यदि आग उपलसब्ध नहीं तो अपने भीतर आग उतपन्न करो
पर उपदेश के बीज अपने भीतर लगाओ
कर्तव्यों के बाड़ से उसे सुरक्षित करो
जिस प्राप्य की अपेक्षा तुम्हें है
उसे सबसे पहले देना सीखो
फिर .... जो भी निर्णय लेना चाहो, लो ...
महाभिनिष्क्रमण तुम्हारा
निर्वाण तुम्हारा ...
आना था तुम तक
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मैंने पत्थरों को रगड़ा, तुमने आग बनाई
तुम आए मुझ तक ताप लिए
मैं बचता रहा, मैं जल जाने से डरता था .....
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मैंने पत्थरों को रगड़ा, तुमने आग बनाई
तुम आए मुझ तक ताप लिए
मैं बचता रहा, मैं जल जाने से डरता था .....
बहते रहे तुम इस पार से उस पार तक
मैं तैरकर नदी पार करने को देखता रहा अपने पौरुष की तरह
तुम आए मुझ तक नमी लेकर, मैं भीगने से डरता रहा .....
मैं तैरकर नदी पार करने को देखता रहा अपने पौरुष की तरह
तुम आए मुझ तक नमी लेकर, मैं भीगने से डरता रहा .....
बिना पल गंवाए पूरे वेग से आए तुम
मैं कोसता रहा तेज हवा को कि जिसमें फड़फड़ाते रहे मेरी डायरी के पन्ने
तुम आए सांस सांस में मुझ तक, मैं डरता रहा फड़फड़ाहट की आवाज़ से .....
मैं कोसता रहा तेज हवा को कि जिसमें फड़फड़ाते रहे मेरी डायरी के पन्ने
तुम आए सांस सांस में मुझ तक, मैं डरता रहा फड़फड़ाहट की आवाज़ से .....
इस ओर से उस छोर तक तुमने फैलाई बाहें
मैं पंख समेटे लौट आया था घोंसले में
मैं डरता रहा आसमान की अनंत दिशाओं में भटकने के डर से .....
मैं पंख समेटे लौट आया था घोंसले में
मैं डरता रहा आसमान की अनंत दिशाओं में भटकने के डर से .....
तुम अंकुआए कोमल और हरा मन लेकर
धीरे धीरे खुले अर्थ पेड़ होते चले जाने के
मैं डरता रहा बीज-शब्दों से बाहर आने के खतरे से ....
धीरे धीरे खुले अर्थ पेड़ होते चले जाने के
मैं डरता रहा बीज-शब्दों से बाहर आने के खतरे से ....
तुम आते रहे बार बार, मैं बार बार डरता रहा
उम्र की आंख बंद होने के बाद दिखा कि
आग न हो तो सब जम जाता है भीतर
नदी नहीं होती किसी की, उसमें डूबने से पहले .....
उम्र की आंख बंद होने के बाद दिखा कि
आग न हो तो सब जम जाता है भीतर
नदी नहीं होती किसी की, उसमें डूबने से पहले .....
भूल गया मैं कि हवा न होगी तो
सांस नहीं आएगी मेरी कविता को
मैं आसमान में बस वहां तक देख सकता था जहां तक कुछ नहीं था
तुम तो वहां थे जहां तक आना था मुझे
अपने डर से निकल कर .......
सांस नहीं आएगी मेरी कविता को
मैं आसमान में बस वहां तक देख सकता था जहां तक कुछ नहीं था
तुम तो वहां थे जहां तक आना था मुझे
अपने डर से निकल कर .......
उछलती,चहकती
उफनती,मचलती
प्रवाह के
उन्नत -अवनत वेग, ,
बाँध बन गई
अचानक
बंदिशें,हिदायतें,, , ,
ठहरता प्रवाह
कसैला कर गया
तन -मन,
गोल -गोल डरी हुई
आँखें, , ,
सहमता मन, ,
सूखता अन्तर्मन, , .
शून्य होती आँखे, ,
बनने लगी रेत.,
वो, ,
भीतर ही भीतर, ,
आैर
एकरोज
पूरी की पूरी
रेत हो गई, , .
भीतर बहुत भीतर
टटोला,कुरेदा
जिंदा थे , ,
तरलता के चिन्ह्म,,,
कि, , , , , ,
बहती थी कभी
,प्रवाहमय
संगीतमय,लयमय,, ,
ये
रेत की नदी, ,
उफनती,मचलती
प्रवाह के
उन्नत -अवनत वेग, ,
बाँध बन गई
अचानक
बंदिशें,हिदायतें,, , ,
ठहरता प्रवाह
कसैला कर गया
तन -मन,
गोल -गोल डरी हुई
आँखें, , ,
सहमता मन, ,
सूखता अन्तर्मन, , .
शून्य होती आँखे, ,
बनने लगी रेत.,
वो, ,
भीतर ही भीतर, ,
आैर
एकरोज
पूरी की पूरी
रेत हो गई, , .
भीतर बहुत भीतर
टटोला,कुरेदा
जिंदा थे , ,
तरलता के चिन्ह्म,,,
कि, , , , , ,
बहती थी कभी
,प्रवाहमय
संगीतमय,लयमय,, ,
ये
रेत की नदी, ,
4 टिप्पणियाँ:
बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति।
जिस प्राप्य की अपेक्षा तुम्हें है
उसे सबसे पहले देना सीखो
...सटीक चिंतन...बहुत रोचक बुलेटिन..
Bahut sunder rrachna....
Mere blog ki new post par aapka swagat hai.
सुन्दर बुलेटिन प्रस्तुति
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