सभी ब्लॉगर मित्रों को सादर वन्दे
दिल्ली से मैं खुराफ़ाती किरण आर्य अपनी खरी खरी के साथ एक बार फिर उपस्थित हूँ आप सभी के समक्ष......
प्रेम से बचा ना कोई
पहले समय में प्रेम को रोग कहा जाता था और उस से
बचने की तमाम हिदायतें भी दी जाती थी क्योकि उस रोग का इलाज हकीम लुकमान तक के पास
नहीं था |पर आज इस फेसबुक युग में प्रेम कोई रोग नहीं बल्कि
वो भवसागर है जिसमे हर कोई डुबकी लगाने को आतुर नजर आता है
जैसे बिना प्रेम किये जहां से रुखसत हुआ तो निश्चित नरक भोगना होगा, अब चाहे प्रेम की संकरी डगर पर पैर
फिसल क्यों ना जावे, लेकिन
प्रेम ना किया तो ख़ाक जिए, वैसे भी प्रेम गाता है ............ना उम्र की
सीमा हो, ना
जन्म का हो बंधन.........फेसबुक पर आये तो देखा इसी प्रेम के सिरे को पकड हर दूसरा
व्यक्ति प्रेम बांच नाम कमा रहा है, बहुत से तो कवि हो लिए स्वयं को कवि की उपाधि से
विभूषित कर, सो हम
जान गए प्रेम की महिमा न्यारी........कल फेस्बुकिया संसार में विचरते हुए एक
प्रेमी कवि से मुलाकात हुई, उन्हें देख ऐसा लगा जैसे प्रेम उनके दिल के दरीचे
पर ही धुनी रमाये बैठा है, रांझा, देवदास, फरहाद और रोमिओ सरीखे आशिक इनके सामने
पानी भरते नज़र आते है, उनके
दिल, जिगर, गुर्दे, फेफड़ो, आंत यानी शरीर के समस्त अंगों में जब
प्रेम हिलोरे है लेता तो एक प्रेम कविता प्रस्पुठित है होती, और ये उपक्रम निरंतर जारी रहता, दिन के हर पहर में प्रेम इनके समक्ष
हाथ बांधे बैठा रहता, जैसे
विनती कर रहा हो, प्रभु
कुछ तो उद्धार करो !
प्रेम साधना में लीन वो साधक लिखता केवल विशुद्ध
प्रेम.....प्रेम के सभी स्वरुप उसकी कविताओं की देन से नज़र आते...जब तब प्रेम इनके
दिल, जिगर, गुर्दे, फेफड़ो, आंत में ज्वार की भांति उठता एक नई
प्रेम कविता जन्मती मुस्कुराती इतराती अपने भाग्य पर कि हाय प्रेम के इतने बड़े
पारखी के हाथों जन्म ले धन्य हुई मैं बावरी......वो जब कहता "तुम दौड़कर आओ और
मुझे बाहों में कस लो" तो हम जैसे मूढमति जीव ये सोचकर चाहे खीसे निपोर देते
कि कौन सी सुन्दरी होगी जो करेगी दुस्साहस उनके डाइनिंग हॉल सी कमर को बाहों में
भरने का, उस
समय वो हँसते हमारी नासमझी पर, वो जानते है प्रेम नेसर्गिक है होता, और शारीरक सौन्दर्य वो तो क्षणभंगुर है, और प्रेम तो मनसागर में गोते लगा हाथ
आने वाले मोती सा होता है, तो वो अपनी गोल मटोल शारीरिक संरचना को दरकिनार
कर प्रेम को समर्पित कर देते झोंक देते अपने अस्तित्व को पूरी तरह प्रेम अग्नि में, जलने के खौफ से मुक्त उनका प्रेमी मन
हर सुन्दरी को प्रेम निमंत्रण है देता, और जो उसे स्वीकार करती उसके सामने बिछ
जाता पूरी तरह......उनका प्रेम धर्म, जाति, उंच नीच, भेदभाव से परे है, जिस प्रकार वृन्दावन की सभी गोपियाँ
कृष्ण प्रेम में बावरी हो उनकी बांसुरी की तान पर नाच उठती थी उसी प्रकार हर सुंदर
स्त्री में प्रेमिका की दिव्य आभा इन्हें दिखाई देती, और इनके अंतस में प्रेम की तीव्र लहरे
उठती और एक प्रेम कविता आह्ह्हह्ह्ह्ह जन्मती......
जन्म का उत्सव वैसे भी बहुत
वैभवपूर्ण होता है, (चाहे
पुत्र जन्म का ही सही) इनके लिए इनकी हर रचना पुत्र जन्म से कम कहाँ.......इन्हें
देख हमें लगता कबीर साहब को प्रेम का जिरा भी ज्ञान नहीं था जो वो कह गए "ढाई
आखर प्रेम का पढ़े जो पंडित होय" इन्होने चाहे प्रेम के ढाई आखर ना पढ़े हो, लेकिन इनकी प्रेम की चाशनी में डूबी
कविताएं पढ़ सुन लगता जैसे प्रेम में पीएचडी इन्होने ही की सर्वप्रथम......और इनकी
दिव्यदृष्टि उसकी क्या तारीफ करे हम साहिब अपनी धर्मपत्नी में अपनी समस्त
प्रेमिकाए दिखाई देती इन्हें साक्षात्, और अपनी धर्मपत्नी को इंगित कर अपनी
सभी प्रेमिकाओं के दिल में हौल पैदा कर देते ये कसम से, हर बावरी अपनी किस्मत पर इतराती जी भर
भरके, चाहे
आईना करता चुगली दिखाता सच, लेकिन वो आँख मूँद केवल इनकी प्रेम कविता की
नायिका के रूप में ही देखती खुद को.....तो इस प्रकार ये अपनी प्रेम कविताओं के
माध्यम से ना जाने कितने होंटो की मुस्कराहट का सबब बन जाते, अब चाहे इनके पद से आसक्त हो कुछ
सुंदरियां इन्हें घास है डालती, लेकिन उससे क्या फर्क है पड़ता जनाब ? सुन्दरियों के हाथ से घास पत्ती खाना
भी कहाँ सबको नसीब होता है ? ये उनकी महत्वाकंशाओ को उड़ान देते अब चाहे वो
उड़ान "पानी में पड़ी नमक की डली" सी ही क्यों ना हो, लेकिन जनाब उड़ान तो उड़ान होती है.....बदले
में इनका प्रेम परवान चड़ता वो अहम् बात है.......दिल का दरबार सजा पंचम सुर में ये
प्रेम साधना में लीन है सुबह शाम............
और हम इनके प्रेम के समक्ष नतमस्तक
खड़े मुस्कुरा रिये है ............किरण आर्य
एक नज़र आज के बुलेटिन पर
मेरा प्रेम
लघुव्यंग्य –सेवा
बुरे दिनों के कलैण्डरों में [कविता]- प्रदीप मिश्र
सुनाओ कोई कहानी कि रात कट जाए - ज़ैदी जाफ़र रज़ा
अंगुलिमाल / कहानी / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
लो पूरब से सूरज निकला ....
परिसंवाद : छद्म आधुनिकता
आज की बुलेटिन में बस इतना ही मिलते है फिर इत्तू से ब्रेक के बाद । तब तक के लिए शुभं।