जीवन के रंगमंच पर रंगमंच की मूल विधाओं का सीधा नाता है ,वे आईने की रूप में समाज की अभिवायाकतियो को व्यक्त करती है, सभ्यता के विकास से रंगमंच की मूल विधाओ में परिवर्तन स्वभाविक है। किन्तु लोकरंग व लोकजीवन की वास्तविकता से दूर इन दिनों आधुनिक माध्यमों यथा टेलीविज़न, सिनेमा और वेबमंच ने सांस्कृतिक गिरावट व व्यसायिकता को मूल मंत्र बना लिया है जिससे मूल विधाएँ और उनके प्रस्तुतिकारों को वह प्रतिसाद नहीं मिल पाया है जिसके वो हक़दार हैं। मानवता की सेवा में रंगमंच की असीम क्षमता समाज का सच्चा प्रतिबिम्बन है। रंगमंच शान्ति और सामंजस्य की स्थापना में एक ताकतवर औज़ार है। लोगों की आत्म-छवि की पुर्नरचना अनुभव प्रस्तुत करता है, सामूहिक विचारों की प्रसरण में, समाज की शान्ति और सामंजस्य का माध्यम है, यह स्वतः स्फूर्त मानवीय, कम खर्चीला और अधिक सशक्त विकल्प है व समाज का वह आईना है जिसमें सच कहने का साहस है। वह मनोरंजन के साथ शिक्षा भी देता है। भारत में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाटकों व मंडली से देश प्रेम तथा नवजागरण की चेतना ने तत्कालीन समाज में उद्भूत की, जो आज भी अविरल है। 'अन्धेर नगरी' जैसा नाटक कई बार मंचित होने के बाद भी उतना ही उत्साह देता है। कालिदास रचित अभिज्ञान शाकुंतलम्, मोहन राकेश का आषाढ़ का एक दिन, मोलियर का माइजर, धर्मवीर भारती का 'अंधायुग', विजय तेंदुलकर का 'घासीराम कोतवाल' श्रेष्ठ नाटकों की श्रेणी में हैं। भारत में नाटकों की शुरूआत नील दर्पण, चाकर दर्पण, गायकवाड और गजानंद एण्ड द प्रिंस नाटकों के साथ इस विधा ने रंग पकड़ा।
अब चलते हैं आज की बुलेटिन की ओर...
आज की बुलेटिन में सिर्फ इतना ही कल फिर मिलेंगे, तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर ... अभिनन्दन।।
6 टिप्पणियाँ:
विश्व रंगमंच दिवस की बधाई ... आभार मेरी रचना को जगह देने की लिए ...
बढ़िया बुलेटिन।
बढ़िया जानकारी और लिंक
विश्व रंगमंच पर सभी को शुभकामनायें ! सुंदर सूत्र ! आभार !
बहुत सुन्दर सामयिक बुलेटिन प्रस्तुति हेतु आभार!
Thank you for the sharing good knowledge and information its very helpful and understanding.. as we are looking for this information since long time. Regards ABHINAV
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