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मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (तीसरा)




प्रस्तुत है विश्वमोहन जी का ब्लॉग

VISHWAMOHAN UWAACH विश्वमोहन उवाच







'बड़े मामा' चले गए. 'दीदी (हम माँ को दीदी ही कहते थे) के भाई जी'  चले गए. रात उतर  चुकी थी. चतुर्दशी का चाँद पूरनमासी की चौखट पर पहुँच रहा था. तभी इस खबर ने मानों इस धवल धरती को टहकार कजरौटे से लीप दिया और और हमारी आँखे अतीत के सुदूर अन्धकार में भटकने लगी. सोचने लगा कि यदि दीदी होती तो कैसे सहती यह वज्रपात! मैं अनायास अपने बचपन में उतर गया था जिसने मुझे दीदी का आँचल ओढ़ा दिया था और उसी आँचल से मुंह तोपे मैं कभी दीदी को निहारता तो कभी उसके भाई जी को. भाई जी और काकाजी दो ऐसे किरदार दीदी के जीवन में थे जो उसके अहंकार को पोसने वाले मन और बुद्धि थे. उसके आस्तित्व के ये दो ऐसे अमर ज्योति पुंज थे जो उसकी चेतना के मूलभूत स्त्रोत से प्रतीत होते थे. इन दोनों के मुख से निकली कोई वाणी उसके लिए कृष्ण के मुख से निकली गीता से ज्यादा प्रासंगिक और तात्विक थे. मुझे याद है कि कैंसर के इलाज़ के लिए उसे जब बम्बई ले जाया गया तो वह बार बार मुझे बड़े संतृप्त भाव से कहती कि 'काकाजी बोललथिन ह इहाँ आवेला', मानों उसकी रूचि अपने इलाज में कम और काकाजी के इस कथन के गौरव को व्याखायित करने में ज्यादा हो.
  मेरा बोझिल तन उस शोक संतप्त भीड़ का हिस्सा था जो बड़े मामा की देह को अंतिम यात्रा के लिए तैयार कर रहा था. लेकिन मेरा बाल मन दीदी  के आँचल में छिपकर 'अंतरिक्ष-समय-स्लाइस' से अतीत के छिलके उतार रहा था...........तब दालान में मकई के बालों का ढेर लगता था. ढेर सारे सहयोगियों के साथ भाई जी मकई के बाल के दानों को निकालने में जुट जाते. ढेर सारी कहानियों का दौर चलता. मैं देर रात बैठ बड़ी तन्मयता से कहानियों को सुनता और अपने भविष्य के लिए रचनात्मकता के तिनके तिनके बटोरता.......... 'एक चिड़ी आयी, दाना ली और... फुर्र',...... जैसी कभी ख़तम न होनेवाली कहानी भी पहले इसी बैठक में सुनी थी जो बाद में अंग्रेजी कहानी बनकर मेरे ऊपर की कक्षा में जब आयी तो उसके मूल रचनाकार मुझे दीदी के भाई जी ही लगे और जब पहली बार 'पायरेसी' शब्द से परिचय हुआ तब भी मुझे अंगरेजी की वह 'द एवर लास्टिंग स्टोरी' भाई जी की मूल कहानी का 'पायरेटेड वर्शन' ही लगी.....
.... इसी बीच रुदन का एक तीव्र स्वर उभरता है और मेरी तंद्रा भंग होती है. लोगों के आने का क्रम जारी है. बांस की खपाची से बनी शायिका पर उन्हें लिटा दिया गया है. ऊपर से एकरंगा का ओहार भी तान दिया गया है. उनके निष्प्राण किन्तु प्रदीप्त मुखमंडल पर फूलों के पराग भी निश्चेत लुढ़के हुए हैं और मेरी निश्चेष्ट आँखें एक बार फिर बड़का मामा की धराशायी देह में डूबती अतीत की गहराई में उतर जाती हैं.....
कल दीदी की विदाई है. ससुराल जायेगी. मायके में उसके भाई जी बड़ी बारीकी से उसकी बिदाई के इंतज़ाम में एक एक चीज की निगरानी कर रहे हैं. मेहमान के लिए खैनी की पैकिंग पर उनकी विशेष नज़र है. हवा लगने से खैनी के मेहराने का डर है. रामाशीष साव के साथ मिलकर बड़ी करीने से पुआल में खैनी को लपेटा जा रहा है. फिर उसे सुतरी से बांधकर सरिआया जा रहा है. मुझे देखते ही बताते हैं कि इसको जाते ही पापा को देखा देना है. चुटकी भी लेते हैं चेताते हुए, 'अपने पापा जी को बता देना कि घीव सत्ताईस रुपये सेर है और खैनी बत्तीस रुपये.' और विशेष हिदायत कि ' हे, देखिह. कहीं पापा के बदले बाबा ना देख लेस!'  आँखों मे लोर और मुख पर मुस्कराहट ढ़ोती दीदी अपने भाई जी के इस तत्व ज्ञान से हर्षित और गर्वित है. मैं भी उनकी इस सहृदयता पर मन ही मन  उनके भगीना होने का गर्व लूट रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि मेरे खपरैल घर के लिए अपने छत-पीटा घर की छत भी भेजने की कूबत है तो मेरे इस बड़े दिल वाले बड़े मामा में ही. लेकिन याचना करने में इस बाल मन के स्वाभिमान को सहज संकोच होता है और बस मन मसोसकर संतोष कर लेता है.
अचानक शोर उठता है. 'राम नाम सत है, माटी में गत है'. ट्रेक्टर बैक हो रहा है. अर्थी सज गयी है. उसे ट्रेक्टर पर लादा जाएगा. बचपन में मुझे कंधे पर चढ़ाकर बथान ले जाने वाले शरीर को मात्र ट्रेक्टर पर लादने हेतु कंधा देने की कल्पना से मन सिहुर जाता है. नम आँखों में फिर से अतीत के छिलके छलक उठते हैं.....
........ उबहन में लोटा बांधकर चुपके से मेरे नन्हे पाँव इनार पर पानी भरने चल गये हैं. नन्ही हथेली ने रस्से को कसकर पकड़ कर लोटा डूबा दिया है और उबहन को  गोलाई में नचा नचा कर लोटा में पानी भरने का उपक्रम कर रहा है. अचानक उबहन में हल्कापन महसूस होता है. तबतक आर्कीमिडीज से मेरा कोई लेना देना नहीं था. अगर रहता तब भी कोई फ़ायदा नहीं था. उबहन खींचने पर हाथ में केवल रस्सा था. लोटे ने जल समाधि ले ली थी. मेरा तो साथ में मानों दिल ही डूब गया. घोर संकट सामने था..... उसी लोटे से प्लेट में चाय ढारकर नानाजी चाय पीते थे......
... अचानक बड़का मामा का वह लोहई लंगर याद आया जो दालान के कोने में वह रखते थे. जब भी किसी की बाल्टी कुँए में डूबती तो वह मामाजी से मांगने आता और उसे कुँए में डुबाकर उस सामान को उसमे फंसाकर निकाल लिया जाता. मैंने भी धीरे से उसे खोज निकाला और अबकी बार लोटे की बांध से भी मजबूत और कठोर बांध अपने थरथराते कोमल हाथों से उसमें बाँधी और और लोटे की दिशा में उबहन को लटका दिया. सूरज देवता भी तेजी से अपनी सहानुभूति की किरनें समेट रहे थे...... मैं बड़ी तेजी से उबहन से कुँए की छाती को हलकोर रहा हूँ कि वह लोटा उगल दे. किन्तु, इनार ने तो मानों मेरी तकदीर को ही ताकीद कर उसकी भी लुटिया डुबो दी हो! हाथ से उबहन छुट जाता है और पश्चिम का सूरज भी उसी कुँए में डूब जाता है. मेरी आँखों में अन्धेरा छा जाता है. दूर से दीदी मेरी शरारत पर खिसियाती हुई मेरी ओर बढ़ती है. मैं प्रत्याशित पिटाई की आशंका अपने रोदन रव से उच्चरित करने का श्री गणेश ही करता हूँ कि बड़का मामा आकर मुझे बचा लेते हैं........
.............. ट्रेक्टर स्टार्ट होने की ध्वनि में मैं वापस लौटता हूँ. 'उबहन' और 'लंगर' दोनों ने अब मेरे हाथ छोड़ दिए हैं और मैं अभी भी अन्दर-अन्दर सिसक रहा हूँ. शव यात्रा प्रारम्भ होकर गाँव के दक्खीन करीब दो कोस पर गंडक के किनारे रुकती है. उत्तरे-दक्खिन शव को लिटा दिया गया है. जमीन पर शव के समानांतर ही एक क्यारी नुमा गड्ढा और उसके लम्बवत दो क्यारियाँ ऊपर और नीचे खोदी जाती हैं. करीने से लकड़ी के खम्भे डालकर उसपर लकड़ी की सेज सजा दी गयी है. सेज पर शव को लिटाकर अग्निदाह की क्रिया संपन्न हो रही है.....
...... माटी काटती गंडक की धार में तेज़ी है. तट के पार खर के जंगल में आग लगी हैं. पट-पट की तेज आवाज़ से जीभ लपलपाती उस पार की लपटें मानों इस पार जलते शव से उठती लपटों से लिपट जाना चाह रही हों. क्षितिज पर टंगे सूरज का मुंह भी रुंआसा सा भुक भुक लाल हो गया है. हवा सनसना रही है और आकाश धुंए से भर गया है. हम सभी हाथ में चावल-तिल लिए तिलांजलि दे रहे हैं.
"क्षिति जल पावक गगन समीरा
पञ्च तत्व रचित अधम शरीरा."
उधर सूरज गंडक की रेत में समा रहा है, इधर दीदी के भाई जी अपने पञ्च तत्वों को त्याजे पवन की तरंगों पर सवार हो दीदी की दिशा में महाप्रयाण कर रहे हैं....... अचानक झटके से हवा मे आँचल उड़ता है और हमारे दृष्टिपथ पर स्मृतियों की सतरंगी रेखा खींचते अंतरिक्ष में वह आँचल तिरोहित हो जाता है. आज के ही दिन  तो मेरे सर से वह आँचल उड़ गया था. दीदी को भी गए आज  सताईस साल हो गए...........!!!!!     

सोमवार, 2 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (दूसरा)




पल्लवी सक्सेना और उनका ब्लॉग

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मेरे अनुभव (Mere Anubhav): मृत होती संवेदनाएं



आज बहुत दिनों बाद एक मित्र के कहने पर कुछ लिख रही हूँ। अन्यथा अब कभी कुछ लिखने का मन नहीं होता। लिखो भी तो क्या लिखो। कहने वाले कहते है अरे यदि आप एक संवेदन शील व्यक्ति हो तो कितना कुछ है आपके लिखने लिए कितना कुछ हो रहा है, कितना कुछ घट रहा है और आप तो अपने अनुभव लिखते हो फिर क्यूँ लिखना छोड़ दिया आपने, क्या आस पास घट रही घटनाओं से आप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अब क्या कहूँ किसी से कि मुझे किस चीज़ से कितना प्रभाव पड़ता है। मन तो करता है की समंदर किनारे जाऊँ और ज़ोर ज़ोर से चिल्लाऊँ की मन की सारी पीड़ा समाप्त हो जाए। मन हल्का हो जाए। किन्तु अगले ही पल यह विचार आता है कि दर्द और पीड़ा इतनी अधिक तीव्र और गहरी है कि अपनी अंदर की चित्कार को यूँ समंदर की लहरों में घोल देने से भी मन शांत नहीं हो सकता मेरा, क्यूंकि जब आपको अपने भीतर ही कुछ जीवंत महसूस न हो तो आप क्या लिख सकते हो। भले ही लिखना भी एक तरह से आपने मन को हल्का करने का एक साधन ही है मेरे लिए। लेकिन जब चारों ओर शोर हो, चित्कार हो, शोक को, भय हो, पीड़ा हो,उदासी हो, तो कोई क्या लिखे कैसे लिखे । ऐसा लगता है सब मर रहे है। कोई जीवित नहीं है सभी केवल चलती फिरती लाशें है। जिनके पास शरीर तो है, किन्तु आत्मा नहीं है, पुतला है पर प्राण नहीं है। मुझे तो कभी-कभी  ऐसा भी लगने लगता है कि मुरदों की दुनिया है जहां केवल चलती फिरती लाशें विचर रही हैं ।

संवेदनाएं तो अब किसी में शेष नहीं है।  जिनमें है वह इस असंवेदन शील समाज में चंद आत्माय हैं। जो अपने अतिरिक्त अन्य लोगों के विषय में भी सोच लिया करते हैं। लेकिन इस असवेदन शील समाज के समंदर में ऐसे लोग मुट्टी भर ही होंगे जिनका आने वाले समय में कितना पतन होगा यह न उन्हें पता है न हमें, मुझे तो ऐसा भी लगता है कि बस अब बहुत होगया अब यह दुनिया समाप्त हो जानी चाहिए अथवा जब तक जैसा चल रहा है वह सब तो हमें झेलना ही है। क्यूंकि इस असंवेदन शील दुनिया में मंदिर में भगवान नहीं है, मस्जिद में कुरान नहीं है, गुरुद्वारे में गुरु नहीं है और गिरिजा घरों में इशू नहीं है। इसलिए हर विषय पर लोग जाती, धर्म, समुदाय को लेकर लड़े मर रहे हैं। न पीड़ित से किसी को मतलब है, न पीड़ित के परिवार से फिर चाहे वह पीड़ित किसी भी समस्या से पीड़ित क्यूँ ना हो। देखीए न बच्चे मर रहे हैं। प्रकृति क्रोधित है, क्षुब्ध है, रो रही है। इसलिए शायद हादसे बढ़ रहे हैं, हिंसा बढ़ रही है इंसान हैवान बन गया है। तभी तो बलात्कारी बढ़ रहे हैं।

अब कहीं मासूम सी हंसी किसी का मन नहीं मोह लेती, कोई नन्ही सी किलकारी किसी को सुख नहीं पहुँचती बल्कि उसके अंदर के जानवर को जगा देती है। अब किसी बुजुर्ग का चेहरा देखकर किसी के मन मे उनके प्रति मान-सम्मान या सदभावना नहीं आता। बल्कि उनके प्रति क्रूरता आती है। कदाचित इसलिए ही वृद्धाश्र्म धड़ल्ले से चल रहे हैं। ऐसी बेरहम दुनिया में जीने से क्या लाभ ! मेरा तो मन करता है प्रलय हो और सारी दुनिया डूब जाये। फिर एक नयी संरचना हो तो कदाचित कुछ अच्छा हो जाए। तब शायद यह जाती धर्म समुदाय समाप्त हो सकेंगे वरना वर्तमान में तो यह असंभव सी बात है। अन्यथा यूं तो साँसे मिली है सब को, सो लिए जा रहे हैं। स्वार्थ का है ज़माना सो स्वार्थी हो सभी बस जिये जा रहे हैं। मैं जानती हूँ यह सब पढ़कर आप को लग रहा होगा की जाने मुझे क्या होगया है जो मैं आज इतनी निराशा जनक नकारात्मक बाते लिखे जा रही हूँ। लेकिन मैं क्या करूँ यही तो चल रहा है मेरे चारों ओर समवेदनाएं इस हद तक मर चुकी हैं कि अब तो लगता है की जैसे ज्ञान विज्ञान प्रगति तकनीकें सब के सब मिलकर मानव जीवन का नाश करने में ही लगी है। प्रकृति का प्रकोप पेड़ों का कटना, जानवरों का मारना, पानी की कमी,सूखा ग्रस्त गाँव शहर,नगर किसान भाइयों का मरना खेती के हज़ार संसाधन होने के बावजूद किसानो पर कर्जा और वो न चुका पाने के नतीजे आत्महत्या।

यह सब कम नहीं था ऊपर से हम जैसे पढे लिखे लोगों का सोशल मीडिया पर जाकर गूगल से एक तस्वीर उठाना और दुख व्यक्त करते हुए आर.आई.पी लिख आना ही हमारे कर्म की इतिश्री और हमारी संवेदन हीनता को दर्शाता है। ऐसे समाज में किसी से क्या संवेदना की उम्मीद रखेगे आप और क्यूँ ? परीक्षा में अनुतीर्ण हुआ बच्चा जब आत्महत्या का सहारा लेता है तो हम में से ही कुछ लोग उस बच्चे की जाती धर्म समुदाय पहले देखने लगते है लेकिन उसकी उस समय क्या मनोदशा रही होगी जिसके कारण उसे जीवन मृत्यू से अधिक कठिन लगा होगा उसने मृत्यू को चुना होगा।  

यही हाल इन दिनों मासूम बच्चियों का हुआ पड़ा है। दरिंदे बढ़ रहे हैं उन्हें सिवाए शरीर के कुछ नज़र नहीं आरहा बल्कि यदि में यह कहूँ की शरीर भी नहीं उन हैवानो को बस दो इंच का चीरा दिख रहा है ऐसे लोग तो जानवरों को भी नहीं छोड़ते। ऐसे लोगों को सिर्फ यह कहकर छोड़ देना की वह दरिंदे है, मानवता के नाम पर कलंक है, हैवान है, शैतान है उनको जल्द से जल्द सख्त से सख्त सजा मिलनी ही चाहिए हमारे कर्तव्यों की इति श्री नहीं है। सोश्ल मीडिया पर जाकर अपनी इस तरह की टिप्पणी दर्ज करा देने भर से ही हम अपना पक्ष साफ नहीं कर सकते। पर होता यही है सिर्फ सजा की गुहार लगाने से ऐसे दरिंदों को सजा नहीं मिलेगी। हमें ही हिम्मत दिखनी होगी गांधी के नहीं बल्कि भगत सिंह के कदमों पर चलना होगा। तब जाकर शायद कुछ हो पाये। लेकिन मेरा उन सभी लोगों से यह कहना है जो लोग इस तरह की घटनाओं पर पीड़ित व्यक्ति की जाती धर्म और समुदाय को देखने की हिमाकत करते हैं। वह यदि वास्तव में कुछ देखना चाहते हैं और मानवता के प्रति नाम मात्र की भी संवेदना रखते हैं तो सबसे पहले यह देखें कि बच्ची, बच्ची होती है हिन्दू की या मुसलमान की है से फर्क नहीं पड़ना चाहिए वह इंसान की बच्ची है या थी इस बात से फर्क पड़ना चाहिए। इस तरह की घटना जब भी हमारे सामने आती है तब हम में से कुछ धर्म के ठेकेदार सबसे पहले खबर में मसाला ढूंढ ने निकल पड़ते है कि अरे पीड़ित बच्ची हिन्दू थी या मुसमान, दलित थी या आदिवासी और घटना जब ही हमारे सामने आती है जब उसमें क्रूरता की पराकाष्ठा हो,या दर्शायी गयी हो। जैसे निर्भाया से लेकर ट्विंकल तक खबरें वही सामने आयी जो दर्ज कराईं गयी लेकिन जो किसी भी कारण से दर्ज न हो पायी उनका क्या ? क्या उनका दुख उनकी पीड़ा बकियों से कम थी। ???

ऐसे नजाने कितने किस्से कितने जुल्म है जिनके विषय में यदि विस्तार से बात करने निकलें तो शायद शब्द कम पड़ जाएँगे लेकिन हादसे खत्म न होंगे। चाहे हत्या के मामले में प्रद्युमान ह्त्या कांड हो या पुलवामा हत्या कांड हमारे हजारों जवान शहीद हो गए और लोग उनमें वर्दी ढूंढ रहे थे की कौनसे जवान थे क्या उन्हें जवानों का दर्जा हंसिल था क्या कागज़ पर भी उनकी गिनती जवानों में होती है क्या उनके शहीद होने पर उन्हें पेंशन वगैरा मिलती है अरे मैं कहती हूँ क्या फर्क पड़ता है कि वह आर्मी से थे या नेवी से बी एस फ के थे पुलिस वाले थे या किसी और सेना के थे, थे तो आखिर हमारे ही देश के जवान ना ? जो अपना परिवार छोड़कर हमारे लिए हमारे देश, हमारे शहर, हमारे नगर कि सुरक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। माना के यह एक दुर्घटना थी जैसे अभी हाल ही में सूरत में हुई थी जिसमें कोचिंग जाने वाले मासूम बच्चे अग्नि कांड का शिकार हुए और हमने क्या किया रोते हुए नरमुंड के साथ एक बार फिर आर आई पी लिख आए और होगया।

सुना है आज कल एक हवाई जहाज भी गायब है। न जाने उसमें कितने लोग होंगे और नजाने उन सभी के परिवारों का क्या हाल होगा। कैसे एक अंजान डर के साय में गुज़र रही होगी उनकी ज़िंदगी हम और आप तो शायद ऐसी भयावा परिस्त्तिथी के विषय में सोच भी नहीं सकते। क्यूंकि हम इंसान हैं। किसी का दुख बाँट सकते हैं परंतु उस दुख को महसूस करने के लिए जब तक हम स्वयं उस दुख से नहीं गुजरते हम अनुमान भी नहीं लगा सकते  कि उस व्यक्ति विशेष या उसके परिवार पर क्या बीत रही होती है। यह सब संवेदन हीनता नहीं है तो और क्या है दिन प्रति दिन के यह समाचार देखते, पढ़ते और सुनते हुए मेरा तो मन ही नहीं करता कि कुछ लिखूँ क्या लिखूँ और क्यूँ लिखूँ। जब कोई पढ़कर मेरी भावनाओं को समझने वाला ही नहीं है। जब मेरी बात सिर्फ मुझ तक ही रहनी है तो मैं मौन ही अच्छी।    


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