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मंगलवार, 26 जून 2012

आपातकाल और हम... ब्लॉग बुलेटिन

च्चीस जून... हिंदुस्तान के लोक-तंत्र का काला अध्याय... एक ऐसा दिन जिसने लोक तंत्र को हिला के रख दिया...  आखिर क्यों हुआ ऐसा? कैसे पहली बार कांग्रेसी सत्ता हिली और देश में परिवर्तन की लहर चल निकली.... आखिर ऐसा क्या हुआ कि इंदिरा गाँधी की जिस सरकार ने आपातकाल थोपा... उसके परिणाम स्वरूप देश ने १९७७ में विपक्ष का रास्ता दिखाया उसी इंदिरा गाँधी की मृत्यु के बाद हुए आम-चुनाव १९८४ में कांग्रेस को ऐतेहासिक विजय दिलाई... आखिर इस शह और मात के खेल में देश की जनता कितनी बदली... हमारा लोक तंत्र कितना परिपक्व हुआ... हम कितने सुधरे और कितने बिगड़े.... 

आईए थोडा इतिहास के आईनें में चलते हैं..... सन सैतालीस को याद करते हैं.... जब हम आज़ाद हुए थे.... या यूं कहें कि अग्रेजों से सत्ता हस्तांरण की प्रक्रिया पूरी हुई थी... जुलाई १९४७ को ब्रिटिश संसद भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ पास करती है और उसी के तहत भारत को दो भागों में विभाजित करनें की प्रक्रिया शुरु होती है। भारत और पाकिस्तान दो देश बनते हैं और दोनों को विरासत में एक दूसरे के साथ उलझे रहनें और दुश्मन समझनें की मानसिकता बल लेती है। आखिर ब्रिटिश राज के जानें और भारत के एक लोकतंत्र बननें की प्रक्रिया पूरी होनें के बाद क्या भारत वाकई में स्वतंत्र हो गया ? दर-असल सत्ता हस्तांतरित ज़रूर हुई लेकिन सभी प्रक्रियाएं उसी प्रकार से चली जैसी अंग्रेज चलाते आए थे... अंग्रेज राज गया और कांग्रेस राज शुरु हुआ। निर्बाध सत्ता.... कोई रोक टोक नहीं... कोई प्रतिबन्ध नहीं.... कांग्रेसी राज चलता रहा क्योंकि विपक्ष के नाम पर कोई था ही नहीं.... समाजवाद की हवा धीरे धीरे चलती रही लेकिन कांग्रेस को कभी कोई गतिरोध का अनुभव नहीं हुआ। 

आपातकाल
१९७५ के जून में जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय नें इन्दिरा गान्धी के चुनाव को खारिज़ किया और अपनें मद में चूर कांग्रेस किसी भी तरह से सत्ता छोडनें के पक्ष में नहीं थी.... सो देश पर आपातकाल थोप दिया गया... पत्रकारिता प्रतिबन्धित... सभी समाजवादी नेता या तो भूमिगत या फिर जेल में...  इंदिरा इंडिया पर पूरी तरह से हावी और अजीब से हालत में देश...  संघ को प्रतिबंधित संगठन घोषित किया गया और एक लाख लोगों को बिना किसी ट्रायल के जेल में ठूस दिया गया.. फिर अगले साल तस्वीर आई जंजीरों में जकड़े जार्ज फर्नांडिस की....


इस तस्वीर नें उस समय की कांग्रेसी ज़्यादतियों से परेशान जनता के लिए आग में घी का काम किया...  वहीं जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी भाग कर अमेरिका जा पहुंचे... इन घटनाओं नें स्वामी और जार्ज फ़र्नाडिस को सरकार के विरोध में एक हीरो के रूप में खडा कर दिया।  उधर संघ का भूमिगत आन्दोलन जारी था और समाज़वादी और कांग्रेस विरोधी नेताओं की लामबन्दी शुरु हो चुकी थी। 

जनता सरकार 

जब १९७७ में आम चुनाव हुए, जनता नें पूरा ज़वाब दिया और जयप्रकाश के आन्दोलन की आंधी एक लहर का रूप लेकर कांग्रेसी सरकार का सफ़ाया कर चुकी थी.... खुद इन्दिरा हारीं, संजय हारे और कांग्रेस का बुरा हाल हो गया । 

जनता सरकार का पतन
पहली बार सत्ता गैर कांग्रेसी हाथ में आई, यह दौर देश नें कभी नहीं देखा था, परिवर्तन की इस बयार को जनता पार्टी संभाल न सकी और कुछ ऐसी गलतियां कर बैठी जिसका इन्दिरा ने अपनी कुशल राजनीतिक समझ से पूरा फ़ायदा उठाया.... मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व के आरम्भिक काल में, देश के जिन नौ राज्यों में कांग्रेस का शासन था, वहाँ की सरकारों को भंग कर दिया गया और राज्यों में नए चुनाव कराये जाने की घोषणा भी करा दी गई। यह अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक कार्य था। जनता पार्टी, इंदिरा गांधी और उनकी समर्थित कांग्रेस का देश से सफ़ाया करने को कृतसंकल्प नज़र आई। लेकिन इस कृत्य को बुद्धिजीवियों द्वारा सराहना प्राप्त नहीं हुई।  इन्दिरा गान्धी की गिरफ़्तारी की कोशिश और उसके बाद हुए ट्रायल नें जनता की सरकार के लिए बैक-फ़ायर का काम किया और इन्दिरा गान्धी जनता की सहानुभुति पानें में कुछ हद तक कामयाब हो रही थी। १९७९ में जेपी के निधन के बाद सरकार के घटकों की एकता ही खतरे में आ गई... व्यक्तिगत महत्वकांक्षा सरकार चलानें में मुश्किल कर रही थी... कांग्रेस नें अंग्रेजों से विरासत में मिले डिवाईड एंड रूल की प्रक्रिया का पालन किया और जनता सरकार को गिरा दिया। चरण सिंह का प्रधानमंत्री बनाना कांग्रेस की एक गहरी चाल थी, जिसे कोई समझ नहीं पाया। आज़ाद भारत के इतिहास में सरकार को गिरानें की यह पहली साजिश थी, जिसे इन्दिरा नें बखूबी अंजाम दिया। 

उसके बाद हुए आम चुनावों में कांग्रेस को अप्रत्याशित सफ़लता मिली, क्योंकि समाजवादी अपनें परस्पर विरोध और मतभेदों पर नियंत्रण करनें में असफ़ल रहे। कई धडे मिलकर आपस में ही लडनें लगे और जनता के पास कोई अन्य विकल्प न था... सो कांग्रेस सफ़ल रही।  मेरा अपना मानना है कि आज कल के तथाकथित समाजवादी नेता आपातकाल की नाजायज औलादें थे.... जो जेपी के आन्दोलन के रथ पर सवार होकर न जानें कैसे सत्ता के गलियारों तक पहुंच गये.... जो किसी लायक न थे वह आज नेता बने हुए हैं....   

आखिर भारत पर कांग्रेसी राज क्यों कायम है?
इसका उत्तर है, अंग्रेजों की विरासत का पूरी तन्मयता से पालन करना, हिन्दुस्तान को बांटे रखना और हिन्दुस्तानियों को कभी एकजुट न होनें देना.... विपक्षी नेताओं की अक्षमता और पारस्परिक मतभेद, व्यक्तिगत महत्वकांक्षा इसमें कांग्रेस का सहयोग करती है।  कांग्रेस देश पर राज करती रहेगी अगर विपक्ष एक जुट न हुआ तो..... जनता जब वोट देनें जाती है तो फ़िर वह क्या सोचकर वोट करती है? आन्तरिक मतभेदों से उलझे हुए दलों और कांग्रेस के बीच उसे कांग्रेस ही अच्छा विकल्प नज़र आता है.... एक बडा कारण देश के एक बडे वर्ग का चुनावी प्रणाली और वोटिंग से उदासीन हो जाना भी है...  महज़ ५० फ़ीसदी वोट परिपक्व लोकतंत्र की निशानी नहीं है.... लेकिन क्या कहिएगा हम अपनें आप में ही इतने उलझे हैं कि हमें देश के बारे में सोचनें की फ़ुरसत ही किधर है? ज़रा सोचिए.......

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लोकतंत्र ...

बीते हुए लम्हों की कसक...

चमन बेचने को माली तैयार खड़े हैं

होने अथवा ना होने के बीच का एक सिनेमा

इमरजेंसी के ३७ साल

कार्टून:- पॉज़ि‍टि‍व थिंकिंग की इन्‍तेहा

आभासी सम्बन्ध और ब्लॉगिंग

लखनऊ नवाबों से पहले -भाग 2 (आईये जाने एक इतिहास..लखनऊ जनपद के प्राचीन नगर और बस्तियाँ.....): महफूज़

आज मुझसे बोल, बादल

हाय किताबों से इश्क कर बैठा ...........

बूंद बूंद स्वाति बरस... .. क्षुधा मिटाऊँ....मैं तर जाऊँ ...!!

वो वक़्त भी आएगा..

गुलदस्ते में राष्ट्रपति..

फ्लाइंग किस और इक ख़याल

आरएसएस मुखौटा नोंच फेंकेगे

हगने-हगने में अंतर

खुमार सावन का

बापू मल त्याग केंद्र - एक मनुवादी सोच

चोका

परायों के घर

बगल के मैदान में........

फिर से जिंदगी

हाल सिरोविट्ज़ की कविता

एक लाख ब्‍लाग पेज हिट्स का आज आनंद उत्‍सव मनाया जाये । ये ब्‍लाग एक साझा मंच है इसलिये ये उत्‍सव सभी का है । तो आइये आज केवल उत्‍सव का आनंद लिया जाये ।

Catharsis...

सनस्क्रीन : मिथ और सच्चाई

यादों में परसाई जी: ‘व्यंग्य यात्रा’

निजी स्कूलों का मोह और सरकारी स्कूल ........... ललित शर्मा

कब , कहाँ , क्यूँ का उत्तर

मुनव्वर राना की शायरी और हम लोग !

ऐसे कुछ पल...

मुनव्वर राना साहब से ख़ुसूसी मुलाक़ात

माही और मानसिकता !

अपेक्षा (Expectation)

आप मुड़ कर न देखते

फ़िर से दीप जला आना है

भारत वर्ष को कट्टरवाद से बचाओ

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तो ये रही आज की ३७ चुनिंदा पोस्टें , इत्तेफ़ाक ही कहिए कि आपातकाल के ३७ साल भी आज ही हुए हैं और इसे एक दुखद संयोग ही माना जाए कि तब से लेकर अब तक कुछ भी कहीं नहीं बदला हुआ दिख रहा है । वही लालची और भ्रष्ट व्यवस्था , कर्तव्यविमुख सत्ता पक्ष , कमज़ोर विपक्ष , ढीला ढाला प्रशासन और बिखरी असंगठित अवाम , सब कुछ आज भी वैसा ही है । हां इस बीच यदि कुछ बदला है तो वो है आम आदमी को मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी , चाहे वो ब्लॉगिंग के रूप में हो , समानांतर मीडिया के रूप में चल रहे वैब पोर्टल के रूप में हो या छोटे छोटे फ़ेसबुक और ट्विट्टर के अपडेट्स हों । सरकार भयभीत भी है और चौकन्नी भी , इसलिए बहुत जरूरी है कि इस अभिव्यक्ति को एक बडी ताकत , एक बडे संगठन के रूप में सरकार और सत्ता के सामने खडा किया जाए । इसलिए खूब लिखते रहिए , खूब पढते रहिए । हम उसे आगे बढाएंगे भी और सबको पढाएंगे ...हम यानि आपके ब्लॉग खबरी ...बुलेटिन रिपोर्टर । अपना ख्याल रखें और ब्लॉगिंग करते रहें ... और हाँ ... हो सके तो नीचे दिये चित्र पर अमल करें और करवाएँ ... 
 

सादर आपका 


जय हिन्द !!!

सोमवार, 25 जून 2012

आज बुलेटिन नहीं लगेगी ..आज चर्चा होगी


पोस्टों को बांचते हुए चर्चाकार जी


ब्लॉग बुलेटिन पर पोस्टों के लिंक्स को सहेजने का एक ही उद्देश्य रहता है कि उसे पाठक मित्रों तक पहुंचाया जाए । यूं तो पाठक अपनी अपनी रुचि के अनुसार और अपनी अपनी सुविधा के अनुसार पोस्टों तक पहुंचते और उन्हें पढते ही हैं लेकिन बुलेटिन के पाठकों के लिए लिंक्स ढूंढना और फ़िर उन्हें यहां सज़ाना मुझे बहुत पसंद है । पोस्टों को पढने की आदत और पक्की होती जाती है फ़िर मैं तो ब्लॉग पोस्टों का दीवाना सा हूं । आज सोचा कि आपको सिर्फ़ झलकियां ही नहीं सिर्फ़ उन पोस्टों के सूत्र ही नहीं , उनके बारे में कुछ बोलते बतियाते आगे बढा जाए ..सुबह के आठ बजे हैं और शाम के पांच  बजे तक जो भी पोस्टें पढूंगा उन्हें आपको भी पढाऊंगा , ....आज की कमाल की पोस्टों में बहुत से कमाल और अदभुत शख्सियतों के बारे में जानने पढने को मिला , जिन्हें कम से कम मैं तो बिल्कुल नहीं जानता था ..। विज्ञान विश्व ..न सिर्फ़ विज्ञान में रुचि रखने वालों के लिए बल्कि हमारे जैसे आर्ट्स के भुसकोलों के लिए भी एक दिलचस्प चिट्ठा है आज की पोस्ट में एलेन ट्युरिंग के बारे में लिखते हुए आशीष कहते हैं

"भविष्य मे जब भी इतिहास की किताबे लिखी जायेंगी, एलन ट्युरिंग का नाम न्युटन, डार्विन और आइंस्टाइन जैसे महान लोगो के साथ रखा जायेगा। ट्युरिंग की दूरदर्शिता ने मानवता हो संगणन, सूचना तथा पैटर्न का महत्व सीखाया और उनके जन्म के 100 वर्ष पश्चात तथा दुःखद मृत्यु के 58 वर्ष पश्चात, उनकी विरासत जीवित है और फल-फुल रही है।"

 लेकिन पोस्ट में जब वे बताते हैं कि , "एलन ट्युरिंग समलैंगिक थे जो कि उस समय एक अपराध माना जाता था। इसके लिये उनपर मुकदमा चला और उन्हे दोषी मानकार उन्हे ’स्त्री हार्मो” के इंजेक्शन दिये गये। इसके पश्चात उन्होने साइनाइड से भरे सेब को खाकर आत्महत्या कर ली।" तो जानकर दुख हुआ । 

बना रहे बनारस भी एक उत्कृष्ट चिट्ठा है अपनी अदभुत पोस्टों के लिए इसका हर पन्ना ही संग्रहणीय है । ताज़ा पोस्ट में संदीप मुदगल ..फ़िल्म समीक्षक एंड्र्यू सेरिस को याद करते हुए लिखते हैं ,


"एंड्रयू सेरिस को उनकी लिखी पुस्तकों ‘द अमेरिकन सिनेमा: डायरेक्टर्स एंड डायरेक्शंस’ और फ्रांसीसी सिने समीक्षकों द्वारा पारिभाषित ‘आॅट्य’ (आॅथर) थ्योरी को अमेरिकी समाज में प्रसारित करने के लिए याद किया जाएगा। ‘द अमेरिकन सिनेमा...’ में उन्होंने अपनी पसंद के मूक फिल्मों और कुछ बाद के 14 फिल्मकारों को शामिल किया था। बाद की पुस्तकों में उन्होंने कई अन्य फिल्मकारों के कार्यों की तीखी आलोचना की थी, जिनमें डेविड लीन, बिली वाइल्डर और स्टेनले क्यूब्रिक प्रमुख थे। कुछ ऐसे ही पूर्वग्रहों के कारण उन्हें अक्सर सिने समीक्षा के इतिहास की सबसे बड़ी हस्ती मानी जाने वाली पाउलिन केल का नंबर एक प्रतिद्वंद्वी भी माना जाता था, जो स्वयं कई नामी फिल्मकारों को अपनी समीक्षा के कठघरे में खड़ा रखती थीं।"


इस पोस्ट में संदीप न सिर्फ़ एंड्र्यू के काम का विश्लेषण करते हैं बल्कि ये भी बखूबी बता रहे हैं कि वो उसके पीछे कारण क्या थे ।

ऐसा नहीं है कि शख्सियतें सिर्फ़ नामचीन ही हुआ करती हैं । सच कहा जाए तो हर शख्स में कुछ न कुछ खास बात होती है । संजय अनेजा यानि मो सम कौन , अपनी पोस्ट में , अपने कार्यलीय अनुभव के बीच एक ऐसे सहकर्मी से मिलवाते हैं जिन्हें सडक पार करने में इतना डर लगता है कि उनकी श्रीमती जी तक उनका हाथ पकड के सडक पार करवाती हैं जिसका मज़ाक भी यार दोस्त उडाते हैं

"एक दिन एक स्टाफ सदस्य ने खाना खाते समय एक और खुलासा किया कि पिछले रविवार को उसने अपनी आंखों से देखा है कि दिल्ली बस अड्डे के पास इसकी घरवाली इसका हाथ पकड़कर सड़क पार करवा रही थी| सब हो हो करके हंस दिए और उसकी खूब लानत मलानत करने लगे, 'सुसरे ने नाम डुबो के धर दिया',   'लुगाई इसका हाथ पकडके सड़क पार करवा रही थी',  'शर्म भी नहीं आंदी इसनै', 'और ब्याह कर दिल्ली की छोरी से, न्यूए नचाओगी तन्ने सारी उमर' वगैरह वगैरह और वो वैसे ही खिसियाना सा मुस्कुराता रहा और रोटी खाता रहा|"  लेकिन रुकिए रुकिए इससे पहले कि आप कुछ और तय करिए , देखिए कि इसके पीछे कारण क्या था

दोस्त से जब पूछा उन्होंने तो "वो हरदम मुस्कुराते रहने वाला चेहरा अजीब सा हो गया, "मेरी उम्र उस समय शायद पांच या छह साल थी, उस दिन  मेरी माँ और मेरे चाचा वगैरह परिवार के बहुत से लोगों के साथ मैं भी दिल्ली आया था|  ये जो पीछे बड़ा वाला चौराहा गया है न, यहीं सड़क पर मेरे पिताजी की लाश रखी  थी| सुबह ड्यूटी करने घर से आये थे और सड़क पार करते समय कोई बस उन्हें कुचल गई थी|  जब भी दिल्ली में सड़क पार करने का मौक़ा आता है तो भाई, मेरी आँखों के सामने  वो वाला सीन आ जाता है| फिर सब धुंधला दिखने लगता है मुझे|" 



संजय जी की प्रवाहमय  शैली आपको बहाते न ले चले तो कहिएगा ।

अली सा को पढना एक अलग ही दुनिया में ले जाता है मुझे तो इस पोस्ट की कहानी को पढ कर ऐसा लगा मानो नंदन का कोई पेज मेरे सामने आ गया हो । चीनी लोककथा में मेन जियांग और फ़ेन जिलियांग की प्रेमकथा के बीच आई चीन की दीवार के बारे में पढ के देखिए आनंद आ जाएगा आपको जैसा कि अंत में अली सा कहते हैं "ये प्रेम कथा दुःखद हालात पर समाप्त ज़रूर होती है , लेकिन प्रकृति एक बार फिर से प्रेम के समर्थन में खड़ी दिखाई देती है !" 






बात जब शख्सियतों की चल रही हो तो फ़िर ब्लॉगिंग में सदाबहार फ़ुरसतिया जी जिन्हें कल माट साब ने खुरपेंचिया जी के तमगे से नवाज़ा ,


के लिए अभी मामला उत्ते पर ही खत्म नहीं होने वाला लगता है , एक से एक एक्सक्लुसिव रपट निकल कर सामने आएगी इंडिया टीवी से लेकर पाकिस्तान और पाकिस्तान से लेकर अफ़गानिस्तान टीवी वाले तक इनकी खोज खबर में लग गए हैं अब , भाई अमित जी ने अपनी पोस्ट पर अपने मानसिक बलात्कार के होने की पुष्टि करते हुए राजफ़ाश किया कि , "
बलात्कार का अर्थ है वह कार्य जो बल पूर्वक किसी की इच्छा के विरुद्ध किया जाये | मानसिक बलात्कार तब होता है जब आपके दिमाग में बातें कुछ और चल रही हों और पूछा कुछ और जाए या पूछने वाला जानता हो कि आपको विषय का ज्ञान नहीं है फिर भी आपसे फनी उत्तर सुनने के लिए आप पर दबाव डालता रहे | उस दौरान अधिकतर वही बातें पूछी जाती थीं जिनका सरोकार मुझसे पहले बिलकुल नहीं था और शुकुल जो अब तक ज्ञानी बन चुके थे , उन्हें भी उन बातों से ,जब वह प्रथम वर्ष में आये थे ,नहीं रहा होगा | परन्तु अब तंग तो करना था ही | मुर्गा बनाना , कमरे में वर्ल्ड टूर कराना (पूरे कमरे में हर सामान के ऊपर नीचे से निकलते हुए ,टांड पर चढ़ते हुए ,उतरने को वर्ल्ड टूर कहते थे ), शिमला बनाना , दरवाजा बंद कर पैंट उतारने को कहना ( जैसे ही आपने अपनी पैंट को हाथ लगाया ,गालियां मिलती थी ,कहते थे मैंने दरवाजे पर टंगी पैंट उतारने को कहा है ,तुम्हारी नहीं ) नाचने और गाने को कहना जो मुझे कभी नहीं आया और सबसे ज्यादा इसी वजह से मैं तनाव में रहता था और ना जाने क्या क्या | "




 और इतना ही नहीं मानसिल बलात्कार पीडित और आरोपी दुन्नो जन का दिलज़ोर ब्लैक एंड व्हाइट चित्र का लुत्फ़ भी उठाने के लिए उपलब्ध करा दिए हैं अमित भाई देखिए ,



 (यह चित्र तिलक हास्टल के सामने का है । सबसे दायें मैं हूँ ,मेरे बगल शुकुल हैं ,उनके बगल में उनका दुलारा बिनोद गुप्ता और आखिरी में राजेश सर हैं ।)



जब शख्सियतों से मिलने मिलाने का कारवां चल रहा है तो चलिए आपकी मुलाकात करवाते हैं मशहूर शायर मुनव्वर राना जी से , अरे हम नहीं मिलवा रहे हैं वो तो अपने शाहनवाज़ भाई कल उनसे एक यादगार मुलाकात करके लौटे हैं देखिए क्या कहते हैं वे , 

" कल मेरी ज़िन्दगी को मशहूर शायर जनाब मुनावार राना  साहब के साथ मुलाक़ात का ताउम्र ना भूलने वाला मौका मयस्सर हुआ। इस लुफ्त-अन्दोज़ मुलाक़ात के सफ़र में दीगर हज़रात के साथ जनाब संतोष त्रिवेदी और सानंद रावत जी मेरे हम-कदम थे। एनडीटीवी के प्रोग्राम 'हमलोग' में उनकी आमद की खबर संतोष भाई ने मुझे दी और मालूम किया कि क्या आप आना चाहते हैं... भला इसका जवाब ना में कैसे दिया जा सकता था?"




मुनव्वर राना साहब के साथ खाकसार ( यानि शाहजवाज़ भाई )




पिछले दिनों विख्यात प्रयोगधर्मी निर्देशक अनुराग कश्यप का जेएनयू के साबरमती हॉस्टल पहुंचे हुए थे , ल्यो एक और शख्सियत  , अबकि बार मुलाकात और बात हुई भाई अमरेंद्र त्रिपाठी से , बकौल अमरेंद्र भाई , 


"अनुराग कश्यप की इमेज एक ऐसे निर्देशक के रूप में बनी हुई है जिसने नई जमीन बनाने की कोशिश की हो. इस बात का सम्मान फिल्मों के गंभीर दर्शकों ने सदैव किया है. पर अफ़सोस कि अनुराग कश्यप से हम जिस उम्मीद के साथ मिलने गए थे वे उसपर खरे नहीं उतरे. उनकी बातें चौंकाने वाली लगीं. "



इस पोस्ट पर टिप्पणी करते हुएडा. गायत्री गुप्ता 'गुंजन'  
 कहती हैं  "

समाज में दर्शक वर्ग दो भागों में बंटा हुआ है, क्योंकि एक तरफ डर्टी पिक्चर जैसी फ़िल्में हिट होती हैं तो दूसरी तरफ 3 IDIOTs जैसी फ़िल्में भी सुपर हिट जाती हैं...
अवार्ड समारोहों में जब डर्टी पिक्चर जैसी फिल्मों की झोली भरेगी, तो निर्देशक भागेगा ही ऐसी फिल्मों की ओर... बाद में ठीकरा फोड़ दो दर्शकों के सर... एक कहावत है.... " समाज में बुराइयाँ तभी फैलती हैं जब समझदार और बुद्धिमान लोग खामोश बैठे रहते हैं..."
लगता है पुनः भारतीय संस्कृति की अलख जगाने का वक्त आ गया है....
बहुत अच्छे विचार व्यक्त किये अमरेन्द्र जी... शुक्रिया..."





इधर कुछ दिनों से देख रहा हूं कि बहुत सारे मित्र ब्लॉगरों ने पोस्टों पर प्रतिक्रिया देने के सारे रास्ते ही बंद कर दिए हैं , कारण सबके अपने अलग अलग हैं मेरे विचार से जब ऐसी स्थिति आ जाए तो फ़िर मॉडरेशन के विकल्प को आजमाया जाना श्रेयस्कर हो सकता है बनिस्पत इसके कि पढ के चुपचापे खिसकने को मजबूर कर दिया जाए पाठक को । अलबत्ता हमरे जैसा ढीठ पाठक होगा तो फ़िर भी बार बार जाएगा ही पढने । आजकल अदा जी ने भी पोस्टों पर टिप्पणियों का विकल्प बंद कर रखा है । आज अपना पोस्ट में ऊ धमाचक बमपिलाट खालिस शैली में लिखते हुए कहती हैं "

"चलिए अब सूरज देवता परकट होइए गए, दू गो मौगी दौड़ने निकल गई है, हमहूँ अब कौनो काम-ऊम कर लेवें, अब हियाँ खेत-खलिहान तो है नहीं कि, दौनी, निकौनी, कियारी-कदवा, पटवन-छिट्टा करें, न हमरे पास कोई गाय-गरु है कि दर्रा-चुन्नी सान के दे देवें...अभी तो हम भीतर जावेंगे, फट से इस्टोव जलावेंगे, अउर अपना लेमन टी बनावेंगे..फिन आराम से पोस्ट-उस्ट पढेंगे, बचवन को हाँक लगावेंगे, सब उठेगा धड़फड़ाते हुए :) तो चलिए फिर मिलते हैं काहे से कि अब बईठल-बईठल गोड़ो टटाने लगा है , एक कुंटल वोजन जो हो गया है हमरा .....हाँ नहीं तो..!"अब कोई अगर ई पूछना चाहे कि काहे जी एक कुंटल कैसे ओजन हो गिया आपका आप फ़ुईसे बोल रही हैं ...हां नहीं तो , त मेल करने के अलावे और कोनो चारा थोडबे है ।




चैतन्य बाबा आजकल गर्मियों की छुट्टियों में सिर्फ़ मस्ती ही नहीं कर रहे हैं बल्कि सुंदर सुंदर ड्राइंग भी कर रहे हैं , देखिए आज उनकी बनाई हुई दो सुंदर ड्राइंग्स









ब्लॉगर डॉ. अजित गुप्ता इन दिनों अपनी एक परेशानी को लेकर खासी परेशान हैं , और पूछ रही हैं कि ब्लॉगिंग करें तो कैसे करें ? 

"जब नेट आपको बाध्‍य कर दे कि आप ब्‍लाग की गली में प्रवेश नहीं कर सकते तो आप कैसे तोड़ पाएंगे इस तिलिस्‍म को? फेसबुक पर अपनी समस्‍या बतायी थी तो पाबलाजी ने बताया कि बीएसएनएल के कारण समस्‍या उत्‍पन्‍न हुई है लेकिन जब बीएसएनएल से बात करते हैं तो कहते हैं कि हमारी यह समस्‍या नहीं है। अब आम उपभोक्‍ता क्‍या करे? अभी एक सप्‍ताह‍ पूर्व तक पुणे में थी और वहाँ टाटा फोटोन्‍स का कनेक्‍शन था, ब्‍लाग भी खुल रहे थे लेकिन जैसे ही उदयपुर आकर ब्राडबेण्‍ड खोला ब्‍लागस्‍पाट की कोई भी साइट ओपन नहीं हुई। गूगल रीडर में कुछ ब्‍लाग पढ़ सकते हैं लेकिन टिप्‍पणी नहीं कर सकते। इसलिए किसी के भी ब्‍लाग पर टिप्‍पणी नहीं कर पा रही हूँ। अब तो ऐसे लगने लगा है जैसे मुझे किसी ने जीवन की मुख्‍यधारा से ही काट दिया हो। आपके पास इस समस्‍या का और कोई समाधान हो तो वह भी बताएं।" 




तो आप जो भी इस समस्या का निदान जानते हों उन्हें अवश्य बताएं वैसे रवि रतलामी जी उन्हें फ़ौरी तौर पर कुछ उपाय बता सुझा चुके हैं अब उनके कितने काम आईं ये तो वे ही बता पाएंगी । 

 


चलिए अब कुछ कविता वैगेरह बांची जाए ,
कविता में आज अभिव्यक्ति पर  रवि  कुमार जी ने शांति सुमन के दो गीत प्रस्तुत किए जिनमें से मुझे ये ज्यादा पसंद आया 



इसी शहर में

इसी शहर में ललमुनिया भी
रहती है बाबू
आग बचाने खातिर कोयला
चुनती है बाबू

पेट नहीं भर सका
रोज के रोज दिहाड़ी से
मन करे चढ़कर गिर
जाये उंची पहाड़ी से

लोग कहेंगे क्या यह भी तो
गुनती है बाबू

चकाचौंध बिजलियों
की जब बढ़ती है रातों में
खाली देह जला--
करती है मन की बातों में

रोज तमाशा देख आंख से
सुनती है बाबू

तीन अठन्नी लेकर
भागी उसकी भाभी घर से
पहली बार लगा कि
टूट जाएगी वह जड़ से

बिना कलम के खुद की जिनगी
लिखती है बाबू।




आइए अब कुछ एक लाइना रोड पकडा जाए ...........





एनडीए असहाय , दिखे सबकी बेशर्मी :-  
अमां चलने दो , ये गर्मा , गर्मी




एक लम्हा :-  
 जी के देखिए


 बही में लिखावट के आधार पर रुपया वसूली के लिए दीवानी दावा किया जा सकता है :-     
 हां काहे नहीं , लेकिन ऊकील तो उसके लिए  भी करना ही न होगा जी 



उसके बाद वो रो पडे :-      
ओह और उससे पहले



रुके कदम :-

अक्सर ठिठका देते हैं




माही और मानसिकता :- 
दोनों ही चिंतनीय हैं




कहां हो तुम :-
यहीं हैं और पोस्ट बांच रहे हैं जी




जलती चिताओं का मौन भी कभी टूटा है :-
जो बोले कुछ भी तो कहेंगे कि झूठा है




चालाक आदमी अच्छा कवि नहीं हो सकता :-
और अच्छा कवि चालाक आदमी नहीं हो सकता




" अकथ कहानी प्रेम की " के बहाने :-
बहाने से नहीं ठेली गई है पोस्ट






आप मुड कर न देखते :-
तो ये पोस्ट पकड से निकल जाती




तुम जो नहीं होती तो फ़िर
कोई और होता , वो न होती तो कोई और



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