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सोमवार, 4 दिसंबर 2017

2017 का अवलोकन 20



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पूजा उपाध्याय, शब्द शब्द भावनाओं की लहरों के संग पाठकों के बीच बहती रही हैं, इस बात से बेपरवाह कि कौन लहरों के सौंदर्य में आकंठ डूबा है, कौन लहरों की भाषा नहीं समझता  ... वह अपनी लहरों में खुद ही एक दुर्लभ मोती बन कर अठखेलियां करती हैं  ... 




जो लोग तुम्हें ज्ञान देते हैं कि दुःख इमैजिनेरी होता है उन्हें तुम खींच के थप्पड़ दिया करो। नहीं सच में। ये ऐसी चीज़ है कि ख़ुद समझ में आती है नहीं और चल देते हैं दुनिया का ज्ञान देने। वे गाल सहलाते भौंचक सामने खड़े हों, तब उनसे पूछो...लहरता हुआ गाल इमैजिनेरी है?

दुनिया के दो हिस्से होते हैं। एक सच की दुनिया और एक ख़यालों की दुनिया। अधिकतर लोगों के लिए सच की दुनिया काफ़ी होती है। वे उसमें जीते मरते, इश्क़ करते, परेशान होते जीते रहते हैं। वे कभी कभी ख़यालों की दुनिया में थोड़ी डुबकी लगाते हैं...कि जैसे ऐश्वर्या मेरे साथ डेट पर चल ले या कि कर्ट कोबेन ज़िंदा होता या कि निर्मल वर्मा को कोई चिट्ठी लिख रहे होते...इतना भर। कभी कभी। वे अपनी ज़िंदगी में व्यस्त रहते हैं...ख़ुश या दुखी, जो भी हों, इसी दुनिया के अंदर रहते हैं। 

एक दुनिया होती है ख़यालों की। बड़ी सम्मोहक, बड़ी तिलिस्मी, बहुत ख़ूबसूरत। ये दुनिया सबको अच्छी नहीं लगती कि ये दुनिया ख़ुद ही बनानी पड़ती है। तो ये दुनिया वैसी ही होगी जैसी आप इसे बना पाएँगे। इस दुनिया के शहर, इस दुनिया की सड़कें, इस दुनिया के रंग...सब ख़ुद से रचने होते हैं। एक बुनियादी ढाँचा बनाना होता है, फिर सब कुछ आसान होता है। 

ये दुनिया अक्सर पनाह होती है लेकिन कभी कभी क़त्लगाह भी होती है। मक़तल, you know. जहाँ क़त्ल किए जाते हैं। इस दुनिया के रंग तब दिखते नहीं कि सब स्याह होता है। रोशनी नहीं होती। धूप नहीं होती। 

कुछ लोगों के लिए ये दुनिया भी उतनी ही सच होती है जितना तुम्हारे गाल पर लहरता हुआ थप्पड़। इसमें जाना आना अपने बस में नहीं रहता। सुबह उठ कर कौन से ख़याल अपनी गिरफ़्त में ले लेंगे, ये पहले से तय करना मुश्किल होता है। हम कभी नहीं जानते कि सुबह सुबह सूयसाइडल क्यूँ होते हैं। रात और भोर के बीच, सपनों के उस आयाम से होकर आने के दर्मयान क्या बदल जाता है।

ज़िंदगी में सब कुछ ख़ूबसूरत होगा या कि वैसा ही होगा जैसा एक दिन पहले था। एक लम्हा पहले था लेकिन ख़याल ने अगर धावा बोल दिया तो फिर इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि सच की दुनिया कैसी है। कि कितना प्यार है दिल में। कि कितने लोग हैं जो आपकी जान की सलामती की दुआ माँगते हैं। हम किसी इमैजिनेरी दुःख में डूबते जाते हैं। हमें वहाँ से कोई बचा कर नहीं ला सकता। वो दुःख भी अपने सीने पर ही झेलना होता है। आत्मा में चुभता दुःख कोई। टीसता ज़ख़्म कोई। किसी किरदार के हिस्से का दुःख लिखने के पहले उसे जीना होता है हर साँस में। 

ये दोनों दुनियाएँ अलग अलग दिशा में हैं और कभी कभी ये दुविधा में डाल देती हैं। एक चुनने को विवश करती हैं। एक प्रेम से दूसरे प्रेम तक जाने के रास्ते में एक लम्हा ऐसा होता है जब आप दो व्यक्तियों से प्रेम में होते हैं। एकदम बराबर के प्रेम में। यहाँ से चुनाव हो जाता है। आप या तो पहले प्रेम तक लौट आते हैं या कि दूसरे प्रेम तक चले जाते हैं। मगर वो एक बिंदु कि जब आप दो व्यक्तियों के प्रति बराबर प्रेम में होते हैं, वो लम्हा घातक होता है। वहाँ से आपका वजूद दो बराबर के टुकड़ों में बंट जाता है और आप कितना भी कोशिश कर लें, जो छूट गया है उसके दुःख से ख़ुद को उबारना नामुमकिन होता है। फिर वक़्त का मरहम होता है और धीरे धीरे जो छूट गया है उस दुःख के तीखे किनारे घिसता रहता है कि आप उसके साथ जीने की आदत डाल लें। दुःख कहीं जाता नहीं। हम उसके साथ जीना सीख लेते हैं। सच और कल्पना में ऐसी ही जंग छिड़ती है, कि आप दोनों के साथ नहीं रह सकते हो। एक चुनना ही होगा। हम जो भी चुनते हैं, दूसरी दुनिया दुखती है। 

हम नहीं जानते कि किसी दिन सुबह उठते ही पहला ख़याल ख़ुदकुशी का क्यूँ आता है। ख़यालों की दुनिया में किस पुराने दुःख ने धावा बोला है। मैं कभी कभी वाइटल बीइंज़ के बारे में भी पढ़ती और समझने की कोशिश करती हूँ। सोते हुए हमारा मन कई आयामों में घूमता है। जाने कहाँ से कोई नेगेटिव सोच अपने साथ बाँध लाता है। ऐसे में कई बार हमारे वातावरण पर निर्भर करता है कि हम उस ख़याल से लड़ सकते हैं या समर्पण कर देते हैं। जिन दिनों धूप निकलती है और आसपास कुछ दोस्त होते हैं, ऐसे किसी ख़याल से लड़ना आसान रहता है। लेकिन जिस दिन धूप नहीं रहती और दोस्तों से बात किए हुए बहुत वक़्त हुआ रहता है...वैसे में ऐसा ख़याल एकदम पूरी तरह से अपनी गिरफ़्त में ले लेता है। 

मुझे दवाइयों और डाक्टर्ज़ पर भरोसा नहीं है। सर्दी, खाँसी बुखार तक में अधिकतर मुझे दवा खाना पसंद नहीं है...तो ऐसे में मन की परेशानी के लिए कौन सा डॉक्टर खोजने जाएँ, कहाँ? पागलखाने वाले डॉक्टर मुझे समझ नहीं आते। कि मुझे लगता है सायकाइयट्री पूरी की पूरी दूसरे लोगों को स्टडी करके डिवेलप हुयी है लेकिन लोगों को किसी जेनरल खाँचे में बाँटा ही नहीं जा सकता। हर इंसान की सोच, दूसरे इंसान से इतनी अलग होती है...हर स्टिम्युलुस के प्रति उसका रीऐक्शन एकदम अलग। तो जो बात दुनिया के हज़ार और लोगों के लिए सही हुयी हो, हो सकता है मैं अपवाद हूँ...मुझपर वो चीज़ लागू ना हो। ऐसे में मुझे स्पेसिफ़िक, एक केस की तरह तो पढ़ा नहीं जाएगा। मैं कितना ही बताऊँ किसी को अपनी ज़िंदगी के बारे में। पिछली बार जिस सायकाययट्रस्ट के पास गयी थी, उसकी उल्टी-पुल्टी सलाह के कारण उसी शाम जान ही दे देती, लेकिन दोस्तों ने बचा लिया। 

तो इस इमैजिनेरी दुनिया के बेहद रियल दुखों का इलाज किसके पास है? ज़ाहिर है। दोस्तों के पास। लेकिन सवाल ये है, कि दोस्तों के पास वक़्त है?

2 टिप्पणियाँ:

कविता रावत ने कहा…

बहुत बढ़िया अवलोकन प्रस्तुति

सदा ने कहा…

. वह अपनी लहरों में खुद ही एक दुर्लभ मोती बन कर अठखेलियां करती हैं ... और पारखी नजरें उस् मोती तक पहुँच जाती हैं ... आभार आपका

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