प्रिये ब्लॉगर मित्रगण नमस्कार,
आज़ादी और सहनशीलता
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--- तुषार राज रस्तोगी ---
आज की कड़ियाँ
स्वतन्त्रता दिवस पर - अनीता
अब भड़कना चाहिए था पर शरारे मौन हैं - चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’
पहला प्यार - राज चौहान - प्रस्तुतकर्ता संजय भास्कर
एक ग़ज़ल - ऋता शेखर 'मधु'
मसान से उपजा हुआ दुख - अनु सिंह चौधरी
उसे हम बोल क्या बोलें - मदन मोहन सक्सेना
लीक से हटकर - वीरेन्द्र कुमार शर्मा
मेरी खामोश सी खामोशी - निवेदिता श्रीवास्तव
शापित फसल - सागर
बंजारा - कैलाश शर्मा
शायद तुम लौट आओ - प्रीती सुराना
आज के लिए इतना ही अगले सप्ताह फिर मुलाक़ात होगी तब तक के लिए - सायोनारा
नमन और आभार
धन्यवाद्
तुषार राज रस्तोगी
जय बजरंगबली महाराज | हर हर महादेव शंभू | जय श्री राम
सर्वप्रथम सभी मित्रों को, कल आने वाले स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। आज की बुलेटिन में एक कहानी लेकर आया हूँ उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएगी और इस पर आप सभी की प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं। कहानी का शीर्षक है :
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एक समय की बात है किसी राज्य में एक भिक्षु रहा करते थे। घर घर जाकर भिक्षा ग्रहण करते और उसी से अपनी गुज़र बसर करते। जितनी भी भिक्षा उन्हें मिल जाया करती उसी में संतोष कर अपना भरण पोषण कर लेते। एक दिन सुबह सुबह भिक्षा के लिए उन्होंने एक घर का दरवाज़ा खटखटाया तो पाया की घर की मालकिन किसी पर आग-बबूला हो रही थी और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लम-चिल्ली करने में लगी थी। उसका पारा इतना चढ़ा हुआ था की अनाप-शनाप बोले जा रही थी।
घर के द्वार पर खड़े होकर उन्होंने गुहार लगाई, "माई भिक्षु आया है, कुछ अन्न प्रदान कीजिये।"
औरत उस समय अपना चौका पोत रही थी और गुस्से में बड़बड़ा रही थी। उसे भिक्षु की आवाज़ सुनकर और ज्यादा गुस्सा आ गया की सुबह-सुबह कौन भिखारी आ गया दिमाग खाने। वह गुस्से से उठी और आव देखा ना ताव, झटके से दरवाज़ा खोला और उसके हाथ में जो चौका लगाने का पोतना था भिक्षु के चेहरे पर दे मारा।
भिक्षु भी बिलकुल शांत रहा, ज़रा भी नाराज़ ना हुआ, उसने उस गोबर से सने गंदे कपड़े को अपने कमंडल में रख लिया और पास ही नदी पर स्नान करने के लिए प्रस्थान कर गए। नदी पर उन्होंने उस कपड़े को ख़ूब अच्छे से धोया। जब कपड़ा साफ़ दिखाई पड़ने लगा तब उसे धुप में सुखाने के लिए पेड़ पर टांग दिया और स्नान करके अपनी कुटिया पर लौट आए।
संध्या में जब भगवान् का दिया जलाया और आरती का समय हुआ तब उसी पोतना की बत्तियां बनाई। आरती करते समय प्रभु से हाथ जोड़ प्रार्थना की, कि जिस प्रकार यह बत्ती जलकर प्रकाश देते हुए मेरी कुटिया को अन्धकार से आज़ाद कर रही है, उसी प्रकार बेचारी उस महिला का ह्रदय क्रोध के अँधेरे से मुक्त होकर सुमति और सहनशीलता के प्रकाश से रौशन हो जाए।
--- तुषार राज रस्तोगी ---
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स्वतन्त्रता दिवस पर - अनीता
अब भड़कना चाहिए था पर शरारे मौन हैं - चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’
पहला प्यार - राज चौहान - प्रस्तुतकर्ता संजय भास्कर
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मसान से उपजा हुआ दुख - अनु सिंह चौधरी
उसे हम बोल क्या बोलें - मदन मोहन सक्सेना
लीक से हटकर - वीरेन्द्र कुमार शर्मा
मेरी खामोश सी खामोशी - निवेदिता श्रीवास्तव
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शायद तुम लौट आओ - प्रीती सुराना
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6 टिप्पणियाँ:
Azadi mahotsva mubarak ho Tushar ji.Kahani bahut acchhi hai
सुंदर संयोजन अच्छी कहानी ।
रोचक कहानी...बहुत सुन्दर बुलेटिन...
सुंदर संयोजन, सुन्दर बुलेटिन...BAHUT HI SAAGARBHIT SASHAKT KAHAANI LAAYAA HAI BLAAG BULETIN BADHAAI YAUME AAZAADI KEE
बोध देती कथा...आभार ! स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं !
सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें |
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