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गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (३१)


समय कंधे पर हाथ रखकर पूछता है 
"सबकुछ अभी अभी यहीं था न?"
समय की हथेली थामकर 
दबी रुलाई उसे सौंपती हूँ 

नीलिमा शर्मा 

मुझे मेरा शहर आवाज़े लगा रहा है 

मुझे सुनाईदेती हैंआवाज़े
पहाड़ के उस पार की
घाटी में गूंजती सी
मखमली ऊन सी हवा
फंदा-दर फंदा
साँस देती हुयी
आवाहन करती हैं
जीने की जदोजहद से निकलने का
.
सपने देखतीहूँ
मैंअक्सर आजकल
हरी वादियों के
घंटाघर कीबंद घडियो में
अचानक होते स्पंदन के
बाल मिठाई के
बंदटिक्की और
खिलती हुयी धूप के
कितना मुश्किल होता
विस्थापन
पहाड़ से कंकरीट के
जंगल में आकर रहना
एकसाथ पाकर अपनों को
अपने को ही खो देना
चार माले के एक फ्लोर पर
पांच कमरों वाले घर में
मुझे यादआते
अपने २५० गमले
डेहलिया गुलदाउदी
टाइल्स वाले पक्के आंगन में
खिलती कच्ची धूप
दुधिया मक्का
उस पर सर्दी का रूमानी मौसम
हो ना हो कहीऐसा
मुझे मेरा शहर आवाज़े लगा रहा हो
रुआंसा सा
उदास होकर....

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (३०)

ज़िन्दगी है तो मौत भी है 
मौत से आगे ज़िन्दगी है 
है चक्र यही जीने-मरने का 
ईश भी है, शैतान भी है 
मानव है 
दानव भी है  ... 

अनीता निहलानी 


है ब्रह्म जहाँ होगी माया !


खिलते काँटों संग पुष्प यहाँ
है धूप जहाँ होगी छाया,
हत्यारा गर तो संत भी है
है ब्रह्म जहाँ होगी माया !
हो तिमिर सघन, घनघोर घटा
रवि किरणें कहीं संवरती हैं,
जो आज चुनौती बन आयी
कल बदली बनी बरसती है !
जीवन दो का है खेल सदा
हर क्षण में दूजा मरण छिपा,
इक श्वास जो भीतर भर जाती
बाहर जाती ले रही विदा !
जो पार हुआ तकता दो को
वह खेल समझता है जग का,
इस ऊंच-नीच के झूले से
वह कूद उतरता खा झटका !
है शुभ के भीतर छिपा अशुभ
शत्रु बन जाते मित्र घने,
न स्वीकारा जिसने सच यह
विपदा के बादल रहे तने !
सुख की जो बेल उगाई थी
कटु फल दुःख के लगते उस पर,
जीवन में छिपा मरण पल-पल
मन करता गर्व यहाँ किस पर !

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (२९)


चाँदनी का पर्दा है 
फर्श सितारों का है 
हवाएँ शोखी करती  हैं 
कुछ इशारे करती  हैं 
मैं बहक रहा हूँ 
तुझे सोच रहा हूँ 
नशे में झूम रहा हूँ .....


तुम्हारे जूतों की थाप से कुचल जाती है मेरी नींद
अंतरिक्ष की खिड़की से झाँकता होगा कोई सितारा अभी
पृथ्वी का आधा पलंग ढँका है आधा उघाड़
छोटी है सूरज की चादर
पाली बदल-बदल के सोती है दुनिया
यहाँ रात का तीजा पहर है
आधी दुनिया के सोने का समय यह
इसी सोने वाली दुनिया का हिस्सा हूँ अभी
और जाग रही हूँ
मैं जाग रही हूँ
इस तरह इस समय सोने वाली दुनिया में जागते हुए
जागने वाली दुनिया का प्रतिनिधित्व कर रही हूँ
अभी तो महज़ तीन बजे हैं घड़ी में
और मैं हूँ पूरी दुनिया अभी
प्रेम में होता है इतना बल
कि ज़माने भर की घड़ियों को धता बता कर
समय को एक कर दे
तकिये पर बाल चिपका है मेरी पलक से टूट कर
मुट्ठी पर रख फूँक मारने से पहले
चूमती हूँ तुम्हारा माथा हवा में
कई बार एक सादा-सा चुम्बन सुलझा देता है जीवन की कितनी ही गुत्थियाँ
कभी- कभी कोई चुम्बन मस्तिष्क की जटिल कोशिकाओं में उलझ जाता है
कितने ही थरथराते होठों से अपना नाम सुना होगा तुमने
कभी देखा है अपना नाम उल्टी मुट्ठी पर काँपते हुए
रखना ही है तो मुझे हृदय में रखो
अपनी जेब में नहीं
वक़्त बड़ा ही शातिर जेबकतरा है
बिन जूते उतारे
जाने कब से कर रहे हो पृथ्वी की परिक्रमा
कहीं पहुँचते भी नहीं
मैं कंपकंपाती मुट्ठी पर फूँक मार देती हूँ
पता नहीं धरती के किस कोने में उड़ कर गिरी है मेरी इच्छा
ठीक ही तो है
कि तुम प्रेम में फूँक-फूँक कर कदम रखते हो

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (२८)



कहानियाँ लिखी जाती हैं जिए गए क्षण क्षण की, पृष्ठ पलटते इतिहास बन जाती हैं 
लेकिन कहानियाँ वर्तमान के परदे पर निरंतर होती हैं  ... 

मेरा फोटो

बाबूजी का चश्मा
                                                
     सुबह के नौ बजे थे। आलोक ऑफ़िस चले गए थे और आशू कॉलेज...। मैं खाली होकर सोच रही थी कि आज घर के कुछ एक्स्ट्रा काम निपटाऊँगी। कई महीनों से टाँड़ पर रखे बर्तनों को नहीं देखा। उनकी साफ़-सफ़ाई करके जो पुराने और बेकार होंगे, उन्हें बेचने के लिए अलग रख दूँगी। बेकार सामान घर में रख कर काम का बोझ बढ़ाना ही होता है। नवीन मार्केट का कुमार बर्तनवाला पुराने बर्तनों के भी अच्छे दाम लगा देता है...। इसके अलावा बरामदे के एक कोने में रद्दी अख़बारों का भी ढेर लग गया है...। इसे भी आज ही निपटा देती हूँ...। एक दिन बस इतना ही...।
     पर शुरू कहाँ से करूँ? टाँड़ की सफ़ाई से या रद्दी को इकठ्ठा करने से...सोच ही रही थी कि तभी फोन की घण्टी घनघनाई।
     मन झल्ला गया। जब भी घर की कुछ एक्स्ट्रा सफ़ाई का सोचती हूँ, कहीं-न-कहीं बाधा पद ही जाती है। रोज़मर्रा के काम के अलावा महीने-दो महीने में में पूरे घर के रेशे-रेशे की साफ़-सफ़ाई न करो तो घर कबाड़खाना लगने लगता है। अकेले अपने लोगों के बीच तो चल जाता है, पर अचानक किसी खास के आ जाने पर जो शर्मिन्दगी उठानी पड़ती है, उससे तो भागते भी नहीं बनता।
     फोन की घण्टी अब भी टिनटिना रही थी। कौन हो सकता है? अभी कल ही अम्मा के घर से होकर आई हूँ...वहाँ तो सब कुछ ठीक-ठाक ही था, फिर कौन...?
     बेमन से रिसीवर उठा कर जैसे ही कहा,"हैल्लोऽऽऽ...कौन...?" वैसे ही उधर से अम्मा की रुँधी हुई आवाज़ थी,"बिट्टीऽऽऽ...अभी ही घर आ जा...बाबूजी फिर सनक गए हैं। खाना-पीना छोड़ कर धूनी रमाए बैठे हैं...किसी से सम्हल नहीं रहे हैं...।"
     जब बाबूजी नौकरी में थे तब ज़िन्दगी कितनी खुशहाल थी पर उनके रिटायरमेण्ट के बाद? सब कुछ किस तरह उलट-पुलट गया...। कोई समझ नहीं पा रहा था या यूँ कहें कि समझना नहीं चाहता था और अब...?
     सुनते ही मैने रिसीवर रखा और फिर जल्दी से थोड़ा बहुत समेट कर अम्मा के यहाँ पहुँच गई। गेट के बायीं तरफ़ बाबूजी का कमरा था पर उस समय वह खाली था। रिटयरमेण्ट के बाद बाबूजी उस कमरे में कम ही बैठते थे। उनके कमरे के सामने ही बड़ा सा हॉल था, जिसमें बाबूजी ने डाइनिंग टेबिल के सामने ही एक तख़्त डलवा ली थी। जब सब लोग टेबल पर खाना खाते तब बाबूजी भी इसी तख़्त पर बैठ कर आराम से खाते। मेरे अन्दर घुसने के दौरान भी बाबूजी इसी तख़्त पर पालथी मार के बैठे थे। मुझे देखते ही वे ताली बजा कर हँसे,"बिट्टो आ गई...। लो देखोऽऽऽ...बिट्टो आ गई...।"
     मैं सन्न...अवाक...। बाबूजी तो अच्छे-भले दिख रहे थे पर डाइनिंग टेबल का सत्यानाश हो गया था। टेबल क्या था, उसे पूरी तरह से एक बगीचे का रूप दे दिया गया था। बाहर लॉन में जितने भी गमले थे, सब लाकर टेबल के किनारों पर लगा दिए गए थे...। बीच में भगवान की चार-पाँच मूर्तियाँ थी, जिन पर गेंदे की माला और फूल चढ़े थे। उसके एक किनारे पिछली जन्माष्टमी पर लाया गया भगवान का झूला था, जिसमें बालगोपाल विराजमान थे और झूले की डोरी बाबूजी के हाथ में थी।
     मेरी नज़र अम्मा की ओर गई तो भीतर कुछ चटक-सा गया। अपने समय में अम्मा बेहद दबंग किस्म की स्त्री मानी जाती थी। नौकर-चाकर से लेकर हम सब बच्चे तक उनसे काँपते थे...। वे कोई जल्लाद नहीं थी। उनका यह बाना सिर्फ़ घर व बच्चों को चुस्त-दुरुस्त रखने तक ही सीमित था, वरना उनके अन्दर ममता का एक ऐसा समन्दर था जिसकी थाह पाना मुश्किल था। यह मैने तब नहीं जाना था पर बाद में आशू के होने पर महसूस किया था, माँ को अपने भीतर की गहराइयों तक...पर आज...? यह माँ का कौन सा रूप था? अशक्त हथेलियों पर अपनी ठोडी टिकाए असहाय-सी दिखती अम्मा गहरी चिन्ता में थी। किसी वजह से आज सब घर पर थे और रह-रह कर अपनी हँसी रोक नहीं पा रहे थे। मुझे देख कर अम्मा ने बाबूजी की ओर इशारा किया तो उन्हें देख कर मेरी अजीब सी हालत हो गई। बाबूजी ने माथे पर चन्दन का एक बड़ा-सा तिलक लगा रखा था और जाने कब अपने ही हाथों से अपने बालों को काट कर महीन रेशों की शक्ल दे दी थी।
     बाबूजी का यह रूप देख कर मुझे भी हल्की-सी हँसी आने को हुई कि तभी उनकी कातर आवाज़ मुझे अन्दर तक भिगो गई,"बिट्टोऽऽऽ...ये लोग मेरा चश्मा नहीं दे रहे हैं...। मुझे भगवान का बगीचा ठीक से दिखाई नहीं दे रहा है...। मैं वहाँ जाऊँ तो कैसे...?"
     फिर दूसरे ही क्षण वे ठहाका मार कर हँसे,"यह देखो...कैसा लग रहा है...? सुन्दर है न...? मैने बनाया है...खुद अपने हाथों से...। तुम लोग बेकार में माली को बुलाते हो...पैसा लगता है न...। वो पैसा मुझे दे दो...।"
     मुझसे कुछ कहते नहीं बन रहा था। आँखों से सहसा ही चलक पड़ने को आतुर कुछ बूँदों को मैने अपनी हथेलियों में ही समेटा और फिर बाबुजी की बगल में बैठ कर उनकी आँखों पर चढ़े सुनहरे फ़्रेमवाले चश्मे को हाथ लगा कर कहा,"बाबूजी, चश्मा तो आप पहने हैं...। ये देखिए...।"
     "नहीं, यह नहीं...इससे मुझे भगवान का घर नहीं दिखता। मुझे तो वो वाला चाहिए जो तुमने दिया था...। यह गन्दा है। भगवान के घर कितने फूल खिले हैं...। भगवान कहाँ खड़े हैं, ये तो इससे दिखता ही नहीं...।" फिर अचानक ही चश्मा प्रकरण को भूल कर बोले,"सुनो बिट्टोऽऽऽ...तुम्हारे पास ढेर सारे बर्तन हैं न...और छुरी-काँटा भी...। मुझे दे देना...विष्णु भगवान काँटे-चम्मच से खाते हैं न...।"
     सारे भाई-बहन ठहाका मार कर हँस पड़े और साथ में बाबूजी भी...पर जाने क्यों मेरी आँखें भर आई,"बाबूजी, पहले आप खाना खा लीजिए। कल हम भगवान जी के लिए नए बर्तन ले आएँगे...।"
     "और मेरा चश्मा...?"
     "हाँ-हाँ...आपका चश्मा मैं ढूँढ दूँगी। आप परेशान मत होइए...ठीक...?"
     "ठीक...।" बच्चों की तरह सिर हिला कर बाबूजी ने कहा तो मैने अम्मा को इशारा किया। वे तुरन्त दौड़ कर उनकी थाली ले आई। मैने अपने हाथों से कौर लगा कर उन्हें पूरा खाना खिलाया। इस दौरान वे एक मासूम बच्चे की तरह कौर निगलते हुए भगवान को झूला झुलाते रहे। खाने के बाद मैने पानी में घोल कर बाबूजी को नींद की गोली भी खिला दी। नींद में भी बाबूजी के हाथ में झूले की डोरी थी और गहरी नींद में सोते हुए वे खुद भी किसी फ़रिश्ते से कम नहीं लग रहे थे।
     अब बाबूजी के पास सिर्फ़ मैं और अम्मा थे, बाकी सब अपने अपने कमरों में चले गए थे, ऊबे हुए से...। भीतर जाते समय निखिल बड़बड़ाना नहीं भूला,"इनका तो रोज़ का नाटक है। जीना हराम हो गया है...। अरे, दिमाग़ खराब है तो अस्पताल में भर्ती करो...पर मेरी कोई सुनता भी है क्या...उफ़्फ़...!"
      अम्मा रो रही थी,"क्या करूँ बिट्टो, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। कभी बेवजह रोने लगते हैं तो कभी किसी से बतियाते हुए हँसने लगते हैं...। अब इधर ही देखो, उस चश्मे के पीछे ही पड़ गए हैं जो ऑपरेशन के बाद तूने इन्हें दिया था।"
      "पर वह चश्मा गया कहाँ?"
     "मुझे क्या पता...कहीं खुद ही रख कर भूल गए हैं। हर जगह ढूँढ लिया है...मिल ही नहीं रहा है...। एक ये वाला चश्मा है, पर नहीं...बच्चों की तरह ज़िदियाए हैं...वही चश्मा ही चाहिए...।"
     "और यह भगवान की क्या बात है? एक दो महीनों से देख रही हूँ, बाबूजी भगवान के बारे में ढेर सारी बातें करते हैं...।"
     "अम्मा खुद चकित थी। जवानी के दिनो में पूजा-पाठ को कभी तवज़्ज़ो न देने वाले बाबूजी अचानक भगवान के बारे में इतनी बातें कैसे करने लगे? अम्मा बताते हुए थोड़ा मुस्कराई भी,"इनसे बात करने बैठो तो बस वही भगवान की बातें...। कभी गणेश भगवान की बातें तो कभी विष्णु भगवान की...। और तो और...मथुरा-वृन्दावन की भी सब बातें इन्हें याद हैं...। कौन-कौन साथ गया...क्या-क्या खाया-पिया...कहाँ-कहाँ घूमे...। एक-एक मन्दिर का नाम बताते हैं...। अब तू ही बता, इन्हें पागल कहूँ भी तो कैसे...?"
     मैं चुपचाप सोते हुए बाबूजी को ताक रही थी। डाइनिंग टेबल पर बना बगीचा ज्यों-का-त्यों था। कोई हटाता भी तो न हटाने देती। बाबूजी अपने आपे में थे भी या नहीं, नहीं जानती थी पर इतना सच था कि यह घर उनका था...वे जैसे चाहें, रहें...किसी को बोलने का हक़ नहीं था। वे अब भी किसी की कमाई पर नहीं पल रहे थे बल्कि पूरा घर अब भी बहुत हद तक उनकी पेन्शन के बल पर आराम से रह रहा था।
     मैने अम्मा को समझा कर चुप कराया। दूसरे दिन बाबूजी को किसी मनोचिकित्सक को दिखाने की बात कह कर घर आ गई थी। घर में भी ढेरों काम थे, पर किसी में मन नहीं लग रहा था। रह-रह कर बाबूजी का मासूम चेहरा आँखों के आगे घूम जाता। अभी सोता हुआ छोड़ कर आई हूँ, पर अगर बीच में जाग कर सनक गए तो...?
     बाबूजी का यह रूप मेरी समझ से भी परे था। अचानक उन्हें यह क्या हो गया है? दो-दो हॉर्ट अटैक झेल चुके बाबूजी कभी काफ़ी दबंग और ईमानदार लेबर कमिश्नर हुआ करते थे। उनकी नौकरी के दौरान हम भाई-बहनों ने न जाने कितने शहरों को देखा, खूब घूमे-फिरे, नौकर-चाकर का सुख देखा...और तो और, उनका भरपूर प्यार-दुलार पाया। बाबूजी ने कभी बेटा-बेटी में कोई फ़र्क नहीं समझा। हम जो चाहते, हमें मिलता। हम लोगों की सुख की ही खातिर बाबूजी ने रिटायर होने के बाद भी काम करना बन्द नहीं किया। उन्होंने लेबर-लॉ की प्रैक्टिस शुरू कर दी और कुछ ही सालों में शहर के जाने-माने लेबर लॉ एडवाइज़र में उनका नाम शुमार हो गया। इसी दौरान मेरी और दो भाइयों की शादी भी हो चुकी थी। दोनो भाई इसी शहर में अपने परिवार के साथ रहते हैं और सुख-दुख में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवा देते हैं।
     सत्तर के करीब पहुँचते ही बाबूजी को दिल का दौरा न पड़ता तो वे अपनी प्रैक्टिस कभी नहीं छोड़ते, पर एक के बाद जल्दी ही दुबारा दौरा पड़ने पर डॉक्टर ने सख़्ती से उन्हें पूरा आराम करने की सलाह दी।
     डॉक्टर ने सलाह क्या दी, बाबूजी का तो जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया। जो कमरा हमेशा उनके क्लाइण्ट्स से भरा रहता था, वह धीरे-धीरे खाली होने लगा और उसके साथ ही शायद बाबूजी के अन्दर भी एक खालीपन भरने लगा था, जिसे हम लोग समझ नहीं पाए थे। बाबूजी एकाकी पड़ गए थे। घर में अम्मा और छुटकी उनके ज़्यादा क़रीब थे। मैं उनकी दुलारी बेटी होने के बावजूद अपने घर में थी। कभी-कभार जाती तो बाबूजी से ढेर सारी बातें होती। उस दिन बाबूजी अपने मन की ढेरों बातें करते जिसमें भाई-बहनों की शिकायतें भी शामिल होती। किसने कब बाबूजी को क्या कहा, भूले-भटके किसी के आने पर किसने उन्हें टरका दिया, उनकी फ़ाइलों को उनसे बिना पूछे किस तरह चादर में बाँध कर टाँड़ पर फेंक दिया गया, आदि-आदि...।
     यह सब शिकायतें करते वक़्त बाबूजी का चेहरा देखते ही बनता था। ऐसा लगता था जैसे मैं उस घर की बड़ी-बूढ़ी हूँ और उनकी शिकायत पर सबको डाँट लगाऊँगी। मैं अक्सर ऐसा करती भी...। कई बार उनकी फ़ाइलों पर से गर्द झाड़ कर उनके पलंग के पास वाली अलमारी में रख देती थी और तब बाबूजी रात-रात भर जाग कर उनका इस तरह अध्ययन करते थे, मानो दूसरे दिन किसी केस के सिलसिले में उन्हें कोर्ट ही तो जाना है...।
     मैं वहाँ चार फ़ाइलें झाड़ कर रखती तो कुछ दिनों में उनमें से दो-तीन गायब हो जाती। उनके गायब होते ही बाबूजी के चेहरे पर एक अजीब सी बेचैनी पसर जाती। पनीली आँखों से वे मेरे या अम्मा की ओर देखते। अम्मा बेचारी क्या करती, पर मुझसे ज़्यादा बर्दाश्त नहीं होता था। भाई-बहनों की ऐसी हिमाकत...। वे रात भर जाग कर पढ़ें या दिन भर सोएँ, किसी से मतलब...? मैं पूरी ताकत से सब पर गरज-बरस पड़ी, पर उतनी ही गर्जना से दूसरी ओर से उत्तर आय़ा,"तुम्हें क्या दीदी...तुम तो बड़े आराम से अपने घर रहती हो...। यहाँ सहना तो हमें पड़ता है। सारी रात कमरे की बत्ती जला कर पागलों की तरह ज़ोर-ज़ोर से पढ़ते हैं और फिर खुद ही जिरह करने लगते हैं...। तुम कुछ समझती तो हो नहीं...वह पहले जैसे नहीं हैं...पूरे पागल हो चुके हैं...।"
     यह याशी थी, भाई-बहनों में सबसे तेज़...बेहद लड़ाका...। बाबूजी को ‘पागल’ कह कर जिस तरह उसने उनका अपमान किया था, उससे तो जी चाहा कि एक ज़ोर का थप्पड़ उसके गाल पर धर दूँ, पर सिर्फ़ सोच कर रह गई। थप्पड़ मारने का नतीज़ा एक बार भुगत चुकी हूँ। याशी ने घर पर जो बवाल किया था, उसे याद कर आज भी दुःखी हो जाती हूँ...।
     घर में अगर कोई बीमार पड़ जाए तो बहुत कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है। मेरा घर भी कुछ ऐसा ही हो गया था। बाबू जी के बीमार पड़ जाने के कारण इधर मेरा भी घर से जल्दी-जल्दी निकलना हो रहा था। यह तो अच्छी बात थी कि आलोक ने कभी मेरे इस तरह आने-जाने पर रोक नहीं लगाई। आशू भी सीधा ही था। खाना बना कर अक्सर मैं रख देती, तो बाप-बेटे गरम कर के चुपचाप खा लेते। उन्हें बाबूजी के बारे में पता था पर कभी ज़्यादा खोज़बीन नहीं करते थे। उन्हें अपने मायके के बारे में बताना मुझे भी पसन्द नहीं था। सबकी अपनी ज़िन्दगी और उससे जुड़ी परेशानियाँ थी, कोई कितना परेशान होता...पर वे मेरे तो बाबूजी थे...और वो भी ऐसे बाबूजी जिन्होंने काफ़ी कष्ट से अपने बच्चों की ज़रूरतों को पूरा किया था, बिना किसी को इस बात का अहसास कराए हुए...। आज जब आशू के लिए मैं कुछ ऐसा करती हूँ तो बड़ी शिद्दत से इस बात का अहसास होता है...।
     रात मेरे जागरण के बावजूद आसानी से कटी। इस दौरान मैने चार-पाँच बार अम्मा को फोन कर के बाबूजी का हाल लिया था। नींद की दवा के असर से बाबूजी खा तो कुछ नहीं पाए, बस अम्मा जो ज़बर्दस्ती, फुसला कर उन्हें दूध पिला पाई थी, वही पीकर सारी रात गहरी नींद सोते रहे...पर सुबह...?
     एकदम अल्लसुबह जैसे तूफ़ान आ गया। मैने आलोक और आशू का नाश्ता दिया ही था कि अम्मा का फोन आ गया। वह बुरी तरह रो रही थी,"बिट्टोऽऽऽ...मेरा तो जीना दुश्वार हो गया है...। कोई भी मुझसे नहीं सम्भल रहा...।"
     "क्यों, क्या हो गया...?"
     "किसी ने पता नहीं कब बाबूजी का बनाया बगीचा मेज पर से हटा दिया है। पूछने पर कोई बता नहीं रहा है। मैं क्या करूँ...? सुबह उठते ही बाबूजी को अपना बगीचा नहीं दिखा तो उन्होंने जो उत्पात मचाया कि मैं तुझसे क्या कहूँ...। गुस्से मेम पूरा घर तहस-नहस कर बिना कुछ खाए-पिए बैठे हैं...। बहुत मजबूर होकर फोन किया है...। आलोक बाबू भी क्या सोचेंगे...।"
     अम्मा फिर रोने लगी थी। मैने उन्हें आने का बोल कर फोन रखा ही था कि आलोक सामने आ गए,"क्या हो गया...? इतना परेशान क्यों हो...?"
     "कुछ नहीं...बाबूजी की हालत ठीक नहीं है...।" रोकते-रोकते भी मेरे आँसू छलक ही पड़े थे।
     "अरे...इसमें रोने की क्या बात है...? पहले बताया होता न...चलो, आज छुट्टी लेकर उन्हें डॉक्टर को दिखा देता हूँ...।"
     "नहीं...आप परेशान न होइए...। नितिन-आशीष हैं न...। ज़रूरत पड़ी तो मैं आपसे खुद कहूँगी...।"
     मैं आलोक को अपने मायके की इस स्थिति के बारे में कुछ बताना नहीं चाहती थी। उनके परिवार में सब बहुत शालीन और बड़ों का सम्मान करने वाले थे, पर मेरे यहाँ...?
     जब तक बाबूजी और अम्मा सशक्त थे, सभी शायद डर की वजह से उनका सम्मान करते थे, पर उनके अशक्त होते ही...। माता-पिता तन और मन से अशक्त हो जाएँ तो क्या बच्चों के लिए फ़ालतू हो जाते हैं? यह बात सोच कर अक्सर मैं डर जाती थी। कहीं आशू ने भी हमारे साथ यही किया तो...?
      अम्मा ने मेरे डर को दूर करने की कोशिश की थी,"बिट्टॊऽऽऽ...सारी दुनिया के बच्चे एक जैसे स्वभाव के नहीं होते। हर घर में ऊँच-नीच होती रहती है। अब अपने ही घर में देख लो। छोटी, तुम और सीमा...तीन मेरे ऐसे लायक बच्चे हो जिसने कभी हम दोनो का अपमान नहीं किया पर...।" समझाते-समझाते अम्मा रो ही पड़ी थी,"पर बाकी...? उस दिन मेरा कलेजा ही फट गया था जिस दिन आशीष ने गुस्से में कहा था...इससे तो अच्छा बाबूजी मर ही जाएँ...। इनके मरने से किसी को फ़र्क नहीं पड़ेगा...।"
     उस दिन तो मैं भी सकते में आ गई थी। कोई औलाद अपने बाप के लिए ऐसा भी सोच सकती है, पर ये दुनिया है...यहाँ कुछ भी हो सकता है...।
     आलोक और आशू चले गए तो मैं भी तैयार हो कर अम्मा के घर पहुँच गई पर ये क्या...?
     भीतर अजीब तरह की अस्त-व्यस्तता थी। डाइनिंग टेबिल पूरी तौर से साफ़ था...। सारे गमले और भगवान की मूर्तियाँ अपनी पुरानी जगह पर थी। बाबूजी का तख़्त वहाँ से उठा कर बरामदे में डाल दिया गया था और्र बाबूजी...? वे तो पहले की तरह सबसे आगे वाले कमरे में गावतकिया लगाए गुमसुम बैठे थे...। कुछ इस तरह जैसे किसी ने उनकी पूरी दुनिया ही लूट ली हो...।
     अम्मा उन्हें समझा कर हार गई थी पर वे अपने बिस्तर से किसी तरह उठने को तैयार नहीं थे। मैने भीतर झाँका, पर वहाँ भी एक अनकहा सन्नाटा पसरा था...। रसोई ठण्डी पड़ी थी...। जिसे जहाँ जाना था, अपने काम और पढ़ाई के लिए गया। छोटी और सीमा चुपचाप बैठी थी। मुझे देखा तो उठ कर पास आ गई,"तुम आ गई दीदी...अब तुम्ही सम्हालो बाबूजी को...। सुबह इस कदर तूफ़ान मचा रखा था कि सम्भाले नहीं सम्भल रहे थे...। आशीष भैया ने मारने के लिए हाथ उठाय तब कहीं जा कर चुप हुए...।"
      "क्याऽऽऽ...?" मैं लगभग चीख पड़ी थी,"उस कमीने की इतनी हिम्मत कि बीमार बाप पर हाथ उठाए...? आने दो उसे...हाथ न तोड़ दूँ उसका तो कहना...। उसने समझ क्या रखा है...? अम्मा-बाबूजी को एकदम असहाय-अकेला समझता है...? अरे, अभी मैं हूँ...किसी को उनके साथ अन्याय नहीं करने दूँगी...।"
      मेरी चीख सुन कर अम्मा दौड़ी चली आई,"चुप कर बिट्टोऽऽऽ...बात बढ़ाने से कोई फ़ायदा नहीं...। आशीष धमकाता नहीं तो ये चुप भी न बैठते...। बड़ा तूफ़ान मचा रखा था...।"
     "अम्मा तुम भी...?" मैने आश्चर्य से अम्मा की ओर देखा। अम्मा की आँखों में गबरू-जवान बेटों का अनकहा ख़ौफ़ साफ़ झलक रहा था। बाबूजी की इस हालत के चलते वे अपने को बेहद असहाय महसूस कर रही थी। अभी तीन अनब्याही बेटियाँ बैठी हुई हैं, उनका क्या होगा?
     अम्मा की आँखों में उतरे इस ख़ौफ़ और बेचारगी को देख कर मैं भी शान्त हो गई। अम्मा का डर ग़लत नहीं था। मैं तन से साथ दे सकती थी, पर बाकी काम...? घर चलाना...बहनों की शादी...हारी-बीमारी...?
     मैने डरते-डरते बाबूजी के कमरे में झाँका। बाबूजी एकदम पत्थर के बुत की तरह बैठे थे। दिमाग़ी हालत ठीक न होने के बावजूद उन्हें गहरा सदमा लगा था। जिन बाबूजी की बुद्धिमत्ता का लोग लोहा मानते थे, उन्हें बेहद सम्मान देते थे, उनकी ऐसी हालत देख कर मेरा कलेजा मानो फट-सा गया था, पर मैं कर ही क्या सकती थी, सिवाय उन्हें सान्त्वना देने के...?
     अम्मा ने मुझे भीतर जाने का इशारा किया तो मैं धीरे से जाकर बाबूजी के पास खड़ी हो गई,"बाबूजीऽऽऽ...चलिए...उठिए...मुँह-हाथ धोकर कुछ खा लीजिए...। आपने तो रात में भी कुछ नहीं खाया...।"
     प्रत्युत्तर में बाबूजी दहाड़ मार कर रो पड़े। बड़ी देर से रुका बाँध का पानी भरभरा कर पूरे वातावरण को बहा ले गया,"बिट्टोऽऽऽ, तू आ गई...। देखोऽऽऽ...ये लोग मुझे मारते हैं...। मैं कमज़ोर हो गया हूँ न...।"
     अपने संघर्ष भरे दिनों में भी कभी न हारने वाले बाबूजी इस कदर टूट जाएँगे, मैने कभी सपने में भी नहीं सोचा था, पर आज...?
     मैने अपने को तो सम्भाल लिया पर माँ नहीं सम्भल पाई, रो ही पड़ी,"इनकी हालत देख रही है...? ऐसे कैसे जी पाएँगे...?"
     "कुछ नहीं होगा अम्मा...। डॉक्टर को दिखा कर मैं आज ही इनका कुछ इन्तज़ाम करती हूँ...। तुम परेशान न हो...।"
     अम्मा को समझा कर मैं बाबूजी की ओर मुड़ी। वे मसूम बच्चे की तरह अब भी रो रहे थे। सहसा मुझे नीता की बात याद आई,"बुढ़ापे में आदमी एकदम बच्चा बन जाता है और अगर बीमार होकर असहाय हो जाए तो...। उफ़! एक बच्चे की तरह उनकी देखभाल करनी पड़ती है।" पर यहाँ...?
      बाबूजी शुरू से ही भारी बदन के रहे हैं। आज भी बीमारी के बावजूद वो भारीपन बरकरार है। मुझसे अकेले नहीं उठाए गए तो छोटी को बुलाया। उन्हें किसी तरह बहला कर गुसलखाने तक ले गई। उन्हें नहला-धुला कर कपड़ा पहनाने के लिए रोज़ की तरह अम्मा पहले से ही मौजूद थी, सो हम दोनो बाहर निकल आए...।
      "दीऽऽऽदी...बिना चश्मे के बाबूजी को ठीक से दिखाई नहीं देगा न...। वो तो बाथरूम में भी चश्मा पहन कर जाते हैं...।"
     "अरे, मैं तो भूल ही गई...कहाँ है उनका चश्मा...?"
     प्रत्युत्तर में छोटी ने टूटा हुआ फ़्रेम मेरे आगे कर दिया,"गुस्से में बाबूजी ने इसे तोड़ दिया...।"
     अभी मैने टूटे फ़्रेम को हाथ में लिया ही था कि तभी धम्म की तेज़ आवाज़ हुई। अम्मा के कमज़ोर हाथ आज बाबूजी के भारी बदन को सम्भाल नहीं पाए या कुछ और हुआ...ये देखने हम दोनो भीतर दौड़े और फिर एकदम जड़ हो गए।
     बाथरूम के फ़र्श पर बाबूजी औंधे पड़े थे। उनका सिर नल से टकरा कर फट गया था और उनको सम्भालने की कोशिश में अम्मा खुद फिसल गई थी...। दोनो की ऐसी हालत देख कर घर मे कोहराम मच गया था। मैने किसी तरह अम्मा को उठाने के बाद दोनो बहनों की मदद से बाबूजी को बिस्तर तक पहुँचाया। छोटी ने तुरन्त भाइयों को फोन किया और मैं चौराहे के डॉक्टर विनीत को बुलाने दौड़ पड़ी...।
     डॉक्टर के पास जाने और आने में लगा समय मानो एक युग की तरह लगा। भीतर कमरे में डॉक्टर बाबूजी का मुआयना कर रहा था और अम्मा उनके माथे को कपड़े से दबाए तेज़ी से बहते खून को रोकने का असफ़ल प्रयास कर रही थी...और मैं...?
     मैं उस पल खुद पत्थर की बुत बन गई थी...। पूरा तन बेजान-सा था पर आँखें अम्मा पर टिकी थी...। गुलाबी रंग की सिल्क की साड़ी...कलाई भर लाल-हरी काँच की ढेर सारी चूड़ियाँ...माथे पर अठन्नी भर टीका और माँग में ढेर सारा सिन्दूर...। अम्मा उम्र के साथ बहुत कुछ भूलने लगी थी पर इस साजो-श्रंगार को एक पल के लिए भी नहीं भूलती थी...। यह उनके सुहागन होने का प्रतीक-चिह्न जो था...पर इस पल...?
     सहसा अम्मा दहाड़ मार कर रोने लगी तो मुझे जैसे होश आया। डॉक्टर विनीत ‘न’ में सिर हिला कर चले गए थे,"सीवीयर हॉर्ट अटैक...सब कुछ ख़त्म हो गया...।"
     बाबूजी नहीं रहे। कानो को सहसा विश्वास नहीं हो रहा था...यह कैसे हो सकता है...? अभी थोड़ी देर पहले ही तो मैं उन्हें समझा रही थी। पल जैसे थम गया था...। बाबूजी बिन कुछ खाए चले गए थे। साथ ही अपने भीतर दुःख लिए हुए भी...। बाबूजी का दुःख मैं दूर नहीं कर पाई। वह दुःख अब मेरे भीतर भर गया था, पर ज़्यादा देर रुका नहीं...बाँध तोड़ कर बाहर आ ही गया...। मैं बाबूजी से लिपट कर बिलख उठी। मुझे अम्मा को सम्हालना था, पर अम्मा मुझे सम्हाल रही थी।
     पूरा घर एक अजीब तरह के शोर से भर गया था। छोटी ने सबको फोन कर दिया था। भाई-भाभी...नाते-रिश्तेदार...अड़ोसी-पड़ोसी सभी तो आ गए थे और अपने-अपने तरीके से अम्मा को धीरज बँधा रहे थे, पर अम्मा...?
     छोटी ने बताया था, कल अम्मा पूरी रात रोती रही थी और अब उनकी आँखें एकदम सूखी थी। ख़बर पाकर तुरन्त आ गए आलोक और आशू की ओर अम्मा ने तटस्थ भाव से देखा, कुछ इस तरह जैसे कुछ हुआ ही न हो...। आँखों के भीतर पानी का स्टॉक कुछ इस तरह सूख गया था जैसे कोई नदी अपनी छाती पर ढेर सारी भुरभुरी मिट्टी व रेत के आ जाने पर सूख जाती है...।
     मुझे अन्दाज़ा भी नहीं था कि एक बाबूजी के चले जाने से घर का वातावरण इस कदर असामान्य हो जाएगा...। भीतर दालान में कुण्डे से लटके पिंजरे में तोता ज़ोर-ज़ोर से चीख रहा था...। काफ़ी देर से चुप बैठी अम्मा सहसा ही रमन की ओर घूमी,"इतनी देर से मिठ्ठू चिल्ला रहा, उसे कुछ खाने को दे दो...भूखा है...। रात से उसने कुछ नहीं खाया है...।"
      सहसा कइयों की निगाह अम्मा की ओर घूम गई पर अम्मा ने किसी की ओर नहीं देखा। ऐसा लगा जैसे वे नींद में हों...। मैं अम्मा की हालत को समझ रही थी। ऊपर से शान्त दिख रही अम्मा के भीतर कितनी उथल-पुथल थी, यह कोई भी नहीं जान पाया। भीतर के उस भयानक तूफ़ान ने उनका सब कुछ तहस-नहस कर दिया था, पर फिर भी वे अपनी गृहस्थी को बिखरने नहीं देना चाहती थी...।
     बाहर बाबूजी को घाट पर ले जाने की तैयारी शुरू हो चुकी थी...। बाबूजी के निर्जीव शरीर के पास बैठी मैं उन्हें एकटक देख रही थी, पर बाहर देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। उस समय तो मेरी हिम्मत बिल्कुल टूट गई जब बाबूजी को नहलाने-धुलाने के समय बाकी औरतों के साथ मुझे भी बाहर जाने को कहा गया...। मेरे भीतर एक गहरा अपराधबोध भर गया। न मैं बाबूजी को नहाने भेजती, और न शायद वे इस तरह जाते...। इस बात को याद कर-कर के मेरा कलेजा फटा जा रहा था...।
      आलोक मुझे धीरज बँधा रहे थे और मैं बच्चों की तरह बिलख रही थी...। छोटी, याशी और सीमा का भी बुरा हाल था। वे सब बारी-बारी से अम्मा को भी सम्हाले हुए थी। सहसा भाइयों ने बाबूजी की अर्थी को कन्धा दिया तो एक हाहाकार-सा मच गया...। उस क्षण मैं एकदम असहाय सी हो गई थी। सफ़ेद चादर और फूलों से ढँके बाबूजी हमेशा के लिए जा रहे थे और मैं कुछ भी नहीं कर पा रही थी...। अम्मा भी गिरती-पड़ती बाबूजी के पीछे भागी पर थोड़ी दूर पर ही गिर पड़ी। अपना दुःख भूल कर मैं अम्मा को संभालने लगी। उन्हें धीरज बँधाते हुए मैं किसी तरह घर लाई, पर घर कहाँ था...? वो तो जैसे श्मशान-सा बन गया था...।
     पल भर में घर एकदम शान्त हो गया था।
     "बाबूजी को कुछ समय के लिए अस्पताल में भर्ती कर दो तो घर में थोड़ी शान्ति हो जाए...। जब देखो तब घर में शोर मचाए रहते हैं...।"
     आशीष की यह बदतमीज़ी भरी बात याद करके मुझे रुलाई के साथ गुस्सा भी आ रहा था। लो, आशीष की इच्छा पूरी हो गई न...। अब बाबूजी कभी शोर नहीं मचाएँगे...। उनकी आवाज़ सुनने को हम सब तरस जाएँगे...।
     मातमपुर्सी में आए लगभग सारे लोग जा चुके थे। घाट से लौटने में भाइयों को अभी देर थी। भाभियाँ घर की धुलाई करने में जुटी थी। मैने घर के हर हिस्से पर नज़र घुमाई, पर अम्मा कहीं नहीं दिखी...। छॊटी से पूछने ज ही रही थी कि तभी गुसलखाने से अम्मा की तेज़ रुलाई मेरा कलेजा चाक कर गई। छोटी उस ओर दौड़ी पर मैने रोक दिया,"आज अम्मा का दुःख पूरी तरह से बह जाने दो...।"
     भीतर गुसलखाने में अम्मा और बाहर हम सब फूट-फूट कर रो रहे थे...। सबका दुःख अपने तरीके से बाँध तोड़ कर बह रहा था...। सब कुछ जैसे ख़त्म हो गया था।
     आज तेरह दिन बीत गया है, पर इन तेरह दिनों में भी बाबूजी ने मेरे इर्द-गिर्द अपनी उपस्थिति दर्ज़ रखी...। अक्सर लगता जैसे बाबूजी कभी इस घर से गए ही नहीं और जाने क्यों लगता कि अगर वे गए नहीं तो भला बिना चश्मे के उनका काम कैसे चलेगा...? सो अपने घर लौटने से पहले मैने दो काम किए...एक तो जैसा चश्मा मैने बाबूजी को पहले बनवा कर दिया था, ठीक वैसा ही दूसरा भी बनवा कर ले आई...और दूसरा, उनकी वह मोटी-सी लॉ की किताब ढूँढ कर निकाली, जो वो अक्सर पढ़ते रहते थे। अपनी प्रक्टिस के दौरान तो रात-रात भर जाग कर भी उसको पढ़ते देखा था मैने...। ये दोनो चीज़ें मैने मेज़ पर रखी उनकी तस्वीर के आगे रख दी और फिर अम्मा को बहुत सारी हिदायतें दे कर वापस अपने घर आ गई...।
     घर में इतने सारे काम हो गए थे कि एक हफ़्ता कैसे निकल गया, पता ही नहीं चला। अब मेरे भीतर एक हूक-सी उठने लगी, जाकर अम्मा को देखूँ तो सही...अब कैसी हैं...? सिर्फ़ फोन करते रहने से क्या होता है...।
     गेट खोल कर अन्दर घुसी तो एक अजीब-से मातमी सन्नाटे ने मुझे चारो ओर से घेर लिया। सब कॉलेज, ऑफ़िस वगैरह गए होंगे, पर बाबूजी के कमरे से भुन-भुन की आवाज़ आ रही थी। सबसे पहले मैं उसी ओर गई।
     कमरे की चौखट पर पाँव धरा ही था कि चार सौ चालीस वोल्ट का झटका सा लगा...। सामने बाबूजी की तस्वीर के आगे पालथी मार के बैठी अम्मा आँखों पर बाबूजी का नया चश्मा लगाए पूरी तल्लीनता से उनकी वो मोटी-सी लॉ की किताब पढ़ने की कोशिश कर रही थी...।

रविवार, 27 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (२७)


एक नन्हीं सी लड़की 
शांत लहरों सी 
क्षितिज के पार 
रहस्यों की खोज में
अड़ी सी खड़ी है 
लगती है मौन तपस्विनी सी 
...
मैंने सोचा लिखूं कुछ उसपे
रहस्यों के परदे खोलूं 
पाँव बढ़ाये जो मैंने 
वह तप के सिन्धु में डूबता ही गया 
शांत लहर सी वो लड़की 
रही खडी मौन तपस्विनी सी 
...
मैंने उसके भावों को लिखना चाहा 
पर  मिले न कोई  मुझको शब्द ऐसे
मैंने चाहा उसको रेखांकित करूँ
पर ना बनी कोई भी रेखा वैसी
शब्द शब्द में मैंने उसे पिरोना चाहा 
पर  चाह के भी उसको  पिरो ना  सका 
शांत गहरी  झील सी आँखों में उसके 
प्यार की ख्वाहिश थी बड़ी ही  गहरी 
और प्यार को शब्दों में भला कैसे लिखता  !
....
पर हार अपनी मानता कैसे  भला 
कानों में धीरे से उसके कहके आया 
क्षितिज  के उस पार मेरा प्यार है तेरे लिए 
दो कदम चलना है बस उसके लिए 
...
देखते ही देखते वह शांत सी लड़की 
इन्द्रधनुष सी मुखर हो उठी 
जो लहर भीतर कहीं रुक सी गई थी 
पुरवाई सी बनकर बहने लगी 
....
अब नहीं लिखना है उसको 
देखना है 
सूक्ष्म कण कण में वो अंकित हो उठी है 
प्यार के हर रूप में वह जी उठी है 
और  खुद में लेखनी सी हो गई है .........

हीर  .....

मेरा फोटो


इश्क़ इक खूबसूरत अहसास  ....

तुमने ही तो कहा था 
मुहब्बत ज़िन्दगी होती है 
और मैंने  ज़िन्दगी की तलाश में 
मुहब्बत के सारे फूल तेरे दरवाजे पर टाँक दिए थे 
 तुमने भी खुली बाहों से उन फूलों की महक को 
अपने भीतर समेट लिया था 
उन दिनों पेड़ों की छाती से 
फूल झरते थे 
हवाएं नदी में नहाने जातीं 
अक्षर कानों में गुनगुनाते 
छुईमुई सी ख़ामोशी 
आसमां की छाती से लिपट जाती 
लगता कायनात का कोना -कोना 
मुहब्बत के रंग में रंगा 
चनाब  को घूंट घूंट पीये जा रहा हो 
छत पर चिड़ियाँ मुहब्बत के गीत लिखतीं 
रस्सी पर टंगे कपड़े 
ख़ुशी से झुम -झूम मुस्कुराने  लगते 
सीढियों की हवा शर्माकर हथेलियों में 
चेहरा छिपा लेती .......

तुमने ही तो कहा था 
मुहब्बत ज़िन्दगी होती है
और मैं मुहब्बत की तलाश में 
कई छतें कई मुंडेरें लांघ जाती 
न आँधियों की परवाह की 
न तूफ़ानों की  ...
सूरज की तपती आँखों की 
न मुझे परवाह थी न तुझे 
हम इश्क़ की दरगाह से 
सारे फूल चुन लाते
और सारी-सारी रात उन फूलों से 
मुहब्बत की नज़्में लिखते ....

उन्हीं नज़्मों में मैंने 
ज़िन्दगी को पोर पोर जीया था 
ख़ामोश जुबां दीवारों पे तेरा नाम लिखती 
मदहोश से हर्फ़ इश्क़ की आग में तपकर 
सीने से दुपट्टा गिरा देते ...
न तुम कुछ कहते न मैं कुछ कहती 
हवाएं बदन पर उग आये 
मुहब्बत के अक्षरों को 
सफ़हा-दर सफ़हा पढने लगतीं ...

तुमने ही तो कहा था 
मुहब्बत ज़िन्दगी होती है 
और मैंने कई -कई जन्म जी लिए थे 
तुम्हारी उस ज़रा सी मुहब्बत के बदले  
आज भी छत की वो मुंडेर मुस्कुराने लगती है 
जहां से होकर मैं तेरी खिड़की में उतर जाया करती थी 
और वो सीढियों की ओट से लगा खम्बा 
जहां पहली बार तुमने मुझे छुआ था 
साँसों का वो उठना वो गिरना 
सच्च ! कितना हसीं था वो 
इश्क़ के दरिया में 
मुहब्बत की नाव का उतरना 
और रफ़्ता -रफ़्ता डूबते जाना ....डूबते  जाना  .....!!

शनिवार, 26 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (२६)


औरतें ले आती हैं 
अलगनी से उतारकर 
भूलभुलैया से खोजकर 
अपनी पहचान 
तोड़ देती है वह आइना 
जिसमें उनका चेहरा स्पष्ट नहीं होता 
!!!
औरतें तभी तक अपरिचित होती हैं परिस्थिति से 
अपने आप से 
जब तक उनकी सहनशक्ति उनके साथ होती है !!!

अमृता तन्मय 
Amrita Tanmay

नष्ट नहीं हुई हूँ मैं .......

जीवित सत्य से भ्रष्ट की गयी हूँ
मिथ्या सत्य से त्रस्त की गयी हूँ
समाज से या स्वयं से
बनाने/बचाने में ही
हाय! कैसे मैं नष्ट की गयी हूँ

अब मैं धिक्कार लूँ ?
या आग की ललकार लूँ ?
या दर्द से दुलार लूँ ?
या काट की तलवार लूँ ?

केवल मैं धिक्कार हूँ ?
या स्वयं से स्वीकार लूँ ?
या समाज से प्रतिकार लूँ ?
या द्वंद से दुत्कार लूँ ?

अनजान होना पड़ता है कुछ जानकर भी
बहुत कुछ मानना पड़ता है न मानकर भी
साँचे में ढालना पड़ता है स्वयं को सानकर भी

कैसे मैं धिक्कार लूँ ?
कैसे प्रतिगत प्रहार लूँ ?
कैसे निर्वीर्य आभार लूँ ?
कैसे प्रतिपापी आधार लूँ ?

क्या मैं धिक्कार लूँ ?
या क्या केवल विष-आहार लूँ ?
या क्या सत्य से ही निवार लूँ ?
या क्या मिथ्या से भी अंगार लूँ ?

सबकुछ भष्म करने को लपलपाती हुई जीवित आग है
प्राण में भी उन्मन सा सरसराता हुआ नाग है
अर्थ , उद्देश्य , लक्ष्य क्या ? या जीवन ही विराग है

धिक्कार , धिक्कार , धिक्कार दूँ
इस मृत समाज को धिक्कार दूँ
सब मृत सत्य को धिक्कार दूँ
और मृत जीवन को भी धिक्कार दूँ

क्यों मैं धिक्कार लूँ ?
क्यों न विक्षोभ का हाहाकार लूँ ?
क्यों न विरोध का विकार लूँ ?
क्यों न विद्रोह का आकार लूँ ?

जीवित सत्य से भ्रष्ट की गयी हूँ मैं
मिथ्या सत्य से त्रस्त की गयी हूँ मैं
सत्य है , सबसे नष्ट की गयी हूँ मैं
पर आह ! नष्ट नहीं हुई हूँ मैं .

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (२५)


कई बार लगा फ़ेंक दूँ शब्दों का सामर्थ्य 
कुछ कहने-सुनने से कुछ नहीं होता 
सबकी अपनी डफली 
अपना राग है  ... 
सच / झूठ के आवरण हटाकर होगा क्या 
सब अपनी सोच से चलते हैं 


कितनी संवेदनाएं मर गयी हैं संसार में
**************************************

आह !
झटक कर फेंक देती हूँ सुबह का अखबार 
ये हत्या ये लूटपाट
आगजनी ,बलात्कार
नर हो गया है पशु
कितनी संवेदनाएं मर गयी हैं संसार में
अगले ही पल एक आस लिए
ढूँढने को निकल पड़ती हूँ संवेदनाएं
कहीं तो होंगी ,कुछ तो होंगी
बची हुई
राख के ढेर बची हुई
मिल गया एक अध्यापक
जो विद्यालय में न पढ़ा
दवाब डालता है मासूमों पर ट्यूशन के लिए
ये जानते हुए की
इस मोटी रकम के लिए
ननकू की अम्मा
तडके निकलेगी एक और घर बर्तन धोने को
नहीं करेगी ईलाज जानलेवा खाँसी का
...........कितनी संवेदनाएं मर गयी हैं संसार में
मिल गया एक डॉक्टर
जो आई सी यू में भर्ती मरीज के
रिश्तेदारों को नहीं दे रहा मिलने की ईजाज़त
क्योकि उसे वसूलना है
अनेको अनावश्यक स्वास्थ्य परीक्षणों का बिल
फिर धीरे से घोषित कर देना है
घंटों पहले मरे हुए को मृत
...........कितनी संवेदनाएं मर गयी हैं संसार में
मिल गया एक पत्रकार
जो किसी बड़ी दुर्घटना के बाद
उत्सुकता से पल -पल
प्रार्थना रत था मरने वालों की संख्या में ईजाफे में
ताकि बिक सके उसकी ये
बड़ी खबर
.........कितनी संवेदनाएं मर गयी हैं संसार में
मिल गया एक व्यापारी
जो बेचता है
जल्द मौत
नकली दवाइयों में
या धीमी -धीमी मौत
खाने के सामानों में मिलावट करके
............ कितनी संवेदनाएं मर गयी हैं संसार में
निराश सी लौटने लगती हूँ घर
तभी दिख जाती है एक पागल बुढिया
जिसका जवान बेटा सीमा पर लड़ते हुए
हो गया था शहीद
मिला था उसे मात्र तिरंगे में लिपटा पुत्र शव
और बस आश्वासन
द्रवित ह्रदय से खोलते हुए पर्स
अचानक ठिठक जाते हैं
मेरे हाथ
और मुझे दिखाई देने लगता है
अपनी नयी कहानी का पात्र
अब तो आना पड़ेगा रोज यहाँ
देखने ये दर्द ये बेबसी ये चीखे
सजीव हो सके मेरी कहानी
मिल जाए कोई पुरूस्कार
बंद करके पर्स बढ़ जाती हूँ आगे
कल फिर आने के लिए
.................कितनी संवेदनाएं .............???

गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (२४)


दृष्टि घुमाओ 
दूर दूर तक क्षितिज को सुनो 
कई कहानियाँ हैं 
 ......... 


.
मगर मानवी समझ न पायी, मंजुल मधुर समर्पण गीत !
अधिपति दीवारों का बनके , जीत के हारे पौरुष गीत !
स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम
देवो न जानाति कुतो मनुष्यः
शक्तिः एवं सामर्थ्य-निहितः
व्यग्रस्वभावः , सदा मनुष्यः !
इसी शक्ति की कर्कशता में, पदच्युत रहते पौरुष गीत !
रक्षण पोषण करते फिर भी, निन्दित होते मानव गीत !
निर्बल होने के कारण ही
हीन भावना मन में आयी
सुंदरता आकर्षक होकर
ममता भूल, द्वेष ले आयी
कड़वी भाषा औ गुस्से का गलत आकलन करते मीत !
धोखा खाएं आकर्षण में , अपनी जान गवाएं गीत !
दीपशिखा में चमक मनोहर
आवाहन कर, पास बुलाये !
भूखा प्यासा , मूर्ख पतंगा ,
कहाँ पे आके, प्यास बुझाये !
शीतल छाया भूले घर की,कहाँ सुनाये जाकर गीत !
कहाँ पतंगे आहुति देते, कैसे जलते परिणय गीत ! 

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (२३)


घर तेरा हो 
या मेरा 
छूट जाना है एक दिन 
हम गुम हो जायेंगे 
या तुम 
गुम हो ही जाना है !

आशीष कंधवे 


******मसीहाई आत्मा******

महानगर की
मायावी सड़कों पर
मानवता की
धायल आत्मा
तड़प रही है और
हम अपनी चमचमाती
गाड़ियों से रौंद देते हैं उसे
दिन में हज़ारों बार
लाखों बार
महामानव बन कर।
अपनी सांसो में
मौत को दबाये
पथहीन हम
पारजित हो गए हैं
स्वमं से
इसलिए
हम अपनी आत्मा की बेचैनी को
अब शब्द नहीं दे पा रहे हैं
मेरी कल्पना मजबूत नहीं
मजबूर हो गई है
हालाँकि
मेरी आखें गहराइयों को देख पा रही है
परन्तु,मुझे से लिपटी
सुनहरी धुप
एक अथाह शुन्यता का निर्माण भी कर रही है
और मैं धीरे- धीरे
हरता जा रहा हूँ
समझता जा रहा हूँ अर्थ
ऊँचे पहाड़ पर खड़े
सफल बौनों का।
अब मैं दौड़ता नहीं हूँ
धीरे- धीरे आराम से चलता हूँ
किसी थके हुए बादल की तरह
जीवन के कटानों, दर्रों ढलानों से
संभल कर निकल भी जाएँ तो भी
टकराना तो
अंततः पर्वत शिखरों से ही है !
और मिट जायेगे
बरस जायेगे
समा जायेंगे
मिल जायेंगे
सृष्टि के गुमनाम मिटटी में।
जश्न, जुलुस, झंडियाँ बंदरवार
से कोई समाज नहीं बनता
छाती में सिर्फ आग से
कोई नायक नहीं बनता
उधार के सत्य से
राम -रहमान दोनों घयल हैं
बेजुबान भूख बदजुबान नेता
दोनों दो दिशाओं में दौड़ रहे है
और मैं लाचार
अपने मसीहाई आत्मा के
कुचल जाने का इंतजार कर रहा हूँ
किसी चमचमाती सड़क पर
किसी चमचमाती गाड़ी से।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (२२)


समय कहता रहा,
हम सुनते रहे
कब शब्द उगे हमारे मन में
जाना नहीं
सुबह जब अपने नाम के पीछे
पड़े हुए निशानों को देखा
तो जाना-
एक पगडण्डी हमने भी बना ली ! ……

राजेश उत्साही 

सोमवार, 21 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (२१)


काश  ...
मैं नदी होती 
सागर से मिलने को 
सरगम सी कलकल ध्वनि लिए 
कोई गीत बनकर 
उसके होठों पर थिरकने के लिए 
मीलों बहती 
.... 
अपने शनैः शनैः प्रवाहित मन पर 
तैरती नाव में बैठे 
अज्ञात नाविक से पूछती - 
अँधेरी रात में 
लहरों पर निकलना 
तुम्हारा कैसा महाभिनिष्क्रमण है ?
किस पिपासा की शान्ति चाहिए ?
... 
काश  ... 
मैं नदी होती 


हृषीकेश वैद्य



“कुछ अफ़सोस इतने निजी होते हैं...”


हाँ,
लड़कपन की उम्र थी,
आमने-सामने बैठे थे दोनों।
बीच में लंबी सी मेज़..... खुरदरे हरे सनमाइका वाली।
लड़की ने अपना चेहरा झुका लिया था
नहीं चाहती थी
कि लड़का उसे पढ़े।
और लड़का...
उसे तो ये भी नहीं पता था
कि वो ख़ुद से क्या चाहता है।
गर्मी की दोपहर में,
एक सन्नाटा तारी था
दूर कोई पक्षी चीख रहा था रह-रह कर
चीं चीं चीं चीं !!!
दोनों की बोल-चाल बंद थी,
यही कोई डेढ़ महीनों से।
पिछले डेढ़ महीने....
जो बहुत भारी थे !!!
जिनका बोझ ढोते-ढोते
दोनों निस्तेज हो चले थे।
विदा की बेला भी पास ही थी।
इतनी पास.....
कि उँगली के दो पोरों पर दिन गिन लो।
स्थायी विदाई
उफ़्फ़ !!!!
लड़का उसे बहुत चाहता था,
मगर हेकड़ीबाज़ था।
और लड़की....
वो बस रो रही थी ज़ार-ज़ार।
पिछले चार हफ़्तों से चुप थी।
बिछड़ने से दो दिन पहले रुलाई फट पड़ी।
आँखों से आँसू की धार यूँ रलक रही थी।
ज्यूँ रातभर की बारिश के बाद,
छत से पानी का रेला बहता है।
एक अनवरत रेला,
दीवार के सहारे-सहारे।
लड़के के जी में आया
कि उसके आँसू पोंछ दे।
मगर हिम्मत न जुटा सका......उसके गालों को छूने की !
वो पागल भी पिछली पूरी रात,
चादर को मुँह में दबाये
रोता रहा था भूखा-प्यासा !
फिर बस....
वे जुदा हो गए।
किसीसे सुना था लड़के ने
कि उसकी शादी हो गई।
पिछले बीस सालों में,
तीन बार वो लड़की उसके सपनों में आयी।
कभी उदास सी,
तो कभी प्रश्न भरी आँखें लिये।
हर सपने के बाद,
पूरे-पूरे हफ़्ते लड़के को नींद नहीं आयी।
कुछ अफ़सोस इतने निजी होते हैं...
कि चाहकर भी हम,
उनका ज़िक्र किसीसे नहीं कर पाते।
पता नहीं कैसे....
ये गलती हो जाती है।
नीबू को खड़ा काट कर
हम अफ़सोस मनाते रहते हैं।
तुम अक्सर नाराज़ होती हो ना
कि मैं हर बात का ढिंढोरा पीट दिया करता हूँ;
कि मैं किसी भी बात को व्यक्तिगत नहीं रहने देता;
कि मैं तुम्हारे प्रति मेरे प्यार का इज़हार…..
इतना खुलकर क्यों करता हूँ !!
हीर मेरी....
मैं वो गलती नहीं दोहराना चाहता
जो उस लड़के ने की थी।
कोई मुझ पर हँस ले, गिला नहीं।
पर मैं अपने दिल की बात ना कह पाऊँ,
ये मुझे मंज़ूर नहीं।
ओह गालिब
कैसी-कैसी बातें करते थे तुम भी।
“ या रब !
वो न समझे हैं, ना समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको, जो न दे मुझको ज़बां और।”
कोई ख़ुद होकर,
अपने प्यार का तमाशा नहीं बनाता।
मुनिया मेरी,
बच्ची हो तुम....
मासूम सी।
मेरी एलिस इन वंडर-लैंड,
....... जीयो !!!
तुम्हारा
देव

रविवार, 20 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (२०)



सपने खरीदते 
सपने बेचते 
एक सपना मैंने तुम्हारे लिए भी खरीदा 
स्नेहिल खनखनाती हँसी के झालर लगाये 
पर तुम्हें ठोस हकीकत खरीदने में 
सपनों की गहराई का
उसे हकीकत बनाने के सुकून का पता ही नहीं चला !

 .... कविता रावत  


हर मनुष्य की अपनी-अपनी जगह होती है


हरेक पैर में एक ही जूता नहीं पहनाया जा सकता है।
हरेक  पैर  के  लिए  अपना  ही जूता ठीक रहता है।।

सभी लकड़ी तीर बनाने के लिए उपयुक्त नहीं रहती है। 
सब   चीजें  सब  लोगों  पर  नहीं  जँचती   है।।

कोई जगह नहीं मनुष्य ही उसकी शोभा बढ़ाता  है। 
बढ़िया कुत्ता बढ़िया हड्डी का हकदार बनता है ।।

एक मनुष्य का भोजन दूसरे के लिए विष हो सकता है ।
सबसे  बढ़िया  सेब को  सूअर  उठा ले  भागता  है।।

शहद गधे को खिलाने की चीज नहीं होती है ।
सोना नहीं गधे को तो घास पसंद आती है ।।

हरेक चाबी हरेक ताले में नहीं लग पाती है ।
हर मनुष्य की अपनी-अपनी जगह होती है ।। 
                    

शनिवार, 19 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (१९)


चलो आज सपनों के हाट से एक सपना खरीदें 
बन जाएँ सिंड्रेला 
घुमाके जादुई छड़ी 
ढेर सारी खुशियाँ खरीदें 
एक मुट्ठी लेमनचूस 
थोड़ी खट्टी गोलियाँ 
खुले मैदान में दौड़ें 
आसमान को उछलकर छू लें  .... 

मृदुला प्रधान






चलो आसमान को छू लें 

चलो आज हम अपने ऊपर
एक नया
आसमान बनायें..
सपनों की पगडण्डी पर
हम फूलों का
मेहराब सजायें..
वारिधि की उत्तेजित लहरों से
कल्लोलिनी
वातों में..
अंतहीन मेघाच्छन्न नभ की
चंद रुपहली रातों में..
धवल ताल में
कमल खिलें और नवल स्वरों के
गुंजन में..
धूप खड़ी पनघट से झाँके
नीले नभ के
दर्पण में..
रंगों की बारिश में भीगी
तितली पंख
सुखाती हो..
विविध पुलिन पंखुड़ियों से
जाकर बातें
कर आती हो..
झरने का मीठा पानी
पीने बादल नीचे आयें
पके फलों से झुके
पेड़ पर
तोता-मैना मंडरायें..
सघन वनों की छाया में
छिट-पुट किरणें
रहती हों..
माटी के टीलों पर
पैरों की छापें
पड़ती हों..
जहाँ धरती से आकाश मिले
उस दूरी तक
हम हो लें..
मृदुल कल्पना के पंखों से
आसमान को छू लें..

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (१८)


जीने के कई आयाम होते हैं 
कोई मर जाता है जीते हुए 
कोई दूसरों के लिए संजीवनी बन जाता है  ... 

सुशील कुमार जोशी  
मेरा फोटो

निराशा सोख ले जाते हैं कुछ लोग जाते जाते

आयेंगे 
उजले दिन 
जरुर आएँगे 
उदासी दूर 
कर खुशी 
खींच लायेंगे 
कहीं से भी 
अभी नहीं 
भी सही 
कभी भी 
अंधेरे समय के 
उजली उम्मीदों 
के कवि की 
उम्मीदें 
उसकी अपनी नहीं 
निराशाओं से 
घिरे हुओं के 
लिये आशाओं की 
उसकी अपनी 
बैचेनी की नहीं 
हर बैचेन की 
बैचेनी की 
निर्वात पैदा 
ही नहीं होने 
देती हैं 
कुछ हवायें 
फिजा से 
कुछ इस तरह 
से चल देती हैं 
हौले से जगाते 
हुऐ आत्मविश्वास 
भरोसा टूटता 
नहीं है जरा भी 
झूठ के अच्छे 
समय के झाँसों 
में आकर भी 
कलम एक की 
बंट जाती है 
एक हाथ से 
कई सारी 
अनगिनत होकर 
कई कई हाथों में 
साथी होते नहीं 
साथी दिखते नहीं 
पर समझ में 
आती है थोड़ी बहुत 
किसी के साथ 
चलने की बात 
साथी को 
पुकारते हुऐ 
मशालें बुझते 
बुझते जलना 
शुरु हो जाती हैं 
जिंदगी हार जाती है 
जैसा महसूस होने 
से पहले लिखने 
लगते हैं लोग 
थोड़ा थोड़ा उम्मीदें 
कागजों के कोने 
से कुछ इधर 
कुछ उधर 
बहुत नजदीक 
पर ना सही 
दूर कहीं भी । 

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (१७)



सरहदें विचारों की भी होती हैं 
साल दर साल रचनाकार अपनी कलम के साथ 
आंतरिक,बाह्य आतंक से लड़ता है 
कुछ कहता है 
अपने एकांत की पदचाप के साथ  ... 

गुंजन झांझरिया 

चलते रहना ही होगा।

उम्र भर सारे दुःख दर्द और तकलीफ,
लिखते रहो कविता में गढ़कर,
अपना नज़रिया,
और कभी कभार 
समाज के हालात भी,
कभी जब गलती से ईश्वर दे इतनी ख़ुशी,
कि शब्द ना हो तुम्हारे पास,
चिन्हित कर दो उसे भी,
कविता बनाकर,
और फिर करते रहो मंथन,
मैं हर मंथन में,
खुद को खरा सोना पाती हूँ,
फिर भी समझ से पर है मेरे,
ये तकलीफ और ख़ुशी का चक्र,
सुना तो यही था,
हर ख़ुशी के बाद गम,
हर गम के बाद ख़ुशी आती ही है,
पर जब गम का अंतराल बढ़ता ही जाए,
और कोई ख़ुशी मनाने का मौका आपके हाथ लगे ही ना,
तब कभी कभी लगने लगता है,
कि वो ख़ुशी अब इतिहास ही गई है,
उसका भविष्य बनना मुमकिन नहीं, 
ये जानते हुए भी कि नामुमकिन कुछ भी नहीं,
डर जाती हूँ,
ख़ुशी को दरवाजे पर आता देख,
कि ना जाने अपने साथ कितनी तकलीफें समेट कर लायी होगी,
सहम जाती हूँ क्योंकि कभी इतने लंबे अंतराल के लिए सामना नहीं किया बुरे वक़्त का,
पर खुद पर भरोसा कायम रखना ही जीवन है,
खुद के पैरों को मजबूत करते ही रहना होता है उम्र भर,
ताकि भूल ना जाए आगे बढ़ना,
चलना हमेशा याद रहे,
इसके लिए 
उसे हमेशा याद रखने का अभ्यास 
किया जाता रहना चाहिए।
चलते रहना ही होगा।

लेखागार