अच्छा लगता है पेड़ों से
भागती हवाओं से बातें करना
उन्हें गीत सुनाना
यूँ लगता है कोई अपना है !
वह अपना
जिसके साथ सबकुछ खुला खुला सा है
न किसी बात से परहेज
न कोई रुकावट
बिना सीखे न जाने कितने गीत
होठों से गुजर जाते हैं
…
अच्छा लगता है
बचपन के बागीचे में दौड़ना
रंगबिरंगी तितलियाँ पकड़ना
रजनीगंधा से उसकी खुशबू का राज जानना
हरसिंगार को हथेलियों में भरकर
उसकी विनम्रता से एकाकार होना
…
अच्छा लगता है जब कोई लिखता है, कोई पढता है … जिन्हें भूल गए हो उनको मैं लेकर आई हूँ,
ये वही जगह है दोस्तों, जहाँ हम पढ़ते थे, फिर किसी को सुनाते थे … अगली रचना का इंतज़ार करते थे। लिखकर भूल जाना भला कोई बात हुई !!!
6 टिप्पणियाँ:
अपने आपसे एकाकार होना ही हम भूल चुके हैं,
बचपन को याद करना भूल चुके हैं...
++
लिंक के सहारे शेष पोस्ट अभी पढ़ी जाएँगी... कविता मन को भा गई.. :)
सुन्दर प्रस्तुति
डर भी पनपने लगा है
कहीं पेड़ पौंधों हवा को
भी ना भा जाये वो सब
जो चल रहा है बाहर और अंदर ।
सुंदर प्रस्तुति ।
बहुत बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति
आभार!
यह सिलसिला चलता रहे ... :)
सुंदर प्रस्तुति ...
Sarahneey prastuti.....
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