भयमुक्त बचपन और भयभीत बचपन ... साधारणतः हम कहेंगे कि भय से मुक्त जीवन ही ऊंचाई को पाता है, ... पर नहीं, भय से लड़ता हुआ बचपन, शह देकर भी मात खाता बचपन ... एक ऊंचाई के लिए अथक उड़ान भरता है, थकते हुए भी नहीं थकने के एहसास से भरा होता है .
इस वर्ष 2016-17 की कुछ ख़ास पंक्तियाँ ..
बेंच पर बैठा रेल की पटरियों को देखने लगा। एक मालगाड़ी दायें से बायें गई। एक मालगाड़ी बायें से दायें गई। मालगाड़ी न हुई राजनैतिक पार्टियों की सदस्यता हुई ! इधर से उधर, उधर से इधर।
सन्नाटे के बाद प्लेटफॉर्म पर फिर भीड़ जुटने लगी। प्रसिद्ध वैवाहिक लान में जैसे बिदाई के बाद सुबह सन्नाटा और दिन शुरू होते ही चहल-पहल शुरू हो जाती है वैसे ही प्लेटफॉर्म पर एक ट्रेन जाने के बाद सन्नाटा और दूसरी ट्रेन आने से पहले गहमा-गहमी बढ़ जाती है।
एक स्टेशन पर रुकती है तो देर तक रुकी रहती है। लगता है खड़ी हो कर फोन लगाती होगी अपनी सहेलियों को-हाय! फिफ्टी तुम कैसी हो? मैं जफराबाद आ गई, तुम कहाँ फंसी हो ? बहुत कोहरा है न! सम्भल कर चलना। इन यात्रियों की चीख-पुकार से तनिक न घबड़ाना। बोलना-पहुँचा रही हूँ न, यही क्या कम है! फिफ्टी डाउन बोल रही होगी-मैं तो वहाँ रात 12 बजे तक पहुंचुंगी। अभी सुलतानपुर में सो रही हूँ। मेरी फिकर न करो, मन करे तो एक नींद ले लो तुम भी। ये यात्री तो ऐसे होते ही हैं। अभी लड़-भिड़ जाओगी तो सब तुम्हें ही कोसेंगे।'
अपनी तरक्की और ट्रेन के बीच गहरा साम्य है। कुछ भोले भाले लोग जो अपने देश की व्यवस्था से परिचित नहीं हैं, पूछते हैं-नौकरी करते-करते 28 साल हो गए आपकी तरक्की क्यों नहीं हुई ? कभी-कभी सोचता हूँ रेलवे स्टेशन वाला टेप सुना दूं-यात्रियों की असुविधा के लिए हमें खेद है! मतलब मेरी तरक्की न होने से जो आपको असुविधा हुई इसके लिए खेद है।
#ट्रेन में यात्रियों से पैसे मांगने वाला हिजड़ों का दल रोज के यात्रियों को देख कर बुरा सा मुँह बनाते हुए अपने सहेलाओं से कहता है-चलो! निकलो यहाँ से, यहाँ सब स्टाफ़ के हैं!!!
मजदूर का मजा डबल मजदूरी के प्रायश्चित से ही कटता है लेकिन मालिक का मजा गंगा में डुबकी लगाने से कट जाता है। मालिक डबल मजा उड़ाता है। पहले पाप करने का मजा लेता है फिर पाप कटाने के नाम पर गंगा स्नान का मजा लेता है। मजदूर जैसे ही मजा लेता है, रोटी के लाले पड़ जाते हैं। उसके लिये मजा लेना ऐसा पाप है जो गंगा स्नान से नहीं डबल मजदूरी से ही कटता है। मनुष्यों के मामले में आलसी ग्रासोफर और मेहनती चींटी के फार्मूले में कई अपवाद हैं।
लोहे के घर में कई परिवार अपने-अपने में मगन साथ-साथ चलते हैं। जब तक रहते हैं बड़े खुश दिखते हैं। पत्नी के मुख से पानी उच्चारित हुआ नहीं कि पति पूरी बोतल निकाल कर समर्पित खड़ा हो जाता है। थोड़ी देर बाद प्रेम से पूछता भी है-और? पत्नी भी बड़ी अदा से बोतल परे हटाती है-बस्स.. रहने दो! गरम हो गया है।
पापा को तंग कर रहा है बेटा-मैंगो जूस लेंगे। मम्मी बैग से नोट निकालती है-दिला दो न! छोटे स्टेशन पर दौड़ पड़ते है पापा। ट्रेन चल दी, पापा आये नहीं! गहरी बेचैनी के बाद हर्ष से खिल उठता है बेटे का चेहरा-बड़ी बोतल लाये हैं पापा! पीछे से आ रहे हैं।
टिफिन खोल सलीके से पूड़ी निकाल पति को नाश्ता कराती पत्नी। आहा! कितने प्रेम से रहते हैं ये लोग जब #ट्रेन में चलते हैं! क्या घर में भी ऐसे ही रहते हैं ? आज्ञाकारी और विशाल ह्रदय के स्वामी! सभी के पास एक दूसरे के लिये समय ही समय। वाह! क्या बात है।
काली चिड़िया आज भी बैठी है बिजली के तार पर! बचपन से देख रहा हूँ भैंस की पीठ पर बैठते बगुले। तीन बच्चे आज भी दौड़ते दिखे। उनके हाथों में साइकल के टायर नहीं, फटी धोती का लम्बा टुकड़ा था। जुग बदला, समय बदला, बच्चे से बूढ़े होने को आये मगर लोहे के घर की खिड़की से दिखने वाला भारत का सीन न बदला।
सगरो धान बोआई गयल हौ। कत्तो-कत्तो अभहिन रोपात हौ। पानी में पूरा हल के, धोती कमर में लपेट के, निहुर-निहुर धान रोपत हइन मेहरारु। गीत गावत होइयें सावन क पर हमें सुनाई नाहीं देत हौ। टरेन से दिखाई देला, सुनाई नाहीं देत। जौन दिखाई देला ऊ ठीक से बुझाइयो नाहीं देत। जउन देखे में अच्छा लगsला ऊ करना मुश्किल हौ। धानी चादर ओढ़ मगन हइन धरती माई अउर उनके देख-देख मगन हौ हमरो जीया।
बहुत पागल हउअन ई देश में। चढ़ल हउअन यहू #ट्रेन में। बहसत हउअन आपस में। एक मिला दोजख अउर जन्नत समझा रहल हौ। अउर दू मिला पाप-पुन्य, सरग-नरक समझा रहल हउअन। सावन क महीना हौ, पानी बरसत हौ, सामने स्वर्ग जइसन सुंदर सीन हौ लेकिन इन्हहने के आपस में दोजख-जन्नत बहस करे में ढेर मजा आवत हौ! ई अइसन जीव हउअन कि इनहने के सच्चो स्वर्ग में छोड़ दिहल जाये त वोहू के नरक बना देइहें। फेर न मनबा! झूठ कहत हई ? कश्मीर के का कइलन? धरती क स्वर्ग हौ? नरक बना देहलन कि नाहीं?
ई भगवान क कृपा हौ कि पागल हउअन त प्रेमियो ढेर हउअन देश में। यही से गाड़ी चल रहल हौ पटरी पर।
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मेरे गीत !: मैं गंगा को ला तो दूंगा पर क्या धार संभाल ...
(570) साल के मध्य में लिखी गई कविता जो साल के अंत में फिर से याद आ रही है :
जो हमें होना था : राजेश उत्साही
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हम पेड़ नहीं हुए
हम पहाड़ नहीं हुए
नदी नहीं हुए हम
नहीं हुए समुन्दर भी
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हम पेड़ नहीं हुए
हम पहाड़ नहीं हुए
नदी नहीं हुए हम
नहीं हुए समुन्दर भी
हम आग नहीं हुए
हम पानी नहीं हुए
हवा नहीं हुए हम
नहीं हुए मौसम भी
हम पानी नहीं हुए
हवा नहीं हुए हम
नहीं हुए मौसम भी
हम चाँद नहीं हुए
हम सूरज नहीं हुए
तारे नहीं हुए हम
नहीं हुए पृथ्वी भी
हम सूरज नहीं हुए
तारे नहीं हुए हम
नहीं हुए पृथ्वी भी
पेड़,पहाड़,नदी,समुन्दर
आग,पानी,हवा,मौसम
चाँद,सूरज,तारे,पृथ्वी
कुछ भी नहीं हुए हम
आग,पानी,हवा,मौसम
चाँद,सूरज,तारे,पृथ्वी
कुछ भी नहीं हुए हम
होना तो हमें मनुष्य था
वह भी हम नहीं हुए।
वह भी हम नहीं हुए।