औरतें ले आती हैं
अलगनी से उतारकर
भूलभुलैया से खोजकर
अपनी पहचान
तोड़ देती है वह आइना
जिसमें उनका चेहरा स्पष्ट नहीं होता
!!!
औरतें तभी तक अपरिचित होती हैं परिस्थिति से
अपने आप से
जब तक उनकी सहनशक्ति उनके साथ होती है !!!
अमृता तन्मय
नष्ट नहीं हुई हूँ मैं .......
जीवित सत्य से भ्रष्ट की गयी हूँ
मिथ्या सत्य से त्रस्त की गयी हूँ
समाज से या स्वयं से
बनाने/बचाने में ही
हाय! कैसे मैं नष्ट की गयी हूँ
अब मैं धिक्कार लूँ ?
या आग की ललकार लूँ ?
या दर्द से दुलार लूँ ?
या काट की तलवार लूँ ?
केवल मैं धिक्कार हूँ ?
या स्वयं से स्वीकार लूँ ?
या समाज से प्रतिकार लूँ ?
या द्वंद से दुत्कार लूँ ?
अनजान होना पड़ता है कुछ जानकर भी
बहुत कुछ मानना पड़ता है न मानकर भी
साँचे में ढालना पड़ता है स्वयं को सानकर भी
कैसे मैं धिक्कार लूँ ?
कैसे प्रतिगत प्रहार लूँ ?
कैसे निर्वीर्य आभार लूँ ?
कैसे प्रतिपापी आधार लूँ ?
क्या मैं धिक्कार लूँ ?
या क्या केवल विष-आहार लूँ ?
या क्या सत्य से ही निवार लूँ ?
या क्या मिथ्या से भी अंगार लूँ ?
सबकुछ भष्म करने को लपलपाती हुई जीवित आग है
प्राण में भी उन्मन सा सरसराता हुआ नाग है
अर्थ , उद्देश्य , लक्ष्य क्या ? या जीवन ही विराग है
धिक्कार , धिक्कार , धिक्कार दूँ
इस मृत समाज को धिक्कार दूँ
सब मृत सत्य को धिक्कार दूँ
और मृत जीवन को भी धिक्कार दूँ
क्यों मैं धिक्कार लूँ ?
क्यों न विक्षोभ का हाहाकार लूँ ?
क्यों न विरोध का विकार लूँ ?
क्यों न विद्रोह का आकार लूँ ?
जीवित सत्य से भ्रष्ट की गयी हूँ मैं
मिथ्या सत्य से त्रस्त की गयी हूँ मैं
सत्य है , सबसे नष्ट की गयी हूँ मैं
पर आह ! नष्ट नहीं हुई हूँ मैं .
5 टिप्पणियाँ:
बहुत सुंदर रचना सुंदर चयन ।
बेहद उम्दा भावपूर्ण रचना !
Anupam abhivykti
अमृता तन्मय की सुन्दर रचना प्रस्तुति हेतु आभार!
बेहद उम्दा रचना |
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