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गुरुवार, 3 अक्टूबर 2013

बुलेटिन में लिंक्स हों - ज़रूरी तो नहीं (2)




तुमने तो कथा लिख दी प्रभु सबके हिस्से 
अभिनय में कोई श्रेष्ठ,कोई अनाड़ी 
और उतार दिया रंगमंच पर 
…. कुछ संवाद याद रहे,कुछ भूल गए 
शरीर और दिल-दिमाग के मध्य बड़ी परेशानी है 
पर पर्दा गिरने से पहले 
कुछ न कुछ तो करते ही जाना है !
नींद में भी बहती है सपनों की गहरी लम्बी नदी 
नदी में तैरता मन 
मन का प्रलाप 
गहरी नींद का आनंद नहीं बन पाता 
और थके नयन 
'उबारो' का अनहद नाद करते हैं  …. 

नीलिमा शर्मा  की अभिव्यक्ति =  

एक चिट्ठी माँ के नाम 

माँ$$$$  तुम  कैसी  हो ? मैं  जानती  हूँ  कि  तुम  हम  सबको  बहुत  याद  करती  हो  ...पर  क्या  करूँ आज  मैं  माँ  हूँ  तो  अपने  घर  की  सारी  जिम्मेदारियां  निभाते  निभाते  मैं  जब  थकने  लगती  हूँ  तो  तुम्हारा  चेहरा  मेरे  सामने  आ  जाता  है  कि  कैसे  तुम  आज  भी  बिना  थके  कम  करती  हो  .....तुम  कहा  करती  थी  ना  कम  प्यारे  होंदे  ने  चाम नही  .................हाँ  सारे  तो  खुरी  सारही  चंगी  ..................तो  बस  .आज  मैं  तुमको  जी  रही  हूँ  अपने  अंदर  .......जब  बच्चे  कभी  मुझे  नहीं सुनते  . हसबैंड  बिज़ी  रहते  हैं  तो  मुझे  तुम्हारा  चेहरा  याद  आता  है  कि  कैसे  तुमने  अपना  वक़्त  गुज़ारा  होगा  जब  हम  सब  बहनें  अपने  घर  में  आ  गयी  और  भाई  अपने  घरों  में  व्यस्त  ............क्या  तुमको  मन  का  कोना  सूना  नहीं  लगा  .................????????? आज  जब  तुम्हारी  आँखों  को  देखती  हूँ  तो  पता  चलता  है  कि  कितना  अकेलापन  .सूनापन  है  तुम्हारे  अंदर  .......भीड़  में  अकेली  मेरी  माँ  ..............आज  अकेली  पर  फिर  भी  चारों  ओर  लोगों  की  भीड़  ...मैं  जानती  हूँ  आज  तुम  आखिरी  सीढ़ी पर  हो  अपनी  ज़िन्दगी की  ......और  मैं  तुमको  जाकर  कुछ  कह  भी  नहीं    पा  रही  ...........मैंने  तुमको  हमेशा  सताया  ....दुःख  दिया  ........ मैंने  वो  सब  कभी  नहीं  किया  जो  तुमने  चाहा  .आज  भी  माँ  बनकर   अपने  हिसाब  से ही  जीना  चाहा  ...... शायद  ये  मेरा  विद्रोह  होगा  कि  आपने  अपनी  मर्ज़ी  से  लाइफ  नहीं  जी  .तो  हम  तो  जियें  ................. आज  मैं  माँ  बन  गयी  हूँ  और  तुमको  जब  बच्चे  की  तरह  कहती  हूँ  कि   ऐसा  मत  किया  करो  .तब  तो  कह  डालती  हूँ  लेकिन  बाद  में  अकेले  सोचती  हूँ  कि  मेरे  बच्चे  भी  कल  मुझे  ऐसे  ही  कहेंगे  ............ मैं  आज  तक  आपसे  मन  की  बात  नहीं  कह  पाई  .......कि  मैं  तुमसे  बहुत  प्यार  करती  हूँ , तुमको  खोने  की  कल्पना  से  भी  डरती  हूँ  ..... कल  जब  सुना  कि  तुम  ठीक  नहीं  हो  ??????? तो  तुमको  फ़ोन  किया  पर  तुमने  कितने  कांफिडेंस  से  बात  की  कि  मैं  ठीक  हूँ  ........ वाह  !! माँ  .................बेटी  परेशान  ना  हो  .सो  तुम  अपना  गम  बताना   भी  भूल  गयी  .सच  हम  सब  बहनें  एक  साथ  तुम्हारे  पास  कुछ  दिन  बिताना  चाहती  हैं  लेकिन  असंभव  है  ये  सब  .......... सबके  अपने  घर  अपनी  जिम्मेदारियां  ........फिर  ............क्या  करें  .बेटियाँ  इतनी  परायी  क्यूँ  हो  जाती  हैं  ....... कि अंतिम  पड़ाव  पर  माँ   के  पास  भी  नहीं  जा  पाती ............मैं  बहुत  कमज़ोर  हो  गयी  हूँ  तुम्हारी  बीमारी  की  बात  सुनकर  ..............मेरा  मन  बहुत  उदास  हो  गया  है  .......प्लीज़  मत  जाओ   मेरे  मन  के  कोने  को  सूना  करके  ......................... 



और कुछ लिंक्स यूँ हीं 

बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

बुलेटिन में लिंक्स हों - ज़रूरी तो नहीं (1)




अम्मा की एक नहीं कई तस्वीरें उभरती हैं 
बाल संवारती अम्मा 
सपनों को 
एहसासों को - शब्द देती अम्मा 
धर्मयुग ढूंढती 
चम्मच गिनती 
न मिलने पर 
हमारी शामत लाती 
माइग्रेन के विस्फोटक दर्द में रोती 
खिलखिलाती,चिढाती,लूडो में हारकर लड़ती अम्मा 
बिगड़ी चीजों को शक्ल देती अम्मा  ……………
…………। 
डायरी में उसने सिर्फ अपने एहसासों को नहीं संजोया 
कब किसने क्या कहा,क्या लिखा 
सबकुछ जतन से रखा है 
बिल्कुल ताजे ताजे !
पति,बच्चे,दोस्त,पड़ोसी,काम करनेवाले  
सब उसकी ज़िन्दगी के पन्नों में हैं 
उसकी कॉपी हो या छोटी सी नोटबुक 
डायरी या कोई कतरा कागज़ का 
उसमें गुजरे हुए हर पल और मोड़ हैं। 
…. 
शायद तुम भूल गए होगे 
मैं भूल गई होऊं 
वे भूल गए हों 
पर उसकी कलम ने यादों का कमरा बनाया है 
पन्ने की किसी सुराही में दर्द है 
किसी कटोरे में ख़ुशी 
किसी सिरहाने इंतज़ार 
- समय दो 
तो जीवन की मासूमियत पा लोगे। 

- उनकी डायरी का एक अंश = 29 जून 2009 

चेहरे से झाँकती लकीरों में 
एक लंबा सफरनामा अंकित है 
अक्सर किसी लम्हें को पास बिठाकर 
बातें करती हूँ,
तो लगता है - कहीं बारिश हो रही है 
हथेली में भरकर 
देखती हूँ बूंदों को 
इनमें छिपा है ज़िन्दगी का राज़ 
मेरे पास आकर सुनो 
निरंतर बजता है कोई साज 
- वही साज 
जिस पर कभी खुलकर गाया था 
लोगों का दिल बहलाया था !
सफरनामे पर दौड़ती तुम्हारी दृष्टि 
बताती है,
शायद तुम साज सुन रहे हो 
और लगता है - बीते कल की स्तुति दुहराने पर बाध्य हो जाओगे 
वंस मोर प्लीज़ वंस मोर !



बुलेटिन में लिंक्स हों - ज़रूरी तो नहीं - फिर भी कुछ लिंक्स 

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