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उपन्यासों के वाल्टर स्कॉट कहलाने वाले वृन्दावनलाल
वर्मा की आज 129 वीं जयंती है. आज ही 9
जनवरी सन 1889 को उनका जन्म झाँसी जिले के मऊरानीपुर में हुआ था. उनका बचपन अपने
चाचा के पास ललितपुर में बीता. चाचा के साहित्यिक-सांस्कृतिक रुचि के होने के कारण
उनकी भी रुचि पौराणिक तथा ऐतिहासिक कथाओं के प्रति बचपन से ही थी. लेखन प्रवृत्ति
बचपन से ही होने के कारण उन्होंने नौंवीं कक्षा में ही तीन छोटे-छोटे नाटक
लिखकर इण्डियन प्रेस प्रयाग को भेजे. जहाँ से उनको पुरस्कार स्वरूप 50 रुपये भी प्राप्त
हुए. प्रारम्भिक शिक्षा भिन्न-भिन्न स्थानों पर संपन्न करने के बाद उन्होंने बी.ए.
और क़ानून की परीक्षा पास की. इसके बाद वे झाँसी में वकालत करने लगे.
वृन्दावन लाल वर्मा |
उनका
ऐतिहासिक उपन्यास लेखन की तरफ प्रवृत्त होना उस समय बहुत ही साहसिक कदम कहा जायेगा
क्योंकि उस दौर में प्रेमचंद उपन्यास सम्राट के रूप में अपनी सशक्त उपस्थिति
हिन्दी साहित्य में बनाये हुए थे. इसके बाद भी उनके पहले ऐतिहासिक उपन्यास गढ़कुंडार
को जबरदस्त प्रसिद्धि मिली. इसके बाद तो वृन्दावन लाल वर्मा ने विराटा
की पद्मिनी, कचनार, झाँसी की रानी,
माधवजी सिंधिया, मुसाहिबजू, भुवन विक्रम, अहिल्याबाई, टूटे कांटे, मृगनयनी आदि सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास लिखे. उनके उपन्यासों में इतिहास जीवन्त
होकर बोलता है. इसके साथ-साथ उन्होंने सामाजिक उपन्यास, नाटक, कहानियाँ भी लिखीं. उनकी
आत्मकथा अपनी कहानी भी सुविख्यात है.
भारतीय
ऐतिहासिकता को साहित्यिक जगत में जीवंत स्वरूप में प्रदान करने वाले साहित्यकार
वृन्दावन लाल वर्मा सन 23 फ़रवरी 1969 में हमसे विदा हो गए. उनकी मृत्यु के 28 साल
बाद 9 जनवरी सन 1997 को भारत सरकार ने उन पर एक डाक टिकट जारी किया.
आज
उनके जन्मदिन पर बुलेटिन परिवार की ओर से उनकी पुण्य स्मृतियों को नमन...
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3 टिप्पणियाँ:
वृन्दावन लाल वर्मा जी को उनके 129वीं जयंती पर नमन। सुन्दर बुलेटिन प्रस्तुति।
बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति
वृन्दावनलाल वर्मा जी के उपन्यासों ने मेरे जैसे विज्ञान के विद्यार्थी में भारतीय इतिहास के प्रति इतनी अभिरुचि जागृत करवा दी कि मैंने फिर इतिहास के अध्ययन को ही अपना जीवन अर्पित कर दिया. लखनऊ और कुमाऊँ विश्विद्यालयों में 36 वर्ष से अधिक समय तक इतिहास पढ़ाते समय भी मुझे वर्मा जी के उपन्यास नयी दिशा और नयी दृष्टि देते रहे. वर्माजी के उपन्यासों में 'मृगनयनी' सबसे प्रसिद्द है और शायद उसके बाद 'झाँसी की रानी' किन्तु मैं उनके उपन्यास 'माधव जी सिंधिया' की बात करना चाहूँगा. इस उपन्यास में पानीपत के तृतीय युद्ध का जैसा जीवंत चित्रण किया गया है वैसा मैंने किसी भी इतिहास की पुस्तक में नहीं पढ़ा. मुझे तब बहुत ख़ुशी होगी जब साहित्य के विद्यार्थियों के साथ इतिहास के विद्यार्थियों को भी वर्मा जी के उपन्यासों को पढ़ने और उन से कुछ सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए.
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