युग दृष्टि और उसे परखती आशीष जी की कलम ...
सुनो तुम ईवा हो
कभी सोने के रंग जैसी
तो कभी फूलों की उमंग जैसी
कभी कच्ची मखमली घास की छुवन
युग ,संवत्सर , स्वर्ग और भुवन
तुम्हारा शरीर क्या है
दो नदियाँ मिलती है अलग होती है
तुम भाव की नदी बनकर धरती की माँझ हो
भाव की देह हो भाव का नीर हो
भाव की सुबह और भाव की सांझ हो
तुमने सुना है देह वल्कल क्या चीज़ है ?
तुम्हारे दोनों ऊरुओं के मध्य
घूमता है स्वर्णिम रौशनी का तेज चक्र
उत्ताप से नग्न वक्ष का कवच
मसृण और स्निग्ध हो जाता है
तुम रति हो फिर भी
तुम्हारी भास्वर कांतिमय देह
किसी कामी पुरुष की तरह स्रवित नहीं होती
सुनो ! आकाश भी छटपटाता है
धरती बधू को बाँहों में घेरने के लिए
वधू -धरित्री की भी ऐसी आकांक्षा होगी
नहीं पता मै लिख पाया या नहीं
लेकिन ये है इह मृगया
जाने गलत है या सही .
उपासना सियाग और उनकी नयी उड़ान
वजूद स्त्रियों का
खण्ड -खण्ड
बिखरा-बिखरा सा।
मायके के देश से ,
ससुराल के परदेश में
एक सरहद से
दूसरी सरहद तक।
कितनी किरचें
कितनी छीलन बचती है
वजूद को समेटने में।
छिले हृदय में
रिसती है
धीरे -धीरे
वजूद बचाती।
ढूंढती,
और समेटती।
जलती हैं
धीरे-धीरे
बिना अग्नि - धुएं के
राख हो जाने तक।
धंसती है
धीरे -धीरे
पोली जमीन में ,
नहीं मिलती ,
थाह फिर भी
अपने वजूद की।
नहीं मिलती थाह उसे
जमीन में भी ,
क्यूंकि उसे नहीं मालूम
उसकी जगह है
ऊँचे आसमानों में।
इस सरहद से
उस सरहद की उलझन में
भूल गई है
अपने पंख कहीं रख कर।
भटकती है
वह यूँ ही
कस्तूरी मृग सी।
4 टिप्पणियाँ:
बढ़िया चयन। बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
दोनों कविताओं में ग़जब का विरोधाभास है! स्त्री ने स्त्री के वजूद को खंड-खंड बिखरा-बिखरा पाया और पुरुष ने स्त्री में त्रिलोक देख लिया!
आप के चयन को नमन.
बहुत अच्छी अवलोकन प्रस्तुति ..
दोनों ही रचनायें कमाल के भाव लिए हुए ....
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