हाथ के काम मशीनों से क्या हुए
सुविधा की सरगर्मी में
आदमी मशीन हो गया।
लिखने की आदत खत्म हो गई
सुन्दर लिखावट की बात
धरी रह गई !
टहलता हुआ
बस,ट्रेन,कार,बाइक में जाता हुआ आदमी
अब इयर फोन लगाये
पूरे रास्ते पागलों की तरह बोलता आता है
नहीं देखता बायें कौन सा सौंदर्य था
दायें कौन गिर गया
अपनी धुन में मशीन की तरह चलता जाता है !
चेहरे अब कोई न कोई साइट लगते हैं
ब्लॉग,गूगल,ट्विटर,फेसबुक
सबको टाइपिंग आ गई है
धीरे धीरे सब ऊबने भी लगे हैं
मोबाइल को साइलेंट पर रख देते हैं
बेबसी है
एक पल अपने हाथ में नहीं
सबकुछ मशीन के हवाले
अब इन सुविधाओं में कौन सी चिंगारी डाली जाए
ये सब अपने आप में चिंगारी हैं
धुँआ धुँआ सा है हर शख्स
खुदा का शुक्र है अभी भी
कि एक नाम हैं सबके पास
पुकार सकते है ज़ोर से
रोक सकते हैं
वरना कल मॉनिटर 1
मॉनिटर 2 जैसी बात न रह जाए !
अनन्या सिंह
मिट्टी भी हम और कुम्हार भी (आलेख )
हम सब ने अपने जीवन में कभी न कभी मिट्टी के बर्तनों को देखा या उपयोग किया होगा।
इन मिट्टी के बर्तनों के निर्माण की एक विशिष्ट प्रक्रिया होती है, जिसका निर्माण कुम्हार के द्वारा किया जाता है।
कुम्हार एक लकड़ी की चाक को घूमाता है, जैसे ही चाक तीव्र गति से घूमना शुरू करता है, कुम्हार उस पर मिट्टी का ढेर रख देता है, फिर अपने हाथों के दबाव से मिट्टी को मनचाहे आकार में ढाल लेता है।
ये बर्तन बेहद सुरुचिपूर्ण और सलीके से गढ़े होते हैं।
लेकिन इन बर्तनों में कभी -कभी कुछ बर्तन बेढंगे, टेढ़े-मेढ़े और विकृत रूप में भी ढल जाते हैं।
ये बेढंगे रूप में ढले हुए बर्तन दर्शाते हैं कि इन्हें बेहद लापरवाही से गढ़ा गया है।
कुम्हार ने इन्हें अनमने ढंग से गढ़ दिया है, या इन्हें गढ़ने में पूरा प्रयास नहीं किया है।
अगर कुम्हार ने इन्हें पूरी तन्मयता से गढ़ा होता तो ये भी अन्य बर्तनों की तरह सुरुचिपूर्ण रूप में निर्मित हुए होते।
क्यों कि मिट्टी तो वही है और चाक भी उसी गति से घूम रहा है, फिर कुछ बर्तन बेढंगे कैसे ढल गए।
कही न कही गलती कुम्हार से ही हुई है, उसने इन बर्तनों को गढ़ने में पूरी निष्ठा नहीं दिखाई, एकाग्रचित होकर उसने बर्तनों को नहीं गढ़ा।
उसकी ज़रा सी लापरवाही, ज़रा सी चूक ने इन बर्तनों को कितना विकृत कर दिया।
हमने भी अपने जीवन को इन्ही सिद्धान्तों पर गढ़ा है।
हम अपने जीवन के मिट्टी भी हैं और कुम्हार भी।
हमने स्वयं ही खुद को गढ़ा है।
हमारा वर्तमान स्वरुप यह दर्शाता है कि हमने स्वयं को कैसे गढ़ा है।
यदि हम सफल हैं, संतुष्ट हैं, सुरुचिपूर्ण हैं तो इसका अर्थ है कि हमने खुद को गढ़ने में पूरा ध्यान केंद्रित किया है, पूरी निष्ठा दिखाई है।
हमारा व्यक्तित्व स्वयं को गढ़ने में किया गया प्रयास का परिणाम है।
हमारा जीवन उस गीली मिट्टी के समान है जो समय की चाक पर घूम रहा है, जिसे कुम्हार के प्रयास की यानी हमारे स्वयं के प्रयास और यत्न की जरुरत है।
कहने का तात्पर्य है कि ” हम अपने व्यक्तित्व के रचयिता स्वयं है, कोई और हमारे व्यक्तित्व और चरित्र का निर्माण नहीं कर सकता।
इंसान के भीतर असीमित संभावना होती है किसी भी रूप में ढल जाने की, आवश्यकता केवल इस बात की है कि” हम स्वयं को सुसंस्कृत बनाने की हरसंभव कोशिश करें, उच्च आदर्शों को अपनाएं एवम् विशिष्ट बनने का ध्येय रखें।
मानसिक, वैचारिक, और चारित्रिक रूप से उत्कृष्टता का आकार ग्रहण करना हमारा उद्देश्य होना चाहिए।
यदि हम विवेकवान, कर्तव्यपरायण, सहिष्णु, सुस्पष्ट , और चरित्रवान बनना चाहते हैं तो इसके लिए सबसे पहले हमें इन गुणों को लक्ष्य के रूप में निर्धारित करना होगा, फिर इनकी प्राप्ति के लिए एकाग्रचित होकर प्रयास करना होगा।
एकाग्रता और परिश्रम ऐसा विकल्प है जिसे अपनाकर हम नित्य नई ऊचाइयों को छूते चले जाते हैं।
इन प्रयासों में हुई छोटी सी चूक भी हमें इन बर्तनों की भाँति विकृत कर सकती है।
तो आज से ही अपने व्यक्तित्व और चरित्र का निर्माण करना आरम्भ करें, इन्हें सवारना आरम्भ करें , क्यों कि हम अपने जीवन के सृजनकर्ता स्वयं हैं।
8 टिप्पणियाँ:
बढ़िया पोस्ट। आपका यह प्रयास भी लाजवाब है।
चलती रहे कुम्हार की यह चाक ... जीवन रुक जाएगा जो यह रुक गई |
बेहतरीन प्रयास
बहुत बढ़िया अनन्या बहुत अच्छा लिख रही हैं जारी रहे ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..
आभार!
मशीनें हुनर खत्म सा करती जा रहीं हैं। पर हैं अभी भी कुछ लोग जो इसे जीवित रखने के प्रयास ममें रत हैं।
बहुत बढ़िया है, सुन्दर विचार! हमने अपने आपको संवारने में जरूर लापरवाही की है तभी तो....
चुन कर मोती लाएं हैं आप....
बस पढ़कर आनंदित हो रहा हूं...
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