(पिछले वर्ष के अवलोकन को एक अंतराल के बाद हमने पुस्तक की रूपरेखा दी ..... इस बार भी यही कोशिश होगी . जिनकी रचनाओं का मैं अवलोकन कर रही हूँ , वे यदि अपनी रचना को प्रकाशित नहीं करवाना चाहें तो स्पष्टतः लिख देंगे . एक भी प्रति आपको बिना पुस्तक का मूल्य दिए नहीं दी जाएगी - अतः इस बात को भी ध्यान में रखा जाये ताकि कोई व्यवधान बाद में ना हो )
लकीरें बनाती हैं तदबीर
लकीरें ही बनाती हैं तक़दीर ...
लकीरें ही सीधे रास्ते बनाती हैं
रिश्तों के मध्य भी होती है लकीर
सम्मान की ...
लकीरों को मिटाना आसान तो है
पर प्रश्न ये है
कि मिटा देने से खत्म हो जाता है क्या सबकुछ ??? ,,,,,,,,,,,,,, हाँ अर्थ बदल जाते हैं, यूँ कहें बदल दिए जाते हैं .... लकीरों की बनती मिटती बानगी सोमाली की भावनाओं में -
लकीरों से बनी एक तस्वीर,
समेटे होती है न जाने कितने भाव,कितने जज्बात अपने अन्दर
एक लकीर मिटने से बदल जाते हैं, सारे अर्थ और जज्बात,
लकीर से ही होती है शुरुआत होने की साक्षर ,
जब लकीरों को मिलाकर बनता है पहला अक्षर
हाथों की लकीरों में उलझ जाते हैं कितने नसीब
बदल जाते हैं कितनी ही जिंदगियो के समीकरण
इन लकीरों में विश्वास और अविश्वास के कारण
एक लकीर कर देती है टुकड़े उस आँगन के
जो था कभी साँझा संसार,प्यार की चाशनी में पगे थे रिश्ते
सुख-दुःख के थे जहाँ सब भागिदार ,
अब कोई किसी के सुख-दुःख का नहीं साझीदार ,
जैसे एक ही घर रहते हो दो भिन्न परिवार
एक लकीर ने विभाजित कर दिया एक देश को
खीच के सरहद ,कर दिए हिस्से, जमीन के साथ इंसानों के भी,
कर भाई को भाई से जुदा,
बना दिया भगवान को यहाँ इश्वर वहां खुदा
बंटी हुई है धरा समुचि इन्ही लकीरों से सरहदों में
बंधा है संसार जैसे इन्ही लकीरों की हदों में
बेमिसाल सी शक्ति लिए ये लकीरें
बनाती भी है, और मिटाती भी
निर्भर हम पर करता है, की कहाँ खीचनी है यह लकीर ....
सच बहुत ताकत होती है इन लकीरों में, लक्ष्मण रेखा की ताकत थी,रावण उसे पार नहीं कर सकता था ..... तभी तो उसने क्रोध से सीता को ही उसमें से निकाला ! और ..... सीता अपहरण,जटायु का अंत,
लंका दहन,अग्नि-परीक्षा,धोबी का कथन,गर्भवती सीता का त्याग .... मात्र एक लकीर को पार कर जाने की वजह से हुआ ।
अशक्त मन फिर कहाँ जाये, कहाँ त्राण पाए ? रजत सक्सेना ने बनारस के रोम रोम को परिलक्षित किया है - कुछ यूँ,
ए बनारस !
आ ही पहुँचा,
दर पे तेरे ........... द्वार खोलो ........... मुक्ति दे दो.
क्यों प्रलोभन,
साँझ बेला में दिखे हैं,
बुद्ध का कुछ ........... ज्ञान दे दो.
है ये काशी,
जिसकी काशी ........... वो स्वयंभू सो रहा है.
दिन चढ़ा है,
तप रही धरती है देखो,
भभकता वातावरण है.
तन बहुत विक्षिप्त है ........... कुछ छाँव दे दो.
इस दुपहरी नींद में सोता प्रभु मैं,
हे विश्व के तुम नाथ !
हर लो नींद मेरी ........... आँख खोलो.
शान्त कर मेरी क्षुधा,
हे अन्नपूर्णा ! ........... अन्न का भंडार खोलो.
तुलसी मानस गीत सुनते,
भज रहा मैं राम हनुमत,
बंदरों के भाव चंचल,
बंदरों सा मेरा जीवन.
एक गंगा !
चांदनी बिछती थी जिस पर,
कुछ काल पहले ........... आज धुंधली हो गयी है.
हो भले ही,
मैल तुझमें,
आरती हर रोज होती,
एक आशा मन बसी ........... तुम साफ़ होगी.
दिन फिरें,
है यही दरकार ........... ए सरकार ! मेरे.
ए भारत !
खिलखिला तू,
आत्म विश्वास से,
आध्यात्म से.
हो समर्पित विश्व को,
संवेदना से,
संचेतना से,
सम्प्रेरणा से,
संज्ञान से,
विज्ञान से,
सत्य से,
प्रकाश से,
अमरत्व से ........... ज्ञान की आधार काशी.
ए बनारस !
थे तपस्वी,
हैं तपस्वी,
दे तपस्वी.
भेज दे चहुँ ओर ........... सन्देश वाहक.
ए खुदा ! हे भगवन ! ए बनारस !
पर यह मुक्ति भाव हताशा में बदल जाती है जिस दिन कामवाली नहीं आती है . इस मानसिक भयावह स्थिति को हर गृहणी समझ सकती है, पसीने से तरबतर चेहरे पर रश्मि तारिका की रचना मुस्कान
ला देगी ...
जब किसी दिन काम वाली न आये ..........
आँखें नींद से भरी हों और अंगडाई अभी ले भी न पाए
पति और बच्चो के नाश्ते के बारे अभी सोच भी न पाए
एक संदेशा चौंका जाए ,नींद आँखों से ऐसे भगा जाए
जब किसी दिन काम वाली न आये......
मूवी ,शौप्पिंग और मस्ती के अरमान सारे पानी में बह जाए
पति के साथ लौंग ड्राइव जाने के सपने अधूरे ही रह जाए
केंडल लाइट डिनर से मैन्यु घूम कर दाल चावल पर आ जाए
जब किसी दिन काम वाली न आये........
पूरे महीने की भड़ास पति को हेल्प न करने में निकल जाए
बच्चो पर गुस्सा उनकी बिखरी किताबें , जूते देख उतर जाए
काम देख देख कुछ समझ न आये ,हालत खराब होती जाए
जब किसी दिन काम वाली न आये .......
रोमांस की ऐसी तैसी कर पति को केवल ब्रेड,बट्टर खिलाये
बच्चो को भी दुलार कर ,मुनहार कर मैग्गी खाने को मनाये
जींस टॉप से औकात नाइटी पर एप्रन बाँधने पर आ जाए
जब किसी दिन काम वाली न आये .......
उस इंसान की खैर नहीं जो बाहर दरवाज़े पर बैल कर जाए
फ़ोन उठाया भी तोह वक़्त बस बाई को कोसने में निकल जाए
हमसे ज्यादा कौन है दुखी इस दुनिया में यह सब को जतलाये
जब किसी दिन काम वाली न आये ........
हस्ती घर की महारानी और राजरानी से नौकरानी पर आ जाए
सारी अदाएं बर्तन, सफाई वाली की झाड़ू में सिमट आये
वो हर काम के पैसे ले छूटी कर घर बैठी ऐश फरमाए
हम सारे काम करके भी दो शब्द शाबाशी के भी न पाए
जब किसी दिन काम वाली न आये......
थकावट से चूर बदन से हर पल आह सी निकलती जाए
खुद से ही लडती खुद से ही जूझती दिल में बाई को कोसती जाए
कल लुंगी खबर ,कर दूंगी छूटी ये खुद से वाएदा करती जाए
जब किसी दिन काम वाली न आये ......
कल आ जाए बाई ये सोच कर रात भर प्रार्थना करती जाए
सुबह उसके आने पैर गुस्सा भूल उससे खूब खिलाये खूब पिलाए
कल तक जो कोसती थी जुबां आज वो मिश्री सी घुल घुल जाए
जब अगले दिन काम वाली आ जाए .......
कामवाली के आते उससे जोर से बोलना उससे छुट्टी पाना है तो मुस्कान लिए ही उलाहना देना पड़ता है .... बहुत डिमांड में हैं ये कामवालियां :)
18 टिप्पणियाँ:
kamvaliyon ka mahattva bade shaandar tareeke se bataaya hai .kya bat hai
बहुत सुंदर
''...जिनकी रचनाओं का मैं अवलोकन कर रही हूँ , वे यदि अपनी रचना को प्रकाशित नहीं करवाना चाहें तो स्पष्टतः लिख देंगे . एक भी प्रति आपको बिना पुस्तक का मूल्य दिए नहीं दी जाएगी...''
(हे भगवन् मैं तो हड़काई पढ़ कर सहम गया हूं)
तब तो एक कार्टून बनता है न ....:)
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (8-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
behtareen...
ब्लॉग बुलेटिन भी एक चर्चा मंच ही है ..... ब्लॉग बुलेटिन चर्चा मंच का लिंक ले या चर्चा मंच या अन्य कोई चर्चा करनेवाले मंच चर्चा का ही लिंक लें - यह चर्चा के घेरे से बाहर की बात है . हाँ ऐसे विशिष्ट मंचों की चर्चा हेतु कोई ऐसा ब्लॉग बने- जहाँ इनकी विशेष व्याख्या हो तो उचित है
बहुत बढ़िया..
तीनों प्रतिभाओं की छांटी गयी रचनाएं अपने अपने क्षेत्र में बखूबी कमाल करती हैं |
लकीरों के ऊपर गुलजार सब ने शायद सबसे कम शब्दों में अपनी बात कही है -
"लकीरें हैं तो रहने दो ,
किसी ने रूठकर गुस्से में शायद खींच दी थीं
इन्हीं को अब बनाओ पाला ,
और आओ कबड्डी खेलते हैं ,
लकीरें हैं तो रहने दो |"
सादर
जय हो रश्मि दीदी ... एक बार फिर आपने बढ़िया पोस्टों से रूबरू करवाया !
ब्लॉग बुलेटिन के लिंक के विषय मे आपने जो एतराज किया है मैं उसका समर्थन करता हूँ !
रश्मि प्रभा जी, इस ब्लॉग बुलेटिन के अद्भुत प्रयास "अवलोकन 2012" में मेरी रचना का चयन होने पर बहुत आनंद का अनुभव हो रहा है। मैं बहुत ही गौरवान्वित अनुभव कर रहा हूँ। आप का स्नेह अविस्मर्णीय है। इस साहित्य प्रवाह में सम्मिलित करने लिए आभार।
सोमाली जी ने बखूबी जीवन में लकीरों के महत्व से अवगत कराया है। सोचने पर मजबूर करती रचना।
रश्मि तारिका जी ने घर घर की कहानी को उसके हर पहलू को छूते हुए बहुत सरलता से और रोचक ढँग से कहा है।
सादर।
राजेश सक्सेना "रजत"
... बहुत डिमांड में हैं ये कामवालियां :) बिल्कुल सच
सभी रचनाओं का चयन उत्तम बन पड़ा है ... आभार आपका इस प्रस्तुति के लिये
सादर
mam , "अवलोकन 2012" में मेरी रचना सम्मिलित करने के लिए अत्यंत आभार ,मेरे लिए यह गौरव
की ही बात है की मेरी रचना इस साहित्य प्रवाह में सम्मिलित होगी .........अत्यंत आभार ...
रश्मि प्रभाजी आपकी चयन बहुत बढ़िया है,
इन कविताओं का स्तर सचमुच उत्कृष्ट श्रेणी का है.. सार्थक प्रस्तुति!!
बहुत सुन्दर संकलन
बहुत उम्दा रचनायें..
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बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!