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शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (११)



लगता है - समय गुजर गया 
पर अक्सर हम गुजरते हैं,
अपने द्वारा निर्मित तारीखों के कैलेंडर के पन्ने 
पलटते जाते हैं  ... 
प्राकृतिक नियम है 
सूरज का आना-जाना 
प्रकाश और अँधेरा 
..... सबकुछ शाश्वत है 
व्यवधान - हमारा है !!!

आज की प्रतिभा -
--- राजेश्वर वशिष्ठ 

॥ सोलह नवम्बर, 1849 - 2015॥

महीने और तारीखें हर वर्ष आती हैं,
जैसे आते हैं मौसम और ऋतुएँ!
कैलेण्डर में कहाँ होता है
कोई जीवंत नयापन।
समय के रेत पर उभरते हैं
पीड़ा के पुराने निशान,
और हम चमगादड़ों की तरह लटक जाते है
समय के अंधे कुँए में!
इतिहास में दर्ज़ है –
फ्योदोर दोस्तोयवस्की को
इसी दिन रूस की एक अदालत ने
सुनाई थी मौत की सज़ा
क्योंकि उन्होंने पढ़ी थीं
बेलेंस्की की कई पुस्तकें,
उनके थैले से बरामद हुई थी
“गोगोल के नाम पत्र”।
सरकार को शक था
कि वह प्रचारित कर रहे हैं
ऐसा दर्शन जो आलोचना करता है
रूसी राजनीति और ईसाई धर्म की!
ज़ार निकोलस के
परिवर्तित आदेश पर
करते हुए मौत की सज़ा खारिज
हाथ-पाँव बाँध कर
फ्योदोर दोस्तोयवस्की को
भेज दिया गया था
साइबेरिया की ठण्डी घुटन-भरी क़ैद में,
जहाँ रहते थे क़ैदी
किसी सूअर-बाड़े की तरह,
और उन्हें सोना पड़ता था
सिरहाने रख कर बाइबिल का न्यू टेस्टामेंट!
लिखना सम्भव नहीं था
साईबेरिया में रहते हुए
पर दिमाग में बुन लिया गया
“अपराध और दण्ड” जैसा वृहद कथानक!
आज दुनिया भर की
उदार और नीति-सम्मत सरकारें भी
कब चाहती हैं, कि कुछ पढ़े लिखे लोग
परिष्कृत करें
समाज, संस्कृति और व्यवस्था को
और उन्हें बाँध दें किसी नाग-पाश में;
क्योंकि सरकारों को चुनते हैं
ऐसे नागरिक, जो हर तापमान पर
निरापद होते हैं
गीली लकड़ियों की तरह!
चाहे जैसे भी गठित हों,
सरकारें अपनी प्रकृति के अनुसार
असुरक्षित होती हैं
दुध-मुँहे नन्हें बच्चों की तरह
जो प्रायः रहती हैं
अपने पूर्व जन्मों के भयों से आक्रांत!
मुझे नहीं लगता
इन डेढ़ सौ वर्षों में बदला है
दुनिया भर की सरकारों का चरित्र,
मुझे नहीं लगता
इन डेढ़ सौ वर्षों में ज़रा भी बदला है
दुनिया भर के लेखकों का चरित्र!
लेखकों के झोलों में से
अब भी बरामद हो सकती हैं
ऐसी कई किताबें या विचार
जिन्हें टाइम बम की तरह
तुरंत निष्क्रिय करना चाहेगी कोई भी सरकार!
इसलिए संचार क्रांति के युग में भी
लेखक अभिशप्त हैं
कड़ी सज़ा के लिए;
साईबेरिया के यातना शिविर
एक माउस क्लिक पर
घृणा की चादर लपेट कर
घुस आए हैं लेखकों के खुले घरों में!
सरकारें और धर्म रक्षक आश्वस्त हैं
कि बदलते हालात में अपने घरों में ही
तड़पते चूहों की तरह
दम तोड़ देंगे सारे बुद्धिजीवी!
सच बताना फ्योदोर दोस्तोयवस्की
क्या यही नहीं सोचा था
रूस में ज़ार ने!

4 टिप्पणियाँ:

कविता रावत ने कहा…

राजेश्वर वशिष्ठ जी की सुन्दर रचना प्रस्तुति हेतु आभार!

शिवम् मिश्रा ने कहा…

समय अपनी गति से चलता जाता है, साथ साथ हम सब चलते जाते है अपनी अपनी गति से |

kuldeep thakur ने कहा…

इसलिए संचार क्रांति के युग में भी
लेखक अभिशप्त हैं
कड़ी सज़ा के लिए;
साईबेरिया के यातना शिविर
एक माउस क्लिक पर
घृणा की चादर लपेट कर
घुस आए हैं लेखकों के खुले घरों में!
सरकारें और धर्म रक्षक आश्वस्त हैं
कि बदलते हालात में अपने घरों में ही
तड़पते चूहों की तरह
दम तोड़ देंगे सारे बुद्धिजीवी!
सच बताना फ्योदोर दोस्तोयवस्की
क्या यही नहीं सोचा था
रूस में ज़ार ने!
क्या बात है...

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुंदर !

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