कामिनी सिन्हा का ब्लॉग
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" मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं हैं " बचपन से ही ये सदवाक्य सुनती आ रही हूँ। कभी किताबो के माध्यम से तो कभी अपने बुजुर्गो और ज्ञानीजनों के मुख से ये संदेश हम सभी तक पहुंचते रहे हैं। लेकिन ये पंक्ति मेरे लिए सिर्फ एक सदवाक्य ही हैं । क्योकि मैंने कभी किसी को ये कहते नहीं सुना कि "हमारा जीवन ,हमारा भाग्य जो हैं वो मेरी वजह से हैं " मैंने तो सब को यही कहते सुना हैं कि "भगवान ने हमारे भाग्य में ये दुःख दिया हैं।" हाँ ,कभी कभी जब खुद के किये किसी काम से हमारे जीवन में खुशियाँ आती हैं तो हम उसका श्रेय खुद को जरूर दे देते हैं और बड़े शान से कहते हैं कि " देखिये हमने बड़ी सोच समझकर ,समझदारी से ,अपनी पूरी मेहनत लगाकर फला काम किया हैं और आज मेरे जीवन में खुशियाँ आ गयी। " लेकिन जैसे ही जीवन में दुखो का आगमन होता हैं हम झट उसका सारा दोष ईश्वर और भाग्य को दे देते हैं। क्यूँ ? जब सुख की वजह हम खुद को मान सकते हैं तो दुखो की जिम्मेदारी हम ईश्वर पर कैसे दे सकते हैं ? हमारी समझदारी तो देखे ,ऐसे वक़्त पर अपने आप को दोषमुक्त करने के लिए हमने एक नया स्लोगन बना लिया " ईश्वर की मर्ज़ी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिल सकता। "
तो क्या ईश्वर की यही मर्जी है कि -उनकी बनाई सृष्टि इस कगार पर पहुंच जाये जहाँ हवाएं साँस लेने लायक ना हो ,उनकी फूलो से सजी रहने वाली धरती कचरे का ढ़ेर बन जाये ,उनकी सबसे सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य जाति इतने स्वार्थी और कलुषित बन जाये कि वो खुद का ही सर्वनाश कर ले ? नहीं ,मुझे तो नहीं लगता कि -ईश्वर अपनी सृष्टि के भाग्य में इतना बुरा लिखेगा। तो फिर ईश्वर हमारे भाग्य का निर्माता कैसे हो सकता हैं? धरती पर कचरे हमने फैलाये हैं ,हवाओ को प्रदूषित हमने किया हैं ,अपने आप को नीच से नीचतम हमने बनाया हैं,रोगो को आमन्त्रण हमने दिया। ये क्या बात हुई कि आप सड़क पर कूड़ा खुद फेको और ये बोलो कि दूसरे भी तो फेकते हैं ,मैं ही अकेले जिम्मेदार थोड़े ही हूँ ,जहाँ एक गाड़ी से सारे सदस्यों की जरूरत पूरी हो सकती हैं वहां सारे अलग अलग गाडी में घूम रहे हैं और हवाओ को दूषित कर रहे हैं और कहते हैं -अरे सब करते हैं ,मेरे एक के नहीं करने से क्या फर्क पड़ जायेगा ? जब इन सब कारनामो के वजह से प्रदूषण फैले तो सारा दोष दुसरो को दे दो और अपना पला झाड़ लो। आप शराब पीओ और तम्बाकू खाओ और कहो -सब खाते हैं और जब कैंसर जैसा भयानक रोग आ दबोचे तो ये रोना रोओ कि -जी भगवान ने हमारे नसीब में ये दुःख दर्द लिख दिया हैं। क्यों ?
मैं अक्सर सोचती हूँ ,हमारे वेद पुराणों में लिखे ये सदवाक्य जिसे हम अपने पूर्वजो के मुख से शदियों से सुनते आ रहे है ,वो अर्थहीन तो होंगे नहीं,उसका कोई न कोई गूढ़तम अर्थ तो हैं जिसे मैं समझ नहीं पा रही हूँ। मैंने ये भी पढ़ा और सुना हैं कि " कर्म की गति अटल हैं ,मनुष्य को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते हैं। "हमारे कर्म ही तो हमारे भाग्य बनाते हैं। " फिर विधाता का इसमें क्या कसूर ,उनकी तो कोई भूमिका नहीं हैं। ये भी कहते हैं -"बोया पेड़ बाबुल का तो आम कहाँ से पाओगे। " सच हैं हम जो बीज बोयेगे वही तो अनाज के रूप में पाएंगे। ये सारे तर्क -वितर्क हम करते हैं और फिर सारा दोष विधाता पर डाल देते हैं। मैं अक्सर खुद से सवाल करती हूँ -मैं भी एक माँ हूँ लेकिन मैंने तो कभी अपने बच्चे के लिए बुरा नहीं सोचा ,उसके भविष्य के लिए कोई बुरी बाते नहीं लिखी। जब एक मनुष्यरुपी माँ अपने बच्चे के लिए बुरा नहीं सोच सकती तो परमात्मा जो प्यार और करुणा का सागर है वो अपने बच्चो के नसीब में इतने दुःख दर्द कैसे लिख सकता हैं ? फिर क्यों हम ईश्वर पर दोषारोपण करते हैं? क्या सचमुच ,संसार में व्याप्त इतने सारे दुःख दर्द ईश्वर की ही देन हैं ?
क्या कभी किसी ने एक पल के लिए भी ये सोचा, इन सारे कर्मो के लिए कही न कही हम भी जिम्मेदार है? एक पल के लिए भी ये सोचते कि दुनियाँ कुछ भी करे,परन्तु मैं इस पाप कर्म में अपनी भागीदारी नहीं दूँगा। दुनियाँ कचरा फैलती हैं तो फैलाने दे मैं अपनी घर की तरह अपने आस पास को भी साफ़ रखने की कोशिश करूँगा। दुनियाँ पटाखे जला कर वातावरण को प्रदूषित करती हैं तो करने दे, मैं नहीं करूँगा। अपने दो चार पैसे के स्वार्थ के पीछे जीवन के मुलभुत जरूरत खाने पीने के सामग्रियों को मैं दूषित नहीं करूँगा ,एक पल के लिए भी नहीं सोचते कि -इन दूषित वातावरण का असर मुझ पर और मेरे परिवार पर भी होगा ,यही दूषित भोजन हम सब भी खायेगे। तम्बाकू, गुटका और शराब जैसी जहर बनाने वाली कंपनियां मौत का ही तो कारोबार करती हैं, उन्हें ये ख्याल नहीं आता कि एक दिन ये जहर मेरे बच्चो तक भी पहुँचेगा। ये जहर बनाने वाले को तो चार पैसे की लालच हैं लेकिन ये जहर खाने वाले एक पल को भी सोचते हैं कि इसका मुझ पर और मेरे परिवार पर क्या असर होगा? बिल्ली की तर सब आँखे बंद करके बैठ जाते हैं और कहते हैं -"मैंने तो दूध ना देखा ना पीया " मेरा कोई कसूर नहीं समाज में ही गंदगी फैली हैं ,हम क्या कर सकते हैं। लेकिन समाज बनता किससे हैं ?
इन सारे तर्क वितर्क में एक बात मुझे अच्छे से समझ आ गयी कि -हम मनुष्य जाति बड़े ही समझदार हैं ,ज्ञानी से ज्ञानी और मूर्ख से मुर्ख तक को और कुछ आये ना आये अपना दामन दोषमुक्त करना और दुसरो पर दोषारोपण करना बहुत अच्छे से आता हैं। "जी , हमने कुछ नहीं किया फला व्यक्ति और परिस्थिति की वजह से मेरे जीवन में ये दुःख ये परेशानी हैं "ये शब्द रोजमर्रा के दिनचर्या में हम कितनी बार बोलते होंगे हमे खुद भी याद नहीं रहता। हम अपनी हर परिस्थिति के लिए कभी अपने रिश्तेदारों को ,कभी अपने प्रिये जनो को ,कभी समाज को ,कभी सरकार को दोषी बता खुद का पला झाड़ लेते हैं और दुखो का रोना रोते रहते हैं। दुसरो के किये कर्म हमारे भाग्य को कैसे प्रभावित कर सकता हैं?
हम सब ने ये सदवाक्य भी जरूर सुना होगा -" हम बदलेंगे युग बदलेगा ,हम सुधरेंगे युग सुधरेगा। "क्या ये सदवाक्य बेमाने थे ? मैंने देखा हैं जिस घर का मुखिया खुद सदविचारों से परिपूर्ण हैं और अपना कर्तव्य सच्चे मन से निभाता हैं उस घर का वातावरण ही अलग होता हैं। तो जब घर का एक व्यक्ति खुद का कर्म अच्छे से करता हैं तो घर स्वर्ग होता हैं, तो क्या हर एक अपना कर्म सच्चे मन से करेंगे तो समाज नहीं बदलेगा ? हमारे कर्म ही हमारा भाग्य बनता हैं तो अपने कर्मो का रोना रोये भाग्य का क्युँ ?
इन दिनों मेरा पाला देश के कुछ प्रतिष्ठित अस्पतालों के प्रतिष्ठित डॉक्टरों से पड़ा हैं। आज के दौर में शायद ही ऐसा कोई हो जो अस्पतालो और डॉक्टरों के किये करनी और उनके जुल्मो सितम का भुग्तभोगी ना हो।इसलिए उनके कुकर्मो को बया करना यकीनन जरुरी नहीं हैं। चाहे वो प्राईवेट हॉस्पिटल हो या सरकारी सब की वही दशा है। प्राईवेट वाले मरीज़ का खून और धन दोनों चूसते है और सरकारी वालो के लिए इंसानो (मरीज़ )की कद्र जानवरो से भी बत्तर हैं। कई डॉक्टरों के पारिवारिक स्थिति के बारे में जानकर मेरी आत्मा तड़प उठी और मैं एक बार फिर सोच में पड़ गई कि -क्या इन डॉक्टरों के परिवार के भाग्य में विधाता ने ये दर्द लिख दिया हैं ?
न्यूरोलॉजी स्पेस्लिस्ट लेडी डॉक्टर का बेटा 15 साल से खुद न्यूरो प्रोब्लम से पीड़ित हैं वो अपने शरीर को हिला भी नहीं सकता ,बांझपन का इलाज करने वाली डॉक्टर खुद बाँझ हैं ,हार्ट स्पेस्लिस्ट के घर हर एक की मौत हार्ट के प्रॉब्लम की वजह से हो रहा हैं। कैंसर स्पेस्लिस्ट के बच्चे कैंसर रोग से पीड़ित हैं,जो सुगर स्पेस्लिस्ट डॉक्टर हैं वो खुद सुगर से इस तरह ग्रसित हैं कि बिना इन्सुलिन के चल ही नहीं सकता। कितने लोगो की गाथा सुनाऊँ ,एक नहीं कई देखी हूँ। शायद आप भी किसी डॉक्टर से परिचित होंगे तो आप भी जानते होंगे कि उनके घर में हर सदस्य मरीज़ हैं।
आखिर ऐसा क्युँ हैं ?क्या इन डॉक्टरों ने कभी अपना आत्ममंथन किया होगा कि शायद हमने अपना कर्तव्य सही से नहीं निभाया और मेरे कर्मो से दुःखीजनों ने मुझे बदुआएँ दी होगी जिसका परिणाम हम भुगत रहे हैं ? यकीनन नहीं ,क्योकि अपने आप को बचने के लिए उनके पास एक और सदवाक्य हैं न -" विधाता के लिखे को कोई नहीं बदल सकता "
क्या सचमुच, हमारे भाग्य का विधाता ईश्वर ही हैं ?
11 टिप्पणियाँ:
बहुत सुंदर लेख। बधाई कामिनी जी।
तभी तो कर्मफल जैसी बातें थी ताकि लोग इस विश्वास के भय से बुरे कर्मों से बचें कि जैसा कर्म करेंगे वैसा फल पायेंगे परन्तु आज तो मनुष्य स्वयं भगवान बन पड़ा है....बहुत ही चिन्तनपरक लेख लिखा है आपने कामिनी जी !
अनन्त शुभकामनाएं आपको।
ब्लॉग बुलेटिन की बात ही कुछ अलग है
प्रिय कामिनी, ब्लॉग बुलेटिंन की इस विशेष प्रस्तुति में तुम्हारी रचना पाकर मन आहलादित् है सखी। अपने मौलिक विचारों के साथ तुमने जो अपनी पहचान बनाई है, उसे धीरे धीरे विस्तार मिल रहा है और तुम्हारी इन उपलब्धियों को देखकर मुझे कितनी खुशी है , मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकती । तुम यूँ ही नित सफलता के नये शिखर छूती हुई आगे बढती रहो मेरी यही दुआ है।
ब्लॉग बुलेटिंन को हार्दिक आभार और शुक्रिया इस सार्थक प्रस्तुती के लिए 🙏🙏🙏
प्रिय कामिनी, तुम्हारे इसी लेख पर मेरे विचार, यहाँ डाल रही हूँ
प्रिय कामिनी --तुम्हारा लेख और तुम्हारे तर्क पढ़कर मुझे बहुत ही गर्व हुआ कि तुमने बहुत ही सशक्त ढंग से अपनी बात लिखी है | तुम जो कहना चाहती हो वो बहुत महत्वपूर्ण है | सचमुच अपनी आत्ममुग्धता में खोये हम कितने स्वार्थी और नितांत एकाकी हो गये हैं | हमें ये भी नहीं पता एक चीज खरीदे दस फेंकें,के चक्कर में दुनिया कितनी मलिन हो चली है ।सच है ये तो ईश्वर ने नहीं कहा था कि हम अपनी जरूरते इतनी बढ़ा लें कि कचरे का ढेर नहीं, पर्वत ही खड़े हो जाएँ | उसने नहीं कहा था कि गांवों की शांत जिन्दगी को छोड़ हम कंक्रीट के जगंलों का हिस्सा हो जाएँ |उसने नहीं कहा था कि रोजगार और अपने बीवी बच्चों के मोह में खोकर अपने बिलखते माँ बाप को छोड़ जाएँ | फिर उसी मुंह से रोते फिरें बच्चे हमें छोड़ गए या हमारे साथ रहना नहीं चाहते |और खुदाई के दुसरे खुदा कहे जाने वाले डॉक्टरों के अनुभव बहुत मायूसी भरे हैं | इसका कारण भी ये कि सीधे मानवीयता से भरा ये पेशा और इसकी पढाई बहुत ही मंहगी है | जरूरत लाखों की है पर डॉक्टर कहीं कम हैं ,उनमें से आधे लाखों का डोनेशन देकर डॉक्टर बने हैं उनसे निस्वार्थ भावना की उमीद कैसे की जा सकती है ? और अपनी जीवन में उलटे पुल्टे एब अपनाकर खुद को और अपने अपनों को मुसीबत में धकेलकर उसके लिए भगवान् को दोष दे सचमुच बहुत अतार्किक बात है | बहुत कुछ सीखा गया तुम्हारा लेख | बहुत आभार और यूँ शुभकामनायें |
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कामिनी जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
कामिनी की सक्षम लेखनी समाजिक समस्याओं और मनुष्य के मन की सहज प्रश्नों का सरल निचोड़ लिखती है।
इनका विस्तृत लोककल्याणकारी दृष्टिकोण पाठकों को सार्थक विमर्श प्रदान करता है। जीवन के प्रति सकारात्मकता खासकर बेहद प्रभावित करता है।
बेहतरीन चयन रश्मि जी।
आदरणीय रश्मि जी ,क्षमा चाहती हूँ आपने ब्लॉग का जो लिंक दिया था वो खुल ही नहीं रहा हैं ,अतः मैं ब्लॉग पर उपस्थित नहीं हो पाई और हमें पता ही नहीं चला कि -आपने मेरे ब्लॉग की रचना को " ब्लॉग बुलेटिन "जैसे सम्मानित मंच पर स्थान दिया हैं। इसलिए आपका धन्यवाद भी नहीं कर पाई। वो तो आभार सखी रेणु का जिन्होंने ने मुझे सूचित किया वरना मुझे तो पता ही नहीं चलता। मैं दिल से आपकी आभारी हूँ जो आपने अपने मंच पर मुझे स्थान दिया ,सहृदय धन्यवाद एवं सादर नमस्कार
सभी सहयोगी मित्रो का भी तहे दिल से शुक्रिया ,मुझे इस मुकाम तक पहुँचने आप सभी का बहुत बड़ा योग्यदान हैं ,सादर नमस्कार आप सभी को।
बहुत सुंदर आलेख सखी। हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं 💐💐
बेहतरीन रचना सखी, समसामयिक समस्याओं
का यथार्थ परक चिंतन।अपनी गलती को सहज स्वीकार्य करना मनुष्य ने सीखा ही नहीं
बस दोषारोपण करके काम चला लिया।फिर चाहे वह परमात्मा हो या माता-पिता या शिक्षक।अपने कर्म का आकलन उसने किया ही नहीं।
आपका सशक्त लेखन सदैव जागरूक करने वाला होता है । ब्लॉग बुलेटिन के पटल पर आपका चिन्तनपरक लेख पुनः पढ़ कर बहुत अच्छा लगा ।
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