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मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

रत्ती भर भी नहीं




कोई किसी के लिए नहीं मरता ...
लेकिन क्या यह पूरा सच है ?
किसी के जाने से ज़िन्दगी नहीं रुकती ...
क्या यह आधी अधूरी बात नहीं ?
मन और बाह्य 
दो स्थितियाँ हैं 
बाह्य मन को नहीं दर्शाता
मन बाह्य को जी नहीं पाता 
कौन कहाँ ठहरा
कहाँ खोया 
आंधियों में भी जो दिखता रहा
वह था या नहीं
बताया नहीं जा सकता 
बोलती हँसती ज़िन्दगी भी
अपनी अव्यक्त मनहूसियत पर रोती है
कितनी बातों से भरा मन 
खाली बर्तन सा ठन ठन करता है
पर कुछ डालना चाहो
तो सब गिर जाता है
बह जाता है 
रत्ती भर भी जगह नहीं होती !


रूबाई


भोले की आरती ख़तम हो चुकी। भण्डारी स्टेशन पर पचीस मिनट पहले ही आ कर खड़ी है गोदिया। समय होगा तभी चलेगी। लेट आने पर लेट चलती है, बिफोर आती है तो समय से चलती है। आज लोहे के घर के कोपचे में बैठे हैं। ऊपर, मिडिल और नीचे एक एक बर्थ सामने दीवार। दाएं सामने की ओर दरवाजा, बाएं खिड़की। यह कोना तो लोहे के घर का कोपभवन लगता है! लेट कर देश की चिंता करते हैं।
लाख छेद बन्द करो घर में चूहे आ ही जाते हैं। लाख नल बन्द करो कहीं न कहीं पानी टपकता ही रहता है।मच्छरदानी चाहे जितना कस कर लगाओ, सुबह एक न एक खून पी कर मोटाया मच्छर दिख ही जाता है। यही हाल अतंकवादी का है, यही हाल घोटाले का है। हम यह ठान लें कि न खाऊंगा, न खाने दुंगा तो भी एकाध चूहे फुदकते दिख ही जाते हैं। हम भले न खाएं वे तो खाने के लिए ही धरती पर अवतरित हुए हैं। अन्न न मिला तो किताब के पन्ने, कपड़े.. जो मिला वही खाने लगते हैं। एकाध चूहों के खाने से, एकाध मच्छर के खून पीने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। घर की दिनचर्या रोज की तरह चलती रहती है। आफत तो तब आती है जब दीवारें दरकने लगती हैं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। दुर्घटना उस घर में अधिक घटती है जहां जनसंख्या अधिक और नियंत्रण करने वाला एक। संयुक्त परिवार के बड़े से घर में जहां सारा बोझ मुखिया के कन्धे पर होता था सभी सदस्य आंख बचा कर मौज उड़ाने की जुगत में रहता था और घर की चिंता का सारा बोझ घर का मुखिया ही उठाता था। ऐसे घर में चूहे भी आते, मच्छर भी होता, खटमल भी निकलते और नल की टोंटी भी खुली रह जाती।
राजशाही में राजा ही सब कुछ होता था। वह सर्वगुण सम्पन्न हुआ तो देश अच्छा चला, गुणहीन हुआ तो देश गुलाम हुआ। तानाशाह हुआ तो जनता हाहाकार करने लगी, दयालू हुआ तो जनता मौज करने लगी। राजशाही की इन्हीं कमियों ने लोकतंत्र को जन्म दिया। सत्ता के अधिकारों और दायित्वों का राज्यों, शहरों, कस्बों से लेकर गांवों तक समुचित वितरण और केंद्र का कड़ा नियंत्रण। जनता का, जनता के लिए जनता के द्वारा शासन। यह एक सुंदर और कल्याणकारी व्यवस्था है। यह व्यवस्था उस देश में अत्यधिक सफल रही जहां जनसंख्या कम और शिक्षा का प्रतिशत अधिक रहा। भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में जनसंख्या भी अधिक और शिक्षा का स्तर भी दयनीय। कोढ़ में खाज राजनेताओं/धर्मोपदेशकों की कृपा से धर्म और जाति के आधार पर बंटी जनता। अब ऐसे माहौल में आतंकवादी न आएं, घोटाले न हों तो यह स्वयं में एक बड़ा चमत्कार होगा। देश की मूल समस्या जनसंख्या नियंत्रण और शत प्रतिशत साक्षरता है। इंदिरा जी ने जनसंख्या नियंत्रण को समझा तो नौकरशाही ने ऐसा दरबारी तांडव किया कि उन्हें सत्ता से ही बेदखल होना पड़ा। उन्हें भी लगा होगा कि सत्ता में बने रहना है तो इस मुद्दे को ही भूल जाओ। फिर किसी ने हिम्मत नहीं करी। मूल समस्या पर किसी का ध्यान नहीं।
गोदिया समय से बनारस पहुंच गई। देश की चिंता फ़ुरसत से मिले बेकार से किसी दूसरे समय में। आप फ़ुरसत में हों और देश की चिंता को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो स्वागत है। आम आदमी फालतू समय में ही देश की चिंता कर सकता है।
#लोहेकाघर

कभी कभी
कुछ शब्द
आपके अपनो द्वारा ही
बोली जाती आँखों आँखों मे
जरूरी नहीं कि वो इज़हार ए इश्क़ ही हो
ऐसे लोग
रहते झूठ फरेब के मुखौटे ओढ़े
इशारे इशारों में
कहे गये उनके शब्द
चुभते है तीर की तरह
क्यूँकि बोली जाती हैं आंखों से
इन्हें तलाश रहती है
हँसी खुशी लक्ष्य से प्रेरित
ऐसी चिड़ियों की आँख की
ताकि बींध दे उसकी आंखें
और थपथपाए अपनी पीठ
खुद के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का
ऐसे लोग
लिए हाथों में खंज़र
अपमानित करने को तत्पर
येन केन प्रकारेण
खुद को श्रेष्ठ साबित करने का
नहीं छोड़ते अवसर
ऐसे अर्जुन से
हमेशा सावधान रहना ही बेहतर
क्यूँकि जाने कब और कैसे
विश्वासघात के तरकश में
शब्दों के बाण से
कर दे तुम्हें
दोस्ती में नुकसान


4 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुन्दर।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

शानदार प्रस्तुति!

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

लोहे का घर यहां आ गया! आभार आपका।

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति ...

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