पिछले दिनों दिल्ली में हुए बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को लेकर जो क्रोध लोगों का फ़ूटा है उसने जैसे फ़िर से एक बार ये साबित कर दिया है कि अब आम आदमी , सच में ही इस व्यवस्था से , इन हालातों से , निजात पाने के लिए छटपटा रहा है । दिनों दिन जिस तरह से अवाम का गुस्सा सडकों पर निकल रहा है और वे जिस तरह से सडक से संसद तक अपने सवालों को लेकर सियासत के सामने सीना तान कर खडे हो रहे हैं वो इस बात का सबूत है कि , ये साल बेशक खत्म हो रहा है ,किंतु भारत में अब एक नए युग की शुरूआत हो रही है और वो युग हो न हो आम आदमी के जनसंघर्ष का , उसकी सोच का , उसके फ़ैसले का ही युग होगा । इसलिए ये कहा जाए कि ये हर लिहाज़ न सिर्फ़ देश और समाज के लिए बल्कि हर आदमी के लिए बहुत ही संवेदनशील और गंभीर फ़ैसले लेने का वक्त है । आने वाला भविष्य , हमारे आपके सामने है और अब ये भी तय है कि वो भविष्य हमें कैसा चाहिए इसका फ़ैसला भी हमें आज ही करना होगा वर्ना पिछले कई बरसों से मूक बधिर बनकर स्थितियों को बिगडने का परिणाम तो हम सब देख ही रहे हैं । हिंदी अंतर्जाल पर भी बहुत कुछ लिखा पढा जा रहा है और ब्लॉग जगत में भी । आइए देखते हैं आज की कुछ चुनिंदा पोस्टों को , आज की बुलेटिन में :-
नारी ब्लॉग पर लिखी गई पोस्ट में , अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए लेखिका कहती हैं, "1978 में गीता चोपड़ा - संजय चोपड़ा रेप और हत्या काण्ड { लिंक } के बाद दिल्ली विश्विद्यालय के छात्राओं ने दिल्ली में जुलूस निकाला था और अपनी आवाज को उंचा किया था , मै भी उस जूलुस का हिस्सा थी . गीता चोपड़ा अपने भाई के साथ रेडियो स्टेशन जा रही थी जब ये काण्ड हुआ .
2012 में एक 23 साल की लड़की अपने दोस्त के साथ पिक्चर देख कर आ रही थी और उसके साथ जो कुछ हुआ वो आज पूरा देश जानता हैं . आज फिर लडकियां अपनी आवाज बुलंद कर रही हैं और उसमे मेरी भांजी भी हैं सड़क पर एक जुलूस में .
1978 - 2012 यानी 34 साल अंतराल , एक नयी पीढ़ी और फरक "कोई नहीं " तब हमारी पीढ़ी चिल्ला रही थी आज हमारी बेटियाँ चिल्ला रही हैं .
बदलाव कहां आया हैं ???
अरुणा शौन्बौग रेप के बाद 1973 में जब कोमा में चली गयी थी और आज भी उसी बिस्तर पर हैं
2012 मे 23 साल की बेटी जीवन के लिये अस्पताल में जूझ रही हैं पर विज्ञान की तरक्की कर कारण कोमा में नहीं गयी हैं और विज्ञान की तरक्की के कारण लोग कह रहे हैं की उसकी एक आंत जो " एब्नार्मल सेक्स क्रिया " के कारण निकल दी गयी हैं वो रिप्लेस करी जा सकती हैं .
आईये ताली बजाये की विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली हैं हम एक बलात्कार की शिकार लड़की को बचा सकते , ज़िंदा रख सकते हैं . क्यूँ ताली नहीं बजाई आप ने ???
इस पर प्रतिक्रिया देते हुए राजन कहते हैं ,"
राजनDecember 22, 2012 5:19 PM34 साल क्या देखा जाए तो चौँतीस सौ सालों में भी कुछ नहीं बदला है।और विज्ञान ने तरक्की भले की हो लेकिन हमने तो इसका भी गलत इस्तेमाल नारी के खिलाफ किया है आज भ्रूण हत्या करना कितना आसान हो गया है।विज्ञान की सहायता से एक को बचा भी रहे तो क्या लाखों को मार भी तो रहे हैं।
काव्य मंजूषा पर अदा जी भी एक प्रश्न उठा रही हैं :
"खजुराहो के मंदिर में, नारी के अनगिनत मनोभाव, अपार प्रतिष्ठा पाते हैं। ये उत्कीर्ण आकृतियाँ, पूर्णता और भव्यता की, प्रतीक मानी जातीं हैं। यहाँ नारी देह की लोच, भंगिमाएँ और मुद्राएं, लालित्यपूर्ण तथा आध्यात्मिक मानी जाती हैं। विनम्रता और आदर पाती हैं, ये प्रस्तर की मूर्तियाँ। ऐसी विशुद्ध सुन्दरता की दिव्य अनुभूति के लिए, समस्त कामनाओं से मुक्त हो कर, श्रद्धालु वहाँ जाते हैं। स्त्री के कामिनी रूप की, हर कल्पना को सम्मानित करते हैं, क्योंकि वो अपने हृदय में जानते हैं, यही शक्ति, संभावित माता है, जो सृष्टि को जन्म देगी, जो नारी के सर्वथा योग्य है।
लेकिन सड़क पर आते ही, वो सब भूल जाते हैं।
क्यों ???"
आम आदमी के इस फ़ूटे हुए गुस्से को भांपते हुए आनंद प्रधान तीसरा रास्ता में कहते हैं कि ये गुस्सा न सिर्फ़ इस अपराध और इसके अपराधियों के खिलाफ़ है बल्कि ये गुस्सा खाप पंचायतों और पुलिस के खिलाफ़ भी है ,
" क्योंकि इस गुस्से में गूंजती इन्साफ की मांग में एक साथ कई आवाजें हैं: न जाने कब से हर दिन, सुबह-शाम कभी घर में, कभी सड़क पर, कभी मुहल्ले में, कभी बस-ट्रेन में, कभी बाजार में अपमानित होती स्त्री की पीड़ा है. इसमें खाप पंचायतों के हत्यारों के खिलाफ गुस्सा है. इसमें वैलेंटाइन डे और पब में जाने पर लड़कियों के कपड़े फाड़ने और उनके साथ मारपीट करनेवाले श्रीराम सेनाओं और बजरंगियों को चुनौती है. इसमें स्त्रियों के “चाल-चलन” को नियंत्रित करने के लिए बर्बरता की हद तक पहुँच जानेवाले धार्मिक ठेकेदारों और ‘संस्कृति पुलिस’ के खिलाफ खुला विद्रोह है."
इसी मुद्दे पर अंतर्मंथन करते हुए चिकित्सक ब्लॉगर डॉ टी एस दराल कहते हैं कि ऐसे अपराधियों के लिए वो सज़ा मुकर्रर की जानी चाहिए जिससे उनके मन में कानून का भय पैदा हो सके ,
"
बलात्कार एक ऐसा अमानवीय अत्याचार है जो न सिर्फ एक महिला की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर प्रहार है बल्कि उसकी आत्मा को भी खंडित कर देता है। यह न सिर्फ भयंकर शारीरिक वेदना और पीड़ा देता है बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी स्थायी और अमिट दुष्प्रभाव छोड़ जाता है। इंसानियत के विरुद्ध इससे बड़ा और कोई अपराध नहीं हो सकता। इसलिए आवश्यक है कि बलात्कार के आरोपी पर अपराध सिद्ध होने पर सज़ा में कोई नर्मी न बर्ती जाये और उसे सख्त से सख्त सज़ा दी जाये। और फांसी से ज्यादा सख्त सज़ा और क्या हो सकती है। फांसी का तो नाम सुनकर ही बदन में सिरहन सी दौड़ जाती है। फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट द्वारा शीघ्र कार्यवाही पूर्ण कर जब दो चार अपराधियों को फांसी लगा दी जाएगी तो संभव है लोग ऐसा अपराध करने से डरने लगें। वर्ना दिल्ली की सड़कों पर यूँ ही ये खूंखार दरिन्दे बेख़ौफ़ घूमते रहेंगे अपने अगले शिकार की तलाश में।इन्सान बस एक ही डर से डरता है -- मौत का डर ! जब तक अपराधियों को मौत का डर दिखाई नहीं देगा , सड़कों पर इंसानियत यूँ ही बेमौत मरती रहेगी। "
शर्म आती है डा0 साहब मुझे तो अपने हिन्दुस्तानी होने पर। आपकी बातो से पूर्णतया सहमत हूँ लेकिन साथ ही अपने ब्लॉग के एक लेख का कुछ हिस्सा भी इस टिप्पनी में जोड़ रहा हूँ, जो मेरी बात कहता है ! क्योंकि हम लोग सिर्फ पुलिस को ही दोष न दे। आज भ्रष्ट जुडीशियरी और विधायिका (राजनीतिग ) इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। (369 तो हमारे ऐसे एम् पी और एम एल ए ही है जिनपर महिलाओं से बदसुलूकी के संगीन अपराध है ) अपराधियों को बचने के लिए हमारी जुडीशियरी यह निर्णय तो झट से सुना देती है की अगर कोई अपराधी फर्जी मुठभेड़ में पुलिस द्वारा मारा जाता है तो उन पुलिस कर्मियों को मृत्यु दंड दिया जाना चाहिए ( मैं यह नहीं कहता की हमारी पुलिस बहुत शरीफ है किन्तु पुलिस का मनोबल तो इन्होने तोड़ा है ). और यहाँ ये खामोश है ! यहाँ क्यों नही जुडीशियरी वही निर्णय सुनाती है इन दरेंदों के लिए ??? लेख का हिस्सा यहाँ चस्पा कर रहा हूँ :
जब से यह दिल्ली की छात्रा के साथ दरिंदगी का मामला प्रकाश में आया है, संसद, विधान सभाओं, खबरिया माध्यमो और टीवी चैनलों पर खूब घडियाली आंसू बहाए जा रहे है। और उन्हें सुनकर , पढ़कर मैं पके जा रहा हूँ क्योंकि एक भी माई के लाल ने यह सवाल नहीं उठाया कि जनता की सेक्योरिटी के लिए जो सुरक्षाबल थे, उन्हें तो इन घडियाली आंसू बहाने वाले कायरों ने हड़प रखा है, जनता तो असुरक्षित होगी ही ! आज तक किसी राजनितिक हस्ती अथवा उसके रिश्तेदारों का गैंगरेप हुआ ? नहीं।।।।। क्योंकि उनके पास तो फ्री के पुलिसवाले बन्दूक्धारी हैं। आप देखें की एक तथाकथित वीआइपी जो एयर पोर्ट आ -जा रहा हो, आपने भी गौर फरमाया होगा कि उसको प्राप्त ब्लैक कमांडो के अलावा भी एयर पोर्ट से नई दिल्ली ( उसके गंतव्य तक ) के हर चौराहे पर सफ़ेद वर्दी वाले 5-5 ट्राफिक पुलिस के जवान और एक से दो जिप्सिया खडी रहती है, जबकि बाकी दिल्ली में कई जगहों पर ट्रैफिक लाईट पर एक भी ट्रैफिक कर्मी नहीं होता, पुलिस जिप्सिया तो दूर की बात है और लोग खुद ही घंटों जाम में जूझ रहे होते है। ये हाल तो सिर्फ दिल्ली का बया कर रहा हूँ, बाकी देश का क्या होगा ! इसलिए यही कहूंगा कि जागो...... राजनीतिक स्वार्थ के लिए दूसरों पर ये कितनी जल्दी आरक्षण थोंपते है लेकिन एक महिला आरक्षण बिल संसद में कब से धूल फांक रहा है, अगर वह समय पर पास हुआ होता और संसद में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व होता तो क्या वे महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार को रोकने के लिए कोई सख्त क़ानून नहीं बनाते? इसलिए बस, अब जागो वरना कश्मीर के मशहूर उर्दू कवि वृज नारायण चकबस्त जी का यह शेर सही सिद्ध हो जाएगा - "मिटेगा दीन भी और आबरू भी जाएगी, तुम्हारे नाम से दुनिया को शर्म आएगी।"
अपने ब्लॉग राष्ट्र सर्वोपरि में लिखते हुए सानू शुक्ला कहते हैं कि "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते " कहने मानने वाले देश में बलात्कार जैसे जघन्य अपराध का होना कितनी शर्म और लज्जा की बात है । वे आगे कहते हैं कि सिर्फ़ मृत्युदंड दे देने से इस अपराध का हल नहीं निकलेगा हमें समाज के गिरते चारित्रिक मूल्यों को भी संभालना होगा । आगे वे सज़ा के तौर पर सुझाते हैं कि ऐसे अपराधियों को सर्जिकल व केमिकल उपायों द्वारा नंपुसक बना देना चाहिए ।
इस बीच एक अफ़वाह जो पिछले दिनों बडे जोरों पर थी वो थी माया कलेंडर द्वारा की गई महाप्रलय और दुनिया के खत्म होने की भविष्यवाणी , इस विषय पर देवेन मेवाडी कहते हैं और दुनिया खत्म नहीं हुई ,
"
लाख अफवाहों के बावजूद हमारी यह प्यारी और निराली धरती 21 दिसंबर यानी आज के बाद भी सही सलामत रहेगी। साढ़े चार अरब वर्ष पहले जन्म लेकर जिस तरह यह लगातार सूर्य की परिक्रमा कर रही है, उसी तरह अब भी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती रहेगी और अपनी धुरी पर उसी तरह घूमती रहेगी। उसी तरह सूर्योदय, सूर्यास्त, रात और दिन होंगे और उसी तरह ऋतुएं बदलेंगीं।
माया कलेंडर पृथ्वी के विनाश का झूठा भ्रम फैलाने वाले लोग एक बार फिर बेनकाब होंगे और विज्ञान का सच एक बार और हमें तर्क करके सोचने का मौका देगा कि हमें केवल सुनी-सुनाई अफवाहों पर अंधविश्वास न करे सच का साथ देना चाहिए। यह घटना एक बार फिर साबित कर देगी कि जैसे पत्थर की मूर्तियाँ दूध नहीं पीतीं, रातों को जागने से जीते-जागते आदमी पत्थर नहीं बन जाते, खारा पानी किसी चमत्कार से मीठा नहीं बन जाता, ओझा-तांत्रिकों की हुँकार और धुंए के गुबार से कोई बीमारी ठीक नहीं हो जाती और बिल्लियों के रास्ता काटने, कौवे के बोलने या छिपकली के गिरने से कोई शुभाशुभ फल नहीं मिलते, उसी तरह माया कैलेंडर की आखिरी तारीख के बाद हमारे इस ग्रह का भी अंत नहीं होगा।
चलिए आज के लिए इतना ही जाते जाते अपनी पोस्ट के कुछ अंश भी डाले जा रहा हूं ,""देश की राजधानी दिल्ली, जहां की मुख्यमंत्री पिछले कई वर्षों से संयोगवश एक महिला हैं और जिस शहर की सुरक्षा में विश्व की बेहतरीन पुलिस सेवाओं में से एक , दिल्ली पुलिस , लगी हुई है , उस राजधानी में शहर में दौडती एक बस में सरेआम एक युवती की इज़्ज़त और उसके शरीर को इतनी बुरी तरह रौंद दिया जाता है कि अब उसका जीना मौत से बदतर लगने लगता है । कितु इस तरह की न तो ये पहली घटना और अफ़सोसजनक रूप से कहना पडेगा कि आखिरी भी नहीं । जैसा कि अपने बेबाक बयानों के लिए जाने वाले मार्कण्डेय काटजू कहते हैं कि इस बार इस अपराध को लेकर इतनी उग्र और तीव्र प्रतिक्रिया के साथ “मीडिया अटेंशन ” इसलिए भी मिला है क्योंकि ये राजधानी दिल्ली में घटी है । ये सच भी जान पडता है । पडोसी राज्य हरियाणा से लगातार बलात्कार और सामूहिक बलातार जैसे अपराधों की घटनाओं ने स्वयं संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी को वहां जाने पर मजबूर कर दिया था । शायद यही वजह है कि लोग अब ये सोचने पर भी विवश हैं कि क्या इन अपराधों और इनके भुक्तभोगियों का दर्द क्या इसलिए प्रशासन , राजनेताओं , कानून निर्माताओं को महसूस नहीं होता क्योंखि अक्सर पीडित पीडिता गरीब या मध्यम परिवार का कोई आम व्यक्ति होता है किसी बडे रसूखदार मंत्री या उद्योगपति का कोई अपना नहीं ।"