जब दर्द की महीन रस्सी पर
हम चल रहे होते हैं
कभी ऊँगली छिल जाती है
कभी जोर से गिर जाते हैं
दर्द में होकर भी होश नहीं रहता
दर्द कहने का
पर वहीँ उसी वक़्त
शब्दों के शाब्दिक वीडियो में
दर्द का हर कतरा
कोई संजो लेता है
फिर एक दिन -
चलचित्र की तरह दर्द बोलता है
तस्वीरें दिखाता है
किसी कोने में
हास्य मुद्रा में
कटाक्ष करता चेहरा दिख जाता है
किसी घिनौने सच से पर्दा उठ जाता है
और रोक लेता है स्वाभिमान
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नीड़ का निर्माण फिर-फिर...
अवलोकन करते हुए इस कहानी ने
पिता (कहानी)
कइयों के जीवन का सच उपस्थित कर दिया ! हर कोई बेईमान नहीं होता, परिस्थितियाँ हावी होती हैं और मन की तेजस्विता उस परिस्थिति के भँवर से निकलती है।
डॉ गायत्री गुंजन का ब्लॉग आज के सच को उजागर करता -
आज सुबह से ही सिद्धान्त चाय की दुकान पर आकर बैठ गया था। घर पर रुकने का मन ही नहीं हुआ उसका। रात भी तो जैसे-तैसे करवट बदल-२ कर ही काटी थी उसने। पूरी रात परेशान रहा वह। नींद भी उससे रूठी रही। सुबह उठते ही चप्पल पहन कर बाहर आ गया। जिस चाय की दुकान पर वो कभी-२ अपने दोस्तों से ही मिलने जाया करता था, आज वहाँ से उठने का नाम ही नहीं ले रहा था। चाय वाले ने भी उससे कुछ नहीं कहा; सुबह से उसकी दस चाय भी तो पी थीं सिद्धान्त ने। लेकिन अब उस दुकान वाले से भी रहा नहीं गया, पूछ ही बैठा,
“क्या हुआ बाबूसाब? बड़े परेशान लग रहे हो, सुबह से घर भी नहीं गये।”
क्या बताता सिद्धान्त। कल रात से एक ही बात रह-२ कर उसके दिलो-दिमाग में घूम रही थी। ऐसा कैसे हो सकता है? जिस पिता को अपना आदर्श मान कर वह बड़ा हुआ था, जिनकी हर बात का पालन उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाती थी, जिन्होंने ही उसे पग-२ पर सत्य और ईमानदारी का पाठ पढ़ाया है, वो ही कैसे किसी व्यक्ति से रिश्वत ले सकते हैं? उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी आँखों पर भरोसा करे या अपने दिल पर। उसकी आँखों को धोखा भी तो हो सकता है। पर रात से अभी तक इसी उहापोह से जूझते हुये भी ना तो दिल और ना ही दिमाग उसके इस सवाल का जवाब दे पाने में सक्षम थे। आखिरकार उसने निर्णय लिया कि वो इस बारे में अपने पिता से बात करेगा। ये सोचकर उसके कदम घर की ओर उठ जाते हैं।
दरवाजे पर ही उसे पिताजी मिल जाते हैं, जो उसके इन्तजार में परेशान होकर यहाँ-वहाँ चहल-कदमी कर रहे थे। उसे देखते ही उसका हाथ पकड़ कर अन्दर ले जाते हैं और अपने पास बैठाकर बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फ़ेरते हुये पूछते हैं,
“कहाँ चला गया था सुबह-२? पूरा घर तेरे लिये परेशान था और तू खुद भी तो इतना परेशान लग रहा है। आखिर बात क्या है बेटा?”
अचानक सिद्धान्त की आँखों से आँसुओं का जैसे बाँध ही फ़ूट पड़ता है और वो रोते-२ अपने पिता के कदमों में गिर जाता है।
“पिताजी मुझे माफ़ कर दीजिये। एक बात मुझे लगातार खाये जा रही है और जब तक मुझे इसका जवाब नहीं मिल जाता; मेरे लिये एक-२ साँस भारी है।”
पिताजी उसे फ़टी आँखों से देखे जा रहे थे।
“ऐसी क्या बात है, जिसने तुझे इतना परेशान कर दिया है?”
“पिताजी कल मैंने आपको उस व्यक्ति से बातें करते सुना और जाते-२ वह व्यक्ति आपको नोटों से भरा बैग भी पकड़ा गया था; जिसे आपने सबसे छुपा कर अपनी अलमारी में रख दिया था। बस यही बात मेरे सीने पर पत्थर की तरह रखी हुयी है। ऐसा क्या हो गया, जिसने आपको ऐसा कदम उठाने पर मजबूर कर दिया। आप तो उन लोगों में से थे, जिसे रूखी रोटी खाना मंजूर था, पर रिश्वत का एक रुपया भी गवारा ना था।”
पिताजी उसे एकटक देखते रहे, उनकी आँखों में दूर-२ तक खालीपन नज़र आ रहा था, जैसे कि वो खुद के ही अस्तित्व को टटोल रहे हों। अचानक उन्होंने सिद्धान्त के हाथ को अपने हाथ में लिया, जिस पर आँसू की दो बूँद छलक पड़ीं।
“तेरे लिये बेटा! विदेश जाना चाहता था ना तू, जिसके लिये पढ़ाई में दिन-रात एक किये रहता है।”
वे अब भी उसकी आँखों में देख रहे थे।
“पर आपके स्वाभिमान की कीमत पर नहीं पिताजी! आप मेरा अभिमान हैं, मैं इतना स्वार्थी नहीं हूँ।”
“मुझे स्कॉलरशिप मिल जायेगी और ना भी मिले, तो कोई बात नहीं। मैं खुद को ऊपर उठाने के लिये आपको गिरते हुये नहीं देखना चाहता।”
और आगे बढ़कर उसने पिता को थाम लिया, जो अचानक ही बहुत कमजोर नज़र आने लगे थे..........।
2 टिप्पणियाँ:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..
एक और सुन्दर सूत्र ।
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