ब्लॉग बुलेटिन का ख़ास संस्करण -
अवलोकन २०१३ ...
कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !
तो लीजिये पेश है अवलोकन २०१३ का ३१ वाँ भाग ...
डुबकियां सिन्धुमें गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खालीहाथ लौटकर आता है,
मिलते न सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दूना विश्वास इसी हैरानी में,
मुट्ठी उसकी खाली हरबार नहीं होती,
कोशिश करनें वालों की कभी हार नही होती। (बच्चन)
मिलते न सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दूना विश्वास इसी हैरानी में,
मुट्ठी उसकी खाली हरबार नहीं होती,
कोशिश करनें वालों की कभी हार नही होती। (बच्चन)
Madhukar's Musings: एक मैं..और बहुत सी परछाईयां हैं
(मधुकर)
एक मैं
और बहुत सी परछाईयां हैं
कुछ पुरानी, कुछ नयी परछाईयां हैं ..
और कुछ सहमे हुए से
बादलों की सेज पर
स्वप्न जैसी ये कई परछाईयां हैं
... आज जब गंतव्य में हूँ
खो गया जो सूर्य पश्चिम में पिघलता
याद करता हूँ ..
बहुत परछाईयां थीं, बहुत परछाईयां हैं
खो गयीं कुछ,
कुछ अभी भी ढूंढती रहतीं हैं
मुझको
ढूंढता रहता हूँ मैं उनमे अपने आप को
कुछ पुरानी, कुछ नयी परछाईयां हैं ..
ग़ज़लगंगा.dg: वो अपने आठ पहर में से दोपहर ही दे
(--देवेंद्र गौतम)
हवा के दोश पे उड़ता हुआ शरर ही दे.
वो कुछ न दे तो तमाजत का इक सफर ही दे
वो मौज दे नहीं सकता, न दे, भंवर ही दे.
करीब आके ये किस्सा तमाम कर ही दे.
न अपना हाल बताये, न मेरा हाल सुने
न अपने ठौर ठिकाने की कुछ खबर ही दे.
मेरे रुके हुए कदमों का वास्ता है तुझे
जहां पे लोग भटकते हैं वो डगर ही दे.
मैं पूरे दिन पे कभी हक नहीं जताउंगा
वो अपने आठ पहर में से दोपहर ही दे.
मेरी उमीद का गुलशन उजड़ नहीं पाये
हरेक बीज के अंदर कोई शजर ही दे.
अब उसकी सल्तनत में सर कहां छुपाये हम
हमें न रहने दे फुटपाथ पे न घर ही दे.
मैं उससे चांद सितारे तो नहीं मांगूंगा
बस एक बार इनायत भरी नजर ही दे.
(सुरभि सोनम)
यहाँ कहते हैं
कि सब चलता है ।
श्वेत जामा ओढ़े है विनाश,
भू बिछी है निर्दोषों की लाश,
अश्रु-क्रंदन में बहे उल्लास,
ढेर हुआ बेबस विश्वास,
न्याय बना मूरत है
कबसे मना रहा अवकाश,
मगर सब चलता है ।
यहाँ कहते हैं
कि सब चलता है ।
सूख रहा निर्झर का पानी
मलिन है हाय! निरीह जवानी
तोड़ते हैं सब रीढ़ शरों के
रिसता है बस लहू करों से
हर क्षण हर पल बिखर रही है
व्याकुल उर की हर आस,
मगर सब चलता है ।
यहाँ कहते हैं
कि सब चलता है ।
क्षुद्र क्लेश, है बंटता देश
पुरखों का खंडित अवशेष
उड़ गयी चिड़िया स्वर्ण पंख की
कटु ध्वनि बजती है शंख की
मोल भाव में पतित हुआ है
गौरवान्वित इतिहास,
मगर सब चलता है ।
यहाँ कहते हैं
कि सब चलता है ।
चिर होता यहाँ चीर-हरण अब
धर्म भी सोता करवट ले तब
गांधारी बन पट्टी बाँध कर
अज्ञानी का स्वांग रचाकर
लुटने देते घर को अपने
कह कर हरि का रास,
मगर सब चलता है ।
यहाँ कहते हैं
कि सब चलता है ।
वायु-संग बहता विध्वंश
क्षोभित है हर अंश-अंश
निष्ठा का होता लुप्त वंश
विष फैलाता छल-कपट-दंश
निसहाय बड़गद, नोच उसे
सब क्षीण करते हैं विकास,
मगर सब चलता है ।
यहाँ कहते हैं
कि सब चलता है ।
चाहे जो हो, जैसा भी ढंग हो
श्वेत श्याम या जो भी रंग हो
हर कुछ है वहाँ स्वीकृत जन को
आत्म-केन्द्रित जहाँ हर जीवन हो
होता है ऐसे स्थानों पर
केवल दासों का वास,
क्यूंकि सब चलता है ।
यहाँ कहते हैं
कि सब चलता है ।
(चंद्रभूषण)
बिजली के मोटे तार जैसी किसी चीज से बंधे हुए
पैरों की आजादी इतनी कि एक बार में एक ही फुट चल सकूं
और हाथों में पड़े हुए मोटे-मोटे चुल्ले
जैसे आगे कभी हथकड़ियां पहनाने के लिए
इन्हें यूं ही डाल कर छोड़ दिया गया हो
न जाने कितनी नींदें मैंने इसी तरह पार की हैं
अपने ही शहर में भटकते हुए रास्ता खोजते हुए
रात गुजर जाती है हर बार हर बार
कल रात की बात मगर कुछ और थी
तीसरे तल्ले पर किसी मीटिंग में जाना था
जबकि सीढ़ियां बीच-बीच में टूटी हुई थीं
दो-दो तीन-तीन पायदान एक साथ ढहे हुए
मैं कहीं से भागा नहीं था कि छिपने की जरूरत हो
वहीं का था और लोग मुझे अच्छी तरह जानते थे
लेकिन बंधा होना ही यहां सबके लिए मेरी पहचान थी
बाकी तो क्या खुद भी खुद को उसी तरह जानता था
जैसा कि इस वक्त मैं था
पता था कि बंधे पांवों और खड़खड़ हाथों से ही
यहां सब कुछ करना है
यह सब इतना सामान्य था कि मेरी कूदफांद देखकर
न कोई दुखी था न हंस रहा था
न मदद या दिलासा देने के लिए आगे आ रहा था
पता था कि सारी कोशिशों के बाद भी मीटिंग में पहुंच नहीं पाऊंगा
और मेरी गैरमौजूदगी में ही मेरे बारे में फैसला सुना दिया जाएगा
फिर भी पूरी रात सीढ़ियां चढ़ता रहा
सोचता हुआ कि रात बीत जाएगी और दिन गुजर जाएगा
तो अगली रात फिर शुरू करूंगा
और कोई तो रात कभी ऐसी भी आएगी
जब सही इमारत खोजकर उसमें घुस जाऊंगा
और सीढ़ियां चाहे जैसी भी हों उनपर चढ़ता चला जाऊंगा
और ऐन वक्त पर मीटिंग में पहुंच कर सारा किस्सा साफ कर दूंगा-
बस एक बार ऐसा हो जाए फिर फैसले की किसे पड़ी है
8 टिप्पणियाँ:
लाजवाब रचनाएं ...
बहुत बढियां..
अपने समापन के नजदीक होने के बावजूद भी अवलोकन की धार मे कोई कमी नहीं ... यह सब आप के चयन के पैनेपन के कारण ही संभव हुआ है |
३१ वाँ भाग ...
यानि लम्बा महीना पूरा हो गया
आप के कार्य को सलाम
वाह बहुत सुंदर :)
बहुत सुन्दर...
उत्कृष्ट रचनायें
उत्कृष्ठ
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