुये चित्रो को कार्टून का रूप दे कर खुद को जबरन कार्टूनिस्ट बता रहे है ... जितना मैं जानता हूँ ऐसे लोगो को कार्टूनिस्ट तो कहा नहीं जा सकता ... आप के हिसाब से यह कहाँ तक उचित है !?
कैसे भूलूं 'पक्का जामुन तोड़ो नहीं'-पीनाज़ मसानी
बचपन में जब भी कोई अच्छा गाना सुनती तो मेरी आंखों में आंसू आ जाते थे। घर में संगीत का माहौल था, मैंने छोटी उम्र से ही गाना शुरू कर दिया था। कॉलेज के दिनों में ‘सुर-सिंगार’ प्रतियोगिता में संगीतकार जयदेव ने मुझे गाते हुए सुना। उन्हें बहुत अच्छा लगा कि एक पारसी लड़की, जिसकी मातृभाषा हिंदी नहीं है, वह हिंदी में इतनी सहजता से गा रही है।
आत्मसंकल्प या बलपूर्वक
किसी भी कार्य को करने के लिये संकल्प चाहिये होता है, अगर संकल्प नहीं होगा तो कार्य का पूर्ण होना तय नहीं माना जा सकता है। जब भी किसी कार्य की शुरूआत करनी होती है तो सभी लोग आत्मसंकल्पित होते हैं, कि कार्य को पूर्ण करने तक हम इसी उत्साह के साथ जुटे रहेंगे।परंतु असल में यह बहुत ही कम हो पाता है, आत्मसंकल्प की कमी के कारण ही दुनिया के ५०% से ज्यादा काम नहीं हो पाते, फ़िर भले ही वह निजी कार्य हो या फ़िर व्यापारिक कार्य । कार्य की प्रकृति कैसी भी हो, परंतु कार्य के परिणाम पर संकल्प का बहुत बड़ प्रभाव होता है।
कुछ कार्य संकल्प लेने के बावजूद पूरे नहीं कर पाने में असमर्थ होते हैं, तब उन्हें या तो मन द्वारा हृदय पर बलपूर्वक या हृदय द्वारा मन पर बलपूर्वक रोपित किया जाता है। बलपूर्वक कोई भी कार्य करने से कार्य जरूर पूर्ण होने की दिशा में बढ़ता है, परंतु कार्य की जो मूल आत्मा होती है, वह क्षीण हो जाती है।
Sunset from Ganges Rajghat Bridge top,Varanasi.
मन है, तनिक ठहर लूँ
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।बैठ मिटाऊँ क्लेश, रहा जो शेष, सहजता भर लूँ ।।
देखो तो दिनभर, दिनकर संग दौड़ रही,
यश प्रचण्ड बन, छा जाने की होड़ रही,
स्वयं धधक, अनवरत ऊष्मा बिखरा कर,
प्रगति-प्रशस्था, प्रायोजन में जोड़ रही ।
अस्ताचल में सूर्य अस्त, अब निशा समान पसर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।१।
ये सर्दियां और तुम्हारे प्यार की मखमली सी चादर...
आज मौसम ने फिर करवट ली है, ज़रा सी बारिश होते ही हवाओं में ठण्ड कैसे घुल-मिल जाती है न, ठीक वैसे ही जैसे तुम मेरी ज़िन्दगी के द्रव्य में घुल-मिल गयी हो... तुम्हारी ख़ुशबू का तो पता नहीं लेकिन तुम्हारा ये एहसास मेरी साँसों के हर उतार-चढ़ाव में अंकित हो गया है... आज शाम जब ऑफिस से निकला तो ठंडी हवा के थपेड़ों ने मेरे दिल पर दस्तक दे दी... इस ठण्ड के बीच तुम्हारे ख्यालों की गर्म चादर लपेटे कब घर पहुँच गया पता ही नहीं चला...
प्यार प्यार है
प्यार अँधा होता है सब जानते हैंप्यार गूँगा होता है सब जानते हैं
प्यार बहरा होता है सब जानते हैं
प्यार गहरा होता है सब जानते हैं
प्यार को न चाहिये हाथ और पैर
प्यार नही जानता अपना या गैर
प्यार प्यार चाहता है न कोई बैर
प्रेम करना है स्वर्ग की सुखद सैर
घर तो आने दो!
न दोष दो इन आँखों को न गाल पसरी बेशर्म लाली कोहै खास कुछ इस जगह में, हवाओं में भी कुछ जहर है।
आँखें होंगी पाक गाल होंगे सफेद फिर, घर तो आने दो!
अफ़ज़ल और संसद पर हमले की अजीबो-ग़रीब दास्तान – 2
( कसाब की फांसी के बाद, अफ़ज़ल को भी जल्दी ही फांसी की मांग उठाए जाने की पृष्ठभूमि में यह आलेख पढ़ने को मिला. 13 दिसम्बर, संसद पर हमले की तारीख़ की आमद के मद्देनज़र अरुंधति रॉय के इस आलेख को गंभीरता से पढ़ा जाना और आम किया जाना और भी मौज़ूं हो उठता है. हिंदी में यह अभी नेट पर उपलब्ध नहीं है, इसीलिए इसे यहां प्रस्तुत करना आवश्यक लग रहा है. आलेख लंबा है अतः व्यक्तिगत टाइपिंग की सीमाओं के बरअक्स यह कुछ भागों में प्रस्तुत किया जाएगा.
अरुंधति आलेख के अंत में कहती हैं, ‘यह जाने बग़ैर कि दरअसल क्या हुआ था, अफ़ज़ल को फांसी पर चढ़ाना ऐसा दुष्कर्म होगा जो आसानी से भुलाया नहीं जा पायेगा। न माफ़ किया जा सकेगा। किया भी नहीं जाना चाहिए।’ इसी परिप्रेक्ष्य में अफ़ज़ल की कहानी और भारतीय संसद पर हमले की अजीबो-ग़रीब दास्तान से बावस्ता होने का जिगर टटोलिए. )
माँ तो माँ है ...
मैंने देखा तुम मुस्कुरा रही होदेख रही हो हर वो रस्म
जो तुम्हारी सांसों के जाने के साथ ही शुरू हो गयी थी
समझ तो तुम भी गयीं थीं
अब ज्यादा देर तुम्हें इस घर में नहीं टिका सकेंगे हम
अंतिम संस्कार के बहाने
बरसों से जुड़ा ये नाता
कुछ पल से ज्यादा नहीं सहा जाएगा
कुछ देर तक
दूर से आने वालों का इंतज़ार
अंतिम दर्शन
फिर चार कन्धों की सवारी
चाय चाय चाय…
चाय का कोई वक्त नहींचाय तो बस मस्त कर देती है
सख्त दिमाग को खुशनुमा कर देती है
कई दर्द भाप बन उड़ जाते हैं
चाय संग कई बात बन जाते हैं
चाय पर कई जज़्बात खिल जाते हैं
बन चुकी है अब ये आदत
कि चाय हमारी मेहमान-नवाजी
और हमारे तहजीब में आती
कि बातों बातों में बन जाती है चाय
और बातों बातों में उड़ जाती है चाय
कई फलसफे बन जाते हैं चाय पर
कई किस्से उभर आते हैं चाय पर
कई अफसानों का गवाह बनता है चाय
और कई रिश्तों की शुरुआत होती है चाय
टेंगर
[टेंगर, और यह कि सोंइस (मीठे जल की डॉल्फिन) रोज दिखती है यहां।]
लल्लन, बायें और राकेश खड़ा हुआ, दायें।
एक नाव पर वे दो थे – बाद में पता चला नाम था लल्लन और राकेश। लल्लन के हाथ में पतवार थी और राकेश जाल डाल रहा था गंगा नदी में।
हम – मैं और मेरी पत्नीजी – गंगा किनारे खड़े देख रहे थे उनकी गतिविधियां। उनकी नाव कभी बीच धारा में चली जाती और कभी किनारे आने लगती। इस पार पानी काफी उथला था, सो पूरी तरह किनारे पर नहीं आती थी। नाव के कुछ चित्र भी लिये मैने। एक बार जब किनारे से लगभग बीत पच्चीस गज की दूरी पर होगी, मैने उनसे बात करने की गर्ज से चिल्ला कर कहा – कितनी मिल रही हैं मछलियां?
गणित छोड़, सब विषयों में फेल
इस चिट्ठी में रामनुजन के द्वारा बिताये स्कूल के जीवन की चर्चा है।गॉवर्मेन्ट कॉलेज कुम्बाकोनम जहां रामानुजन फेल हो गये - चित्र यहां से
रामानुजन ने प्राइमरी परीक्षा में पूरे जिले में प्रथम स्थान प्राप्त किया। स्कूल में प्रवेश लेते समय, इनकी ख्याति गणित के जानकार के रूप में हो चुकी थी।
एक दिन स्कूल में, उनके वरिष्ठ विद्यार्थी ने यह जानने के लिये कि उन्हें वास्तव में गणित की जानकारी है अथवा नहीं, निम्न समीकरण हल करने के लिए कहा:
√क + ख = ११
क + √ख = ७
ब्लागरी का बाइ-प्रोडक्ट
आप सभी वेब परिचित, प्रत्यक्ष मुलाकात तक अन्तरिक्षीय देवों की तरह होते हैं, इसलिए यहां, आपके 'सामने' ईमानदार बना रह सकना आसानी से संभव हो जाता है, ज्यों कन्फेशन बाक्स की सचबयानी।पड़ोसी और अजनबी-परदेसी से बात छुपाने का औचित्य नहीं होता, पड़ोसी को पता चलनी ही है, अजनबी को क्या लेना-देना बातों से और उसके साथ सब बातों को परदेसी हो जाना है। आप सब तो बगल में होकर भी परदेसी हैं, फिर आपसे क्या दुराव-छिपाव।
माना कि दीवारों के भी कान होते हैं मगर 'आनेस्टी इज द बेस्ट पालिसी' ... कभी सच भी तो सर चढ़कर बोलने लगता है, प्रियं ब्रुयात से अधिक जरूरी सत्यं ब्रुयात हो जाता है।
वैसे सच और ईमानदारी के पीछे अगर कोई कारण होते हैं, वह सब लबार के लिए भी लागू हो जाते हैं, ज्यों शराबी बाप के दो बेटों में एक शराब पीने लगा, क्योंकि उसका बाप शराबी था और दूसरा शराब से नफरत करता, कारण वही कि उसका बाप शराबी था। या दार्शनिक वाक्य- 'जो सुख का कारण है, वही दुख का कारण बनता है।' बहादुरशाह ज़फर की कही-अनकही है-
कहां तक चुप रहूं, चुपके रहे से कुछ नहीं होता,
कहूं तो क्या कहूं उनसे, कहे से कुछ नहीं होता।
अकहानी.
(चित्र गूगल से साभार)
"सबके सामने कमिश्नर साहब ने मुझे इतना डाँटा, सिर्फ़ आपकी लापरवाही के कारण। फ़ाईलों का गट्ठर साथ रख लिया लेकिन उन्होंने मौके पर जो रिपोर्ट माँगी, वही साथ लेकर नहीं गये।"
बड़े बाबू ने मिमियाते हुये कहा, "साहब, मीटिंग की तैयारियों का जायजा लेते हुये आपने ही कहा था कि ये सब फ़ालतू की रद्दी यहीं रख दो। मैंने तो कहा भी था कि कमिश्नर साहब मीटिंग के अजेंडे से बाहर भी कुछ पूछ सकते हैं। आपने ही कहा था कि मीटिंग है कोई इंटरव्यू.."
ये क्या हो रहा है राष्ट्रपति महोदय???
इस तस्वीर पर क्या लिखा जाए? मौका था, संविधान निर्माता भीमराव बाबा साहेब आम्बेडकर की पुण्यतिथि पर आयोजित समारोह का और जगह था लोकतंत्र का मंदिर, यानि कि संसद भवन। बाबा साहेब को इस दुनिया से रूखसत हुए 57 साल हो गए। अपने पूरे जीवनकाल में बाबा साहब ने असमानता का विरोध किया और उनका मूल मर्म था, हर इंसान को उसका वाजिब हक दिलाना। उनको सच्ची श्रद्धांजलि भी यही होती कि उनके बताए रास्ते पर चला जाए और इंसानों के बीच हो रहे भेद को समाप्त करने काम किया जाए लेकिन दुर्भाग्य है कि ऐसा हो नहीं रहा है और उनकी पुण्यतिथि के मौके पर आयोजित समारोह के ठीक बाद ही उनके आदर्शों की धज्जियां उड़ाई गईं और यह तस्वीर सामने आई।
बट टाइम माय फ्रेंड, इज लीनियर
कोई नयी भाषा है जो मेरे और तुम्हारे दरमियान उगने लगी है. नीले आसमान से लेकर दूर नीले समंदर तक एक नया व्याकरण रच रहा है. शरद, वसंत, ग्रीष्म और पावस, सारे मौसम हमारे लिए सिर्फ कुछ शब्द बन जाना चाहते हैं. नदियों में इकठ्ठा हो रहा है मेरे तुम्हारे बीच का संवाद...पक्षी सुना रहे हैं तुम्हें मेरी याद का गीत.
ग्राम यात्रा : कुछ यादें तस्वीरों में
“ कौन सी वो रात है गुज़री , जो तुझे याद कर ये आंखें रोई नहीं हैं ,होंगी कायनातें कई कयामत सी खूबसूरत , मेरे गांव तुझसा कोई नहीं है “
मुद्दत बात गांव जाना हुआ और इस बार ऐसा बहुत सारे कारणों से हुआ । मां फ़िर बाबूजी का एक के बाद एक अचानक हमें छोड कर चले जाना इनमें से एक बडा कारण रहा । पिछले दिनों जब अस्वस्थ हुआ और बुरी तरह हुआ तो यकायक यूं लगा मानो जीवन का एक हिस्सा जो बहुत पीछे छूटा जा रहा था वो आंखों और दिमाग में चलचित्र की तरह चलने लगा । मैंने उसी समय ये फ़ैसला किया कि ठीक होते ही सबसे पहले गांव की ओर भाग निकलूंगा । अब शहर की इस घुटन से थोडी सी आज़ादी के लिए मन छटपटाने लगा । और पहली फ़ुर्सत मिलते ही मैं निकल भी लिया । लौटा हूं तो लग रहा है कि जीवन का एक नया टुकडा जी कर आया हूं । चचेरे भाई के गौने के कारण , सब पहले से ही जुटे हुए थे सो जाने कितनी ही यादें , प्यार समेट लाया । सब कुछ तफ़सील से बताउंगा आपको । फ़िलहाल आप मेरे द्वारा खींचे गए लगभग पांच सौ से ज्यादा तस्वीरों में से कुछ को देखें । शेष अगल पोस्टों की श्रंखला में
एक ज़िंदा प्रेत का बयान
आज से ठीक बीस साल पहले यानि, 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्ज़िद ढाह दिया गया. देश को एकबार फिर धर्मान्धता की अंधी सुरंग में झोंकने की कोशिश की गई. जिसमें लोग कामयाब होते भी दिखे पर भला हो इस देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरुप का जो देर सवेर ही सही पर कारगर तरीके से प्रकट होता रहता है. एक तरफ़ कुछ पगलाए नेताओं के बहकावे में आकर लोग कानफाडू शोर के साथ हत्याओं में संलग्न होतें हैं वहीं दूसरी तरफ़ बहुतेरे लोग चुपचाप धर्मनिरपेक्ष होकर दूसरे धर्म के लोगों को यथासंभव संरक्षण देते रहतें हैं. ये भारत का एक अजीब विरोधाभासी सत्य है. किसी दूसरे मज़हब के कब्र पर अपने मज़हब का जश्न मानना अभी भारतीय परम्परा में शामिल नहीं हुआ है, पर ऐसा भी नहीं कि ऐसे उदाहरण नहीं मिलते. हर काल में धार्मिक कट्टरवाद ने अपने स्वार्थ के लिए फन उठाया है और हज़ारों बेगुनाहों का रक्तपान करके अपने बिल में समा गया. धर्म, जाति आधारित राजनीति से शायद ही कोई चुनावी दल अछूता हो. हाँ कोई खुलके बोलता है तो कोई कम्बल के नीचे घी पीने का मज़ा लेता है. कोई दलित का दल है, कोई अल्पसंख्यक का, कोई हिंदुओं का तो कोई यादवों का, कोई कुर्मी का, कोई इसका तो कोई उसका. हर किसी के पास अपना घोषित-अघोषित नकाब है जिसका इस्तेमाल समय के हिसाब से होता रहता है.
17 टिप्पणियाँ:
शानदार :-)
पीनाज़ मसानी आज भी इतनी ही सुंदर दिखती है !!!
अजय भाई गाँव से वापसी का यह अंदाज़ बहुत पसंद आया ... मस्त बुलेटिन लगाएँ है ... जाते है सब लिंक्स पर ... जय हो !
पिनाज मसानी को दो महीने पहले ही मुंबई एयरपोर्ट पर देखा था, अभी भी बहुत खूबसूरत हैं :)
बहुत सुन्दर और पठनीय सूत्र..
बहुत खूब, रंग-विरंगे बुलेतिन में मेरा कार्टून सम्मिलित करने हेतु आपका आभार अजय जी !
एक बात आपके इस बुलेटिन पर "
ये क्या हो रहा है राष्ट्रपति महोदय???" वाले आलेख पर भी कहना चाहूँगा कि गलती इन राजनेताओं की नहीं इसमें , गलती है हिन्दुस्तानियों की चाटुकारिता की हद की जो इस तरह झुक कर जी हजूर के जूते पहनाना अपना खानदानी पेशा समझते है। अगर आप इस पूरी घटना की रिकोर्डिंग देखे तो प्रणव बाबू ने नहीं कहा की तू जूते पहना, ये जनाब खुद ही (सर) कार सेवक बन गए !
देर लगी आने में तुमको, शुक्र है फिर भी आये तो... भिया आपका स्वागत है... :)
सभी अच्छी पोस्ट हैं।
बस प्रणव दा वाली पोस्ट का लिंक नहीं मिला।
Choicest collection,thanks!
अच्छी पोस्ट का संकलन है विस्तार के साथ ... आभार मेरी रचना शामिल करने का ...
रचना संलग्न करने के लिए आभार. सराहनीय प्रयास है. मेरी शुभकामनाएँ.
रोचक पोस्टों के लिंक मिले.
आभार...
आपका जीवट कायम है...यह निस्संदेह सराहनीय है.
बढ़िया संग्रह
sundar links prapt hue..
abhar
एक टिप्पणी भेजें
बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!