नूपुर शांडिल्य और उनका ब्लॉग
नमस्ते namaste
कैलेंडर
सुबह से ही गहरे बादल घिरे हुए थे. सायली झटपट काम निबटा कर जल्दी घर जाना चाहती थी. इधर कुछ दिनों से झुटपुटा होने से पहले घर पहुँचने की कोशिश रहती थी उसकी. उसकी खोली तक पहुँचने के रास्ते में एक चाय की टपरी पर.. मरे कुछ आदमी आकर बैठने लगे थे एक दो महीने से ! बेहुदे कहीं के ! फालतू गाने गाना ! खी-खी हँसना घूरते हुए !
चाय वाला काका आँखों के इशारे से ही टपरी तक आने को मना कर देता था. संझा को लौटते हुए ख़ुद ही बिस्कुट जैसा छोटा-मोटा सामान दे जाता था. कहता था, "दूर ही रहना बिटिया. ये बेशरम मुझे कुछ ठीक नहीं लगते. औरतों के बारे में बेकार बातें करते हैं."
उस दिन सामान दे कर पैसे लिए और जाते-जाते ठिठक गया. हिचकिचाते हुए माई को देख कर बोला,"मोबाइल में शायद भद्दी चीज़ें देखते हैं. अच्छा नहीं लगता. पर मुस्टंडों से क्या कहूँ ? अभी कुछ ऐसा किया भी नहीं है बीबी. किस बात पर टोकूं ? मेरे साथ वाला कहता है ..आजकल सब देखते हैं. कोई गुनाह थोड़े है...पता नहीं. पर मेरा जी घबराता है. अभी तक कुछ ना हुआ..पर भगवान ना करे ..कुछ हो जाए तो ? संभल के रहना." काका ने जो खुटका बैठा दिया मन में, तो घर से निकलने से लेकर वापिस लौटने तक मन में बेचैनी बनी रहती.
ये सब सोचते-सोचते सायली के हाथ फुर्ती से चल रहे थे. तभी अचानक तूफ़ान-सा आ गया. खिड़की-दरवाज़े खड़कने लगे जोर-जोर से.. इतनी तेज़ हवा चलने लगी.
दीदी ने कमरे से ही आवाज़ दी,"सायली, बाहर से कपड़े उठा लेना. बारिश आएगी लगता है. सब भीग जाएंगे."
सायली ने जवाब दिया,"हाँ,दीदी. उठती हूँ." भाग कर कपड़े उठा कर लाई और तखत पर धर दिए.
एकाएक उसकी नज़र दीवार पर पड़ी तो देखा, एक बहुत बड़ा कैलेंडर टंगा था जो पहले तो नहीं था. कैलेंडर में बहुत बड़ा चित्र था दुर्गा पूजा का. बहुत सुंदर. एकटक देखती रह गई सायली. तभी दीदी गुड़िया को संभालती हुई बाहर आ गई.
सायली को कैलेंडर निहारते देखा तो मुस्कुरा के बोली,"क्यों ? तुझे बहुत पसंद आया क्या कैलेंडर सायली ?"
सायली चौंक गई. बोली,"हाँ, दीदी कितना सुन्दर है ना ? और इतना बड़ा ! सच्ची के जैसा ! इसलिए मैं देखते ही रह गई !"
दीदी हँस कर बोली," हाँ, है तो बहुत सुन्दर. हर महीने का एक चित्र है. अच्छे-मोटे कागज़ का है तो भारी भी बहुत है. हम तो लगाने से रहे. तुझे चाहिए तो ले जा."
सायली,"अरे नहीं नहीं दीदी ! मैं तो बस देख रही थी. हमारी खोली भी तो छोटी-सी है."
दीदी बोली,"ले जा घर एक बार.नहीं जमे तो वापिस ले आना. किसी और को दे देंगे. ले जा."
इतना कहने पर सायली ने कैलेंडर उतार कर रख लिया अपने पास. फिर बाकी बचा काम ख़त्म कर निकल पड़ी.
इतनी ही देर में बादल ज़ोर से बरस कर चलता बना था. अँधेरा-सा तो हो गया था पर अच्छा हुआ कि बारिश बंद हो गई थी. उसने जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाये. चाय की टपरी की बगल से दबे पाँव निकल जाना चाहती थी कि देखा टपरी तो बंद पड़ी है. ऐसा कैसे ? पर खैर ...सायली ने चैन की सांस ली. टपरी की रौशनी नहीं थी तो मोहल्ले का वो कोना अँधेरा-सा हो गया था. सायली ने सोचा..जल्दी से निकल जाऊँ ...तभी दबी आवाज़ में हँसने की आवाज़ ने उसको चौकन्ना कर दिया. वो एक आड़ में हो गई और बिना हिले-डुले सुनने की कोशिश करने लगी. आदमियों की आवाज़ थी. फुसफुसा कर कुछ कह रहे थे. और हंसी तो रुक ही नहीं रही थी.
"अरे यार ! रोज़-रोज़ मोबाइल देख कर पक गया था ! लाइव माल का मज्जा ही मस्त है !"
"लाइव माल ? कैसे ? घर वालों को मालूम नई पड़ेगा ? और पैसा ? उसका क्या ?"
"वोई तो यार ! इधर टपरी पर गाना गाने ..घूरने से कोई बोल नहीं सकता. पर..."
"अरे छोड़ ना यार ! इधर भी कोई कुछ नई बोल सकता."
"ऐसा क्या ? बता-बता !"
"अरे वो लास्ट में खोली के पीछे बाजू ख़ाली जगह है ना ..भंगार पड़े रहता है जिधर. उधर दीवार नई क्या ? बस वो दीवार पे चढ़ा था बच्चा लोग का गेंद लाने को. अरे रात में नई खेलते क्या उधर ?"
"हाँ तो ?"
"अरे उधर ही देखा ! क्या नज्जारा ! उधर सबका घर का खिड़की ! टूटा-फूटा तो रहता ही है ! रात को लाइट जलाये तो फुल वीडियो !"
सबका ठहाका ...
और सायली सुन्न पड़ गई थी. पसीने से तर-बतर. फिर से ठहाका लगा तो होश आया.
"ए चल रे ! अभी चल ! ट्रेलर ! क्या ?"
ठहाका ...
सायली पूरा दम लगा कर भागी और घर जा कर ही रुकी. हाँफते-हाँफते खोली में घुसी और धम से बैठ गई. सर घूम रहा था.
अचानक वो उठी और पूरी खोली को टटोल-टटोल कर देखने लगी, कहीं फांक तो नहीं ! खिड़की तो ठीक है. रोशनदान ? हाय राम ! कितने दिनों से सोच रही थी...तभी दीदी के दिए कैलेंडर पर ध्यान गया. अगर ये उधर टांग दें तो ? उसके ऊपर एक खूँटी भी है. फटाफट कुर्सी सरका कर ,उस पर चढ़ कर सायली ने कैलेंडर टांगा और उतर कर पंखा फुल स्पीड कर दिया. देखने लगी कहीं कैलेंडर फड़फड़ा कर गिर ना जाए..पर इतना बड़ा और भारी कैलेंडर दीवार की तरह दीवार से चिपक गया था.
सायली दीवार की तरह ढह गई और ज़मीन पर बैठी-बैठी दुर्गा पूजा का चित्र एकटक देखने लगी और उसका सारा डर और गुस्सा पिघल कर आँखों से बहने लगा.
"वाह री सायली ! इत्ता सुन्दर कैलेंडर कहाँ से लाई ? और लगा भी दिया. अच्छा है रे ! पेंटिंग जैसा !"
माई कब आ कर पीछे खड़ी हो गई थी,पता ही नहीं चला सायली को.
"है ना माई ? सबके घर में एक ऐसा ही कैलेंडर होना चाहिए. और उसे पता होना चाहिए कि कहाँ लगाना चाहिए."
"बिलकुल ठीक बोली सायली. फटा कपड़ा के लिए रफ़ू और टूटी-फूटी दीवार को ढांपने वास्ते कैलेंडर !
10 टिप्पणियाँ:
बेहतरीन कहानी
शुभकामनाएँ बहन नूपुर शांडिल्य को
सादर
बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ नुपूर जी
बहुत अच्छी कहानी है नुपूर जी बहुत बधाई आपको शुभकामनाएँ।
सुंदर चयन
बहुत बहुत शुभकामनाएँ नुपूर जी
वाह! बहुत सुंदर।
बहुत सुंदर कहानी 👌
बहुत मार्मिक कहानी नुपुर जी |बेढब होते समाज और विपन्नता की फटी चादर से खुद को ढाँपती लड़की की मन को छू लेने वाली दास्ताँ | बधाई आपको सार्थक लघुकथा के लिए और ब्लॉग बुलेटिन में ख़ास रचनाकार बनने के लिए |
किस तरह भी ढ़की रहे ...
मार्मिक कथा!
वाह! बहुत सुंदर।
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