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शनिवार, 1 सितंबर 2012

पोलीटिकल गणेशोत्सव... ब्लॉग बुलेटिन

आज कल मुम्बई में गणपति मंडलों की धूम है, जगह जगह गणपति और लक्ष्मी की मूर्तियां मिल रही हैं और बाज़ार सजे हुए हैं। इस रौनक के बारे में क्या कहें, अरे भाई सिद्धि-विनायक गणपति की तैयारी तो होनी ही चाहिए... 

अब चलिए आपको इसके पीछें की कुछ सच्चाईयों से रूबरू कराते हैं... मुम्बई और महाराष्ट्र में होनें वाले लगभग हर गणपति मंडल के पीछे कोई न कोई राजनीतिक दल या व्यक्ति है। यह राजनीतिक रूप से अपनें दल-बल को दिखानें का एक ज़रिया बन गया है। कोई भी सार्वजनिक गणेश मंडल के बैनर को देखिए.. वह किसी न किसी राजनीतिक व्यक्ति या दल या समूह का ही होगा... और कोई भी सार्वजनिक मंडल असल में जनता द्वारा चलाया नहीं है। 

आज मन हुआ अपनें इलाके में हो रहे गणेश मंडलों की जानकारी ली जाए, यदि हम कुछ योगदान दें सकें तो अच्छा हो.. लेकिन जब हमें इस ज़मीनी हकीकत से रूबरू होना पडा तो फ़िर हमनें अपने पैर पीछे खीच लिए... श्रद्धा अपनी जगह है लेकिन गणपति का राजनीतिकरण मुझे पसन्द नहीं आया और मैनें घर की तरफ़ वापसी कर ली। वाकई मन में तो आया की हर उस गणपति मंडल का बहिष्कार कर दिया जाए जो किसी राजनीतिक दल द्वारा चलाया जा रहा हो... हद तो तब हुई जब हमसे चन्दे के रूप में एक अच्छी खासी रकम की डिमाण्ड कर दी गई... हमनें कहा यह एक राजनीतिक कार्यक्रम है और इसमें चन्दा देना मैं ज़रूरी नहीं समझता। अब यह किस राजनीतिक दल का पंडाल था या कौन प्रतिनिधि थे यह चर्चा का विषय नहीं है लेकिन गणपति का राजनीतिकरण को क्या आप सही ठहराएंगे? 

आईए एक जानकारी लें की कब और कैसे इस गणपति-उत्सव की शुरुआत हुई.. 1893 में पूज्य लोकमान्य बाल गंगाधर तिलकजी नें पहली बार सार्वजनिक गणपति मंडल की स्थापना की और उनका मक्सद सभी को एक जगह पर संगठित करनें का एक सकारात्मक प्रयास था। यह एक ऐतेहासिक प्रयास था क्योंकी ब्रिटिश राज में इस प्रकार के कार्यक्रम एक क्रान्तिकारी प्रयास ही थे।  आज़ादी मिली और मुम्बई के गणेश पंडालों पर एक एक करके राजनितिक दलों, कार्पोरेटरों, नगर सेवकों का कब्ज़ा हो गया। एक सकारात्मक प्रयास राजनीतिक वर्चस्व की लडाई बनकर रह गया। गणपति की भक्ति एक जगह पर है लेकिन अपनें अपनें वर्चस्व की लडाई में गणपति को एक ज़रिया बनाना मुझे ठीक नहीं लगा। लोकमान्य का यह एक सकारात्मक प्रयास लोगों को जोडनें वाला था... लेकिन महाराष्ट्र के तथाकथित राजनीतिक दल नकारात्मक और तोडनें वाली "राज" शाही को फ़ालो करते हैं ऐसे में इनके पंडालों को समर्थन करना और चंदा देना बिल्कुल गलत होगा। 

चलिए आज के बुलेटिन की तरफ़ चला जाए... 

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सम्मान समारोह : ब्लागिंग का ब्लैक डे !
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मित्रों आशा है आपको आज का बुलेटिन पसन्द आया होगा... चलिए कल तक के लिए देव बाबा को इज़ाजत कीजिए...

जय हिन्द

4 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

रोचक सूत्र..

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

मस्त बुलेटिन। देव बाबा जिंदाबाद

शिवम् मिश्रा ने कहा…

आज कल राजनीति तो वैसे हर जगह मिल जाती है और जब बात मुंबई जैसे महानगर और ऊपर से वहाँ के गणपति मंडलों की हो तो फिर तो राजनीति होनी ही है ! हाँ यह बात और है कि राजनीति को धर्म से दूर होना चाहिए पर अपने देश मे यह संभव नहीं !

बढ़िया बुलेटिन देव बाबू !

vandana gupta ने कहा…

बहुत सुन्दर लिंक्स संजोये हैं ………बढिया बुलेटिन

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