एकलव्य चाहता तो विरोध कर सकता था , पर गुरु के प्रति उसकी निष्ठा , गुरु के सम्मान के आगे उसे अपना अंगूठा भी कम मूल्यवान लगा ....
यूँ भी जब ईश्वर कुछ मांगता है तो उसके पीछे अगली क्षमताओं का वेग होता है . लहरों पर बेख़ौफ़ वही तैरता है , जिसे लहरों के हवाले कर दिया
जाए और वही तैराक अहम् विहीन होता है .
पर एकलव्य हार मान ले तो ईश्वर फूट फूटकर रोता है . ऐसा ही एक एकलव्य ब्लॉग की दुनिया में मुझे मिला - पियूष . अपने पन्ने पर
http://mera-panna.blogspot.in/ इन्होंने अपना मन , अपनी कल्पना शक्ति , अपनी क्षमताओं को बड़े मनोयोग से उतारा है , पर
कहते हैं कि बस यही है खासियत कि कुछ नहीं है ख़ास मुझमें ...
पढकर मुझे लगा - सच है , हीरा कोयले की ढेर में छुप जाता है , नहीं कहता चीखकर कि मैं बेशकीमती हीरा हूँ , पर जौहरी के
हाथ से गुजरकर इसी हीरे के लिए दुनिया कहती है - हीरा है सदा के लिए !
2007 से अपने पन्ने को पियूष मिश्रा ने एक आकार दिया , कल्पनाओं की तुलिका से इसे सजाया , सत्य का कंदील जलाया -
"एक पल ने उठाई नज़रें और एक साल तखलीक हुआ
एक बरस ख़त्म नहीं हुआ बस तकमील हुआ ...
नए साल में मगर कदम कुछ संभल कर रखना
सुनते हैं बीते बरस क़दमों के निशान ढूंढ लेते हैं ! " इसे कहते हैं जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि .... कवि की उम्र कहाँ मायने रखती है उस पहुँच के लिए , वह तो सूरज को मुट्ठी में लिए चलता है , फुटपाथों पर सोयी ज़िन्दगी के सिरहाने चाँद रखता है
और एक सपना , जिसके टूटने के दर्द से खुद मोम की तरह पिघलता रहता है ...पिघलता कवि एक मुट्ठी सपना दे जाए
तो उसे एकलव्य ही कहेंगे न !
Nishan http://mera-panna.blogspot.in/2007/02/nishan.html में कवि की नज़र और उसकी सोच अपने
पुख्ता निशां छोडती है -
"चलते -चलते ...
मैं उस मोड पर आ गया
जहाँ नए शहर की
सरहद शुरू होती थी
पलट कर देखा ..
बड़ी उम्मीद से -
आखिरी बार !
तुम्हें ना आना था ...
ना तुम आए .
रोज़ की तरह
चाँद का टुकड़ा
निगल लिया
आँखों से
और
फिर चल दिया .....
आज
सैकड़ों सालों की
तन्हाई के बाद
अपनी खिड़की पर खड़ा
यह सोचता हूँ -
ज़िन्दगी अब तक नहीं आयी
मैंने क़दमों के निशान तो छोड़े थे !"
...................... पढ़ते हुए उसी खिड़की पर मैंने नज़र डाला तो देखा , कवि के पन्नों पर चांदनी फैली हुई है , पर कवि जाने
किन आहटों में उनसे बेज़ार है ! जिस निशां को हम अपनी आशा से बनाते हैं , उसे वही देखता है , जिसे उसकी क़द्र होती है .... वक़्त क्यूँ गंवाना ,
चाँद भी तो उदास होगा न !
http://mera-panna.blogspot.in/2007/03/darr.html इसमें कवि ने परोक्ष अपरोक्ष , संभावना ... इसका फर्क खुद बताया है . उसकी सोच के
कैनवस पर जो छवि है , उससे वह सर्वथा भिन्न है , तभी तो कहता है कवि -
" ना जाने कब से
ऐसा कर रहा हूँ
जो हूँ वही होने से
डर रहा हूँ
ना जाने कौन सी बात से
मैं परेशान हूँ
कुछ दिनों से
ख़ुद से अनजान हूँ
सारी दुनिया के आगे
मैं अड़ा हुआ हूँ
ये बस मैं जानता हूँ
कितना डरा हुआ हूँ "
Triveni on Armaan कब कौन से एहसास हमसफ़र बन जाते हैं .... कौन जानता है ! हम जैसा चाहते हैं , उससे परे का
सत्य कितना चुभता है -
" ज़मीन चुभती थी जब
आसमान का अरमान था
....
सितारे चुभते हैं अब "
पर एकलव्य के कांटे द्रोणाचार्य ही निकालते हैं , यह विश्वास भी अंगूठा देकर एकलव्य के मन में सिंचित होना चाहिए ....
समय कितना भी आगे चला आए ,होनी अपनी चाल चलती है , पर हर अनहोनी के साथ एक सीख मिलती है , और अनुभव के
हर कदम खुद में मरहम बनते हैं . आता है ख्याल कुछ यूँ -
" पराये चेहरे पर
क्या लिखा है
यह पढ़ना उतना ही आसान है
जितना मुश्किल है
अपने चेहरे पर
प्रज्ज्वलित इबारतों को
जान पाना
......
एक दरिया
उकेर सकता है
सारे चाँद -तारे -आकाश
मगर खेद है
अपनी गहराई जानने में
वो समर्थ नहीं है
ज़रा भी नहीं ".......... पर बिना समझे खुद को कहना मुमकिन भी तो नहीं .
नयी कहानी
dard (chhoti nazm) 2008 के ख़ास पन्ने हैं ....
2009 , 2010 से 2011 तक कवि के सिरहाने ख्वाब रहे , बन्द कमरे में उम्र की चंचलता से परे वह अतीत के
संग रहा ...
घटनाओं के निशान कितने गहरे होते हैं -
" हँसना-रोना,पाना-खोना
पा कर खोना, खो कर पाना
सीधे रस्ते ठोकर खाना
इन बातों का क्या मतलब है
इन बातों को भूल चुका हूँ
वीरानो में, सन्नाटों में
दर्द की अंधेरी रातों में
अपनी ज़ात को छोड़ आया हूँ
हर ज़र्रा मुझमें शामिल है
मैं ज़र्रों में डूब गया हूँ
मैं शहरों में, मैं जंगल में
पर्वत-पर्वत,सहराओं में
अपनी ही धुन में रहता हूँ
दुनिया मुझको देख रही है
मैं दुनिया से ऊब चुका हूँ " .............
अपनी इस ब्लॉग यात्रा के दरम्यान मेरे अन्दर से कवि के लिए जो भाव उमड़े उसे दुआ कहो या ख्वाहिश या
विश्वास , वह कवि को दे रही हूँ और उन क़दमों को जो नहीं जानते कि -
" जब सबकुछ वीरान होता है
तो सोच भी वीरान हो जाती है
सिसकियों के बीच बहते आंसुओं से
कोंपलें कब फुट पड़ती हैं
पता भी नहीं चलता ...
मन की दरख्तों से
फिर कोई कहता है
कुछ लिखो
कुछ बुनो
ताकि गए पंछी लौट आएँ
घोंसला फिर बना लें
शब्दों के आदान-प्रदान के कलरव से
खाली वक़्त सुवासित हो जाए "
है न कवि ?
10 टिप्पणियाँ:
रश्मि दीदी, मिश्रा जी से परिचय करानें के लिए धन्यवाद... आज पहली बार "मेरा पन्ना" देखा, बहुत अच्छा ब्लाग।
बहुत सुन्दर बुलेटिन....
दी देख आई हूँ पियूष जी का ब्लॉग.................
वाकई आप जौहरी हैं.................
हमारी शुभकामनाये पियूष जी को.
सादर.
मिश्रा जी ब्लॉग मेरा पन्ना देखा अच्छा लगा,परिचय कराने के लिए आभार
kya baat hai 'zindagi ab tak nahin aayi...kadmo ke nishan to chhore the maine...' man khush kar diya
पीयूष को जाना था था आपकी पोस्ट से ही...
भावुकता और संवेदनशीलता इंसान की पहचान है मगर अति हर चीज की बुरी !
आपका साथ उसे हौसला देगा जरुर !
पीयूष की कवितायें गहरी संवेदना लिए होती हैं.. आपने एक नायाब हीरा खोजा है दीदी!!
आप की नज़रें किसी जौहरी से कम नहीं ... ब्लॉग जगत का कोई भी हीरा आप से छिप नहीं सकता ! आभार दीदी !
बहुत सुन्दर बुलेटिन
पीयूष का परिचय बहुत बढिया अन्दाज़ मे करवाया………आभार
परिचय का आभार, फीड हमने रख ली है।
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