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मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

प्रतिभाओं की कमी नहीं अवलोकन 2012 (15)


तुम अकेले हो .... समय नहीं कटता ... दिल घबराता है !
मैं भी तो अकेली ही हूँ 
फर्क इतना है की समय को काटने की कोशिशें करती हूँ 
कभी नन्हीं सी गौरैया बन जाती हूँ 
प्रतिभाओं के दाने उठाती हूँ 
तो कभी हिन्दुस्तान की मल्लिका -ए-आज़म बन 
प्रतिभाओं को सम्मानित करती हूँ 
पूरे राज्य में हिंदी साहित्य की लाइब्रेरी 
लिखनेवालों की किताबें हीरे सी दमकती हैं 
........
सच पूछो तो ख्वाब पूरे हों ना हों 
समय एहसासों के संग बहुत बढ़िया बीतता है .......... एक बार इन्हें पढ़ो तो =

                पुराने समय में एक पंड़ितजी जब पूजा करने बैठते तो उनकी पालतू बिल्ली उनके आपपास बनी रहती, कभी गोद में बैठ जाती, कभी पूजा सामग्री की ओर लपकती । पंड़ितजी पूजा पर बैठते और पहले एक टोकरी से बिल्ली को ढंक देते । बिल्ली बंद रहती और उनकी पूजा निर्बाध संपन्न हो जाती । अचानक उनका देहांत हो गया । कुछ दिनों के बाद पूजा पुनः आरंभ करना थी । पुत्र ने बड़े परिश्रम से बिल्ली को पकड़ा , टोकरी में बंद किया और पूजा की । हर दिन पूजा से ज्यादा समय उसे बिल्ली को पकड़ने में लगाना पड़ता था क्योंकि बिल्ली उसे देखते ही दूर भागती थी । 

                कोई कार्य रूढ़ हो कर कब हमारी चेतना में  जगह बना लेता है , अक्सर हम जान नहीं पाते । विवेक और विज्ञान को अपनी शक्ति  का ज्यादातर भाग पिछले कामों को देखने-समझने और जांचने में खर्च करना पड़ता है । भारत में एक सामान्य परंपरा है कि जब किसी की मृत्यु होती है तो दरवाजे पर कंडे या उपले को जला कर रख दिया जाता है । शवयात्रा के साथ आगे आगे उस जलते उपले को ले कर चला जाता है । उस उपले से बड़े प्रयासों के बाद चिता की अग्नि प्रज्वलित की जाती है । नगरों / महानगरों में भी यही किया जाता है । इसके कारणों के विषय में कहीं कोई जिज्ञासा या प्रश्न  नहीं होता है ।
                  पुराने समय में ‘आग’ माचिस में सुलभ नहीं थी । बड़े परिश्रम और जतन से उसे ‘पैदा’ किया जाता था । रसोई बनाने के बाद चूल्हे में अंगारों को दबा कर रखा जाता था ताकि जरूरत पड़ने पर दोबारा उसी से ‘आग’ पैदा की जा सके । इस तरह चूल्हा हमेशा  आग समेटे गरम रहता था । घर में किसी की मृत्यु होते ही परिजन चूल्हे से आग निकाल कर उपले के साथ दरवाजे पर रख देते थे । चूल्हा ठंडा हो जाता था । ‘चूल्हा ठंडा होना’  शोक सूचक शब्दों  की तरह प्रयुक्त होते थे । शोक  प्रायः तीन दिन, तेरह दिन और कहीं कहीं सवा महीना या चालीस दिनों का होता है । तीन दिनों तक घर का चूल्हा नहीं जलता था । पास पड़ौस या संबंधीजनों के यहां से उपलब्ध कराए भोजन का उपयोग होता है । बाद में बहन-बेटियां और रिश्तेदार  घर का चूल्हा जलवाते थे । ‘चूल्हा जलवाना’ शोक  निवारण की महत्वपूर्ण प्रक्रिया माना जाता था । अब चूल्हे में पहले की तरह ‘आग’ है , वह गरम है अर्थात् जीवन की सामान्य गतिविधियां पुनःस्थापित हो गईं ऐसा माना जाता था । 
                 आज के समय को देखें तो अग्नि को प्रज्वलित करने में कोई कठिनाई नहीं है । न ही घरों में परंपरागत चूल्हे दिखाई देते हैं , कम से कम नगरों में तो नहीं । गांवों में हैं भी तो उन्हें गरम रखने की आवश्यकता  अब समाप्त हो चुकी है । लोग कुकिंग गैस या बिजली से भोजन पकाते हैं । शिक्षा , समझ और आधुनिकता के मामले में नगरीय समाज तीव्र गतिशीलता  रखता है । लेकिन नगरों में, जहां उपले सहज नहीं मिलते हैं, शोक  के समय इन्हें ढूंढ़ कर जुटाया जाता है । उसे घासलेट या पेट्रोल  डाल कर माचिस से जलाया जाता है और दरवाजे पर रखा जाता है । बिना यह सोचे कि आज इस उपक्रम का कारण और जरूरत क्या है !! 
                     आज की पीढ़ी में जिज्ञासा और चेतना अधिक है । अगर परंपराएं थोथी हैं या अप्रासंगिक हो गईं हैं तो बिना सोचे उसे ढ़ोते जाना हमारे अविवेकी  होने को प्रमाणित करता है । यदि हम नई पीढ़ी के सामने अपने को इसी तरह प्रस्तुत और प्रमाणित करेंगे तो उनसे सम्मान की आशा  करना उचित नहीं है । हमारी अगली पीढ़ी बिल्ली पकड़ने के लिए नहीं होना चाहिए । 

मैंने एक किला देखा था(चिंतन)-वंदना शुक्ला 

मैंने एक किला देखा था
देखे तो ज़िंदगी में कई किले हैं
अब तो एक सी रूहें भटकती हैं उनके सन्नाटों में
ना तो किस्सों के पैर होते और
ना ही रूहों की शक्ल
हाँ तो एक किला देखा  
 मांद के बाहर
 घिसे हुए नखों वाले पंजों में ‘
अपना सिर घुसाये उदास   
बूढ़े लाचार शेर सा निरीह
खंडहर खंडहर हो जाता हुआ  
ईमारत की बुलंदी तो
भ्रमों की ऐयाशी है
ताड़ पत्र पर लिखी अमोल पांडुलिपियों सी
खस्ता हाल मज़बूत दीवारें  
छींटे थे कुछ पुराने खून के धब्बों के
दीवारों पर
यदि नहीं बताता गाइड खून के बारे में तो
पर्यटक यही समझते कि ये
बरसाती काई की जमाहट है पुरानी
पर नहीं वो खून था, जिसका इतिहास ज़रूर
लाल निखालिस और चमकीला रहा होगा
पर वर्तमान काला ,बुझी राख सा   
अलावा इसके थे
 पुराने माँस के कुछ लिथड़े हुए अंश
जो दीवारों पर दीमकों के ठुहों का भ्रम पैदा कर रहे थे  
कुछ भ्रम असलियत से कम क्रूर होते हैं |
ये हमारी पुरातात्विक संपत्ति है
जो संस्कृति की अनमोल धरोहर होती है
और धरोहरें झूठ और दिखाबे से
छल नहीं पातीं खुद को
ये बारीक नक्काशी ,मूर्तियां,छतें,दीवारें  
गाइड के चेहरे पर
गर्व की दिप्दिपाहत थी
ये बताते हुए
पर वो नहीं ज़वाब दे पाया इस प्रश्न का कि
दीवारों पर खून के धब्बे और मटमैले माँस के टुकड़े
देशी थे या विदेशी ?
रानियों के सात दरवाजों के पीछे बने
आराम गाहों और
राजा के एश्गाहों के दरवाजे
दो ध्रुव थे किले के
रानियाँ जहाँ अपने सपनों को सुलाती थीं थपकियाँ दे
ठुमरियों और मुजरों की अश्रु पूरित लोरियों से
संगमरमरी कमरों की एक एक उधड़ी टीप
और नीले-पीले चमकीले रंगों की
भद्रंग होने होने को नक्काशियां
बचे हुए पक्के रंगों ने जैसे  
कसकर पकड़ी हुई थीं छतें
और किस्सों ने महराबें  
डरकर .......
खम्भों मेहराबों पर
वास्तुशिल्पियों के हुनर के  
ध्वस्त उधड़े चहरे
जैसे झुर्रीदार त्वचा में से दिखता 
गुलाबी ताज़ा मांस
ज़मीन के चिकने फर्श में से झांकती
 इतिहास के खुरदुरेपन की टीपें गोया  
 किसी सोये मासूम बच्चे के गालों पर
सूखे आंसुओं के धब्बे
बड़ी छोटी तोपें
जिन से कभी आग के गोले बरसा करते होंगे  
उन मुहं पर दूरदर्शी मकड़ियों ने बुन दिये थे जाले
कर दिये थे उनके मुहं बंद
(ये मकड़ियाँ ,चिमगादड,दीमकें
ना हों तो कितने निरीह/अकेले हो जाएँ सन्नाटे और उनके इतिहास )
अलावा इसके एक विशाल गोलाकार कमरा
जिसका एकमात्र दरवाजा इतना छोटा कि
मुश्किल से जा सके कोई मानव उसमे
बताया गाइड ने कि ये अस्त्र ग्रह कहलाता था
जिसमे गोला बारूद और अस्त्र शस्त्र भरे जाते थे
किसी संभावित युद्ध के लिए  
साथ में ये जोड़ना भी नहीं भूला वो
कि अंग्रेजों,चीनियों,पाकिस्तानियों ने इस पर गोले बरसाए
मिसाइलें छोड़ीं,आक्रमण किये
तिलिस्म कहें अचम्भा या कारीगरी वास्तुशिल्पियों की
 इसका कुछ नहीं बिगाड़ पाए  
पर ना जाने कैसे और क्यूँ
इतना पुरानाऔर मज़बूत अस्त्र ग्रह खुद ब खुद ढहता जा रहा है
 खंडहर हो जाता हुआ
टूट टूट कर गिरते हैं इसके टुकड़े ज़मीन पर गाहे ब गाहे ,यूँ ही
जैसे शोक मनाता हो अपने अकेले छूट जाने का 
अब बेवजह बेमौसम ढह रही हैं दीवारें इस अस्त्र ग्रह की
ज़र्ज़र महराबें,टूटे झरोखे ,जंग लगे लोहे की मोटी जंजीर
और जंजीर में गुंथा एक विशालकाय बूढा ताला
जिसे अपने जंजीर में बंद होने की सदी याद नहीं
ये सब कहते हैं यही कि
अब तबाही को ज़रूरत नहीं किसी
औरंगजेब की
 नहीं है अब दरकार
 देश की आजादी हथियाने के लिए
पहले उसके भाषा और संस्कृति पर आक्रमण करने की
अब हम मशीनी युग में हैं .... 

प्यार करते हुए
जब-जब लड़के ने डूब जाना चाहा
लड़की उसे उबार लाई।
जब-जब लड़के ने खो जाना चाहा प्यार में
लड़की ने उसे नयी पहचान दी।
लड़के ने कहा, “प्यार करते हुए अभी इसी वक्त
मर जाना चाहता हूँ मैं तुम्हारी बाहों में”
लड़की बोली, “देखो तो ज़िंदगी कितनी खूबसूरत है,
और वो तुम्हारी ही तो नहीं, मेरी भी है
तुम्हारे परिवार, समाज और इस विश्व की भी है।”
प्यार करते हुए
लीन हो गए दोनों एक सत्ता में
पर लड़की ने बचाए रखा अपना अस्तित्व
ताकि लड़के का वजूद बना रह सके ।
लड़का कहता ‘प्यार समर्पण है एक-दूसरे में
अपने-अपने स्वत्व का’   
लड़की कहती ‘प्यार मिलन है दो स्वतन्त्र सत्ताओं का
अपने-अपने स्वत्व को बचाए रखते हुए ‘
प्यार करते हुए
लड़का सो गया गहरी नींद में देखने सुन्दर सपने
लड़की जागकर उसे हवा करती रही।
लड़के ने टूटकर चाहा लड़की को
लड़की ने भी टूटकर प्यार किया उसे
प्यार करते हुए
लड़के ने जी ली पूरी ज़िंदगी
और लड़की ने मौत के डर को जीत लिया।                    
लड़का खुश है आज अपनी ज़िंदगी में
लड़की पूरे ब्रम्हाण्ड में फैल गयी।


शतरंज का खेल 
भले न आता हो तुम्हें...
लेकिन शब्दों से शतरंज 
तुम बखूबी खेल लेते हो ,
और सामने वाले को 
सीधे-सीधे मात भी दे देते हो ...!
न जाने कैसे जान जाते हो तुम 
कि कौन सा शब्द चलने से 
कौन धराशायी हो जायेगा....!
और यदि इतने पर भी न हुआ 
तो तुम्हारे पास और भी चालें हैं...!
हर जिंदगी में भावनाओं की,
संवेदनाओं की,धन की अहमियत से भी 
अनभिज्ञ नहीं हो तुम....! 
अपनी चालों में इनका इस्तेमाल 
तुम बखूबी कर लेते हो....!
और सामने वाले को....
इसका पता भी नहीं चल पाता !
लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं 
जिन्हें तुम्हारी इन चालों का भान है !
उनके लिए जीवन की 
छोटी छोटी बातें,
छोटी-छोटो सच्चाइयाँ ही 
जीने के लिए मायने देती हैं !
बड़ी बड़ी बातों की ये चालें 
भले ही तुम्हारे मन को संतोष दे दें,
तुम्हारे अहं को..... 
जीत के एहसास से भर दें...!
लेकिन तुम भी ये 
अच्छी तरह जानते हो
कि तुम्हारे खेलने की प्रवत्ति का 
उन्हें भी आभास है.......!
इसलिए उन लोगों के सामने तुम 
हमेशा छोटे ही नज़र आओगे
क्यूँ कि.....
वो तुम्हें जानते हुए भी
तुम्हारी इन चालों से 
खुद को तुम्हारे सामने 
हारा हुआ दिखाते हैं...!!

7 टिप्पणियाँ:

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

सभी रचनाएँ अच्छी हैं. जवाहर चौधरी जी की लेख प्रासंगिक है ,कमसे कम बुद्धि जीवियों को चाहिए कि थोथी रिवाजों से अपने को मुक्त करें.

शिवम् मिश्रा ने कहा…

आपकी लगन को सलाम ... आभार रश्मि दीदी !

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

शतरंज का खेल
भले न आता हो तुम्हें...
लेकिन शब्दों से शतरंज
तुम बखूबी खेल लेते हो ,
सार्थक लेखन !!
आपके चुने लिंक्स बहुत ही सुन्दर हैं !!
शुभकामनायें !!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुत प्रभावी ... सभी रचनाओं का संकलन कमाल है ...

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

badhiya sankalan aur tippni bhi...

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

सुन्दर संकलन....
सभी रचनाएँ सुन्दर..
आभार दी
अनु

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

अच्छे लिंक्स
अच्छी रचनाएं

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