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गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015

राजनैतिक प्रवक्ता बनते जा रहे हैं हम - ब्लॉग बुलेटिन

नमस्कार साथियो,
विवादों भरे माहौल में एक और बुलेटिन के साथ उपस्थित हैं. समझ नहीं आ रहा है कि हम सब किस दिशा में जा रहे हैं? किस तरह का समाज बनाना चाहते हैं? देश, काल, परिस्थितियों के चलते हम सब हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन आदि-आदि धर्मावलम्बी के रूप में पहले से ही पहचाने जा रहे थे, पर अब लगने लगा है जैसे राजनैतिक दलों के प्रवक्ताओं के रूप में भी पहचान धारण करने लगे हैं. किसी भी धर्म, मजहब का होने के बाद भी हम इंसानियत को बनाये हुए थे, अपने इंसान को जीवित बनाये हुए थे मगर शनैः-शनैः इस पहचान को हम पीछे छोड़ते जा रहे हैं. देश में कोई भी घटना घटती है और हम सब अपने आपको अलग-अलग राजनैतिक खाँचों में बाँटकर उस पर चर्चा करना शुरू कर देते हैं. कभी किसी के बयान पर, कभी किसी कार्यक्रम पर, कभी किसी की गिरफ़्तारी पर, कभी किसी हादसे पर. ऐसा लगता है जैसे कि सब कुछ किसी न किसी राजनीति के तहत किया जा रहा है, ऐसा लगने लगता है जैसे किसी सम्बंधित घटना पर हम बयान नहीं देंगे तो देश को वास्तविकता पता ही नहीं चलेगी. इस चक्कर में कई बार हम आपसी संबंधों में खटास पैदा कर ले रहे हैं. आपसी रिश्तों में नकारात्मकता भर ले रहे हैं.

हम सभी को वास्तविकता को पहचानना होगा, राजनीति करने वालों की मंशा को पहचानना होगा. राष्ट्रीय स्तर पर जो लोग सत्तासीन होने के लिए आपस में कटुतापूर्ण बयानबाजियाँ करते दिखते हैं वे आपस में गलबहियाँ करते भी नजर आते हैं. एक-दूसरे को देख लेने के स्तर तक की धमकी देने वाले बड़े आदर के साथ उन्हें अपने घर-परिवार के शादी-समारोहों में बुलाते देखे जाते हैं. लगातार बुराई करते रहने वाले भी अपने विरोधी के साथ गठबंधन कर सत्ता-सुख उठाने से भी नहीं चूकते हैं. यदि हम इन राजनैतिक दलों के प्रवक्ता बने रहने का दम्भ भरते हैं तो इन्हीं की हरकतों से कुछ सीखते क्यों नहीं? क्यों अपने विरोध को विचारों तक ही सीमित नहीं रख पाते? क्यों आपस में सिर्फ मतभेद ही नहीं रख पाते? क्यों उन्हें मनभेद तक ले आते हैं? क्यों वैचारिक विभेद के चलते रिश्तों को बिगाड़ लेते हैं?

चलिए, विचार करियेगा इस पर और साथ में विचार करियेगा आज की बुलेटिन पर. देश में ऐसा बहुत कुछ चल रहा है जो विचारणीय है.

आभार सहित आज की बुलेटिन...

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6 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सब जानते हैं अपने अपने रास्ते
अपने ही रास्तों पर जा रहे हैं
बचे बेवकूफ हैं कुछ हम जैसे
उन आने जाने वालों के
आने जाने के रास्तों को
देखने समझने में
अपना समय घड़ी में
बजाये जा रहे हैं :)

बहुत सुंदर प्रस्तुति ।

Vikram Pratap Singh ने कहा…

बढ़िया लिखा आपने।

कबीर कुटी - कमलेश कुमार दीवान ने कहा…

achcha prayaas hai dhanyabad

Jyoti Dehliwal ने कहा…

सही कहा आपने... हमें राजनीतिक दलों के उकसाने पर भी आपस में मनमुटाव नही करना चाहिए। तभी हम देशवासी खुश रह सकते है। विचारनिय आलेख...

कविता रावत ने कहा…

सच है राजनीति करने वालों आपसी सौहार्द बनाये रखने के नाम पर बेवजह की लम्बी लम्बी बहस करते नज़र आते हैं ..एक दूसरे को कच्चा चबा डालने जैसी हरकत करने वाले असल जिंदगी में एक दूसरे के सगे होते है .. आम जनता जो नहीं देख पाती है, उसे देख समझ लेना चाहिए और मौेके पर उन्हें सबक सिखा देने में पीछे नहीं हटना चाहिए ... .......खैर जागरूक प्रस्तुति के साथ सार्थक बुलेटिन प्रस्तुति हेतु आभार ... .

शिवम् मिश्रा ने कहा…

सार्थक बुलेटिन प्रस्तुति राजा साहब ... आपकी कलम यूं चलती रहे |

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