आज हम समापन के किनारे हैं और रह गया है बहुत कुछ - जो सुनाना था।
ब्लॉग्गिंग की यात्रा, फेसबुक की यात्रा
कुछ यहाँ मिला कुछ वहाँ मिला ...
एड़ी उचकाकर बहुतों को ढूँढा,
मिले भी बहुतेरे
लेकिन विराम देना है !
विराम के इस वक़्त में
साहित्यिक रंगमंच का पर्दा गिराने से पूर्व
हम 2016 के कई हीरे फेसबुक से अवलोकन करते हुए लाये हैं
आप स्वयम महसूस करेंगे, कोई कम नहीं ...
मतिभ्रम
आईने के बिम्ब में परछाईयों की ख़ोज
बेहद मुश्किल है उसे धर दबोचना
एक छलावा है उसका पीछा करना
कभी ना ख़त्म होने वाले इंतज़ार की तरह
बेहद मुश्किल है उसे धर दबोचना
एक छलावा है उसका पीछा करना
कभी ना ख़त्म होने वाले इंतज़ार की तरह
ठीक वैसे जैसे आती हुई मुस्कराहट को हौले से
होंठों के कोने पे धकेल देना
या उस रस्ते का दूर से बारिश में तर दिखना
पर नज़दीक से खुश्क और सूखा होना
होंठों के कोने पे धकेल देना
या उस रस्ते का दूर से बारिश में तर दिखना
पर नज़दीक से खुश्क और सूखा होना
मतिभ्रम तो ये भी है कि
तुम्हारे छलावे पर इतराना
और उस बंद दरवाजे की गुमी हुई चाभी को
बेतहाशा हो खोजना
तुम्हारे छलावे पर इतराना
और उस बंद दरवाजे की गुमी हुई चाभी को
बेतहाशा हो खोजना
एक स्वर्ण हिरन का
आँगन के गलियारे में
गुलाचे मारते दिखना
और उसे पा लेने की तीव्र इच्छा रखना
सुनहरे क्षितिज के सम्मोहन में
प्रतिदिन उस अंत को खोजना
और हर बार उसका समंदर पार हीं दिखाई देना
आँगन के गलियारे में
गुलाचे मारते दिखना
और उसे पा लेने की तीव्र इच्छा रखना
सुनहरे क्षितिज के सम्मोहन में
प्रतिदिन उस अंत को खोजना
और हर बार उसका समंदर पार हीं दिखाई देना
अंत तो रिक्त है
पर भ्रम के सहारे
रिक्त भी सम्पूर्ण सा प्रतीत होता है
सम्पूर्णता कि संतुष्टि हीं
जीवन का मतिभ्रम है
पर भ्रम के सहारे
रिक्त भी सम्पूर्ण सा प्रतीत होता है
सम्पूर्णता कि संतुष्टि हीं
जीवन का मतिभ्रम है
जिंदगी है ....
बुरी तो नहीं है ,पर भली भी नहीं है,
ज़िंदगी अब वैसी भी नहीं है ,
कई बार देखा है मुड़कर ,
कहीं तेरे पैरों के निशाँ भी नहीं हैं ,
हाँ अब ज़िंदगी वैसी भी नहीं है ,
कई परतें खोलता है ,
पर आईना सच बोलता है ,
दरारें अब बढ़ रही हैं
हँसी चेहरे पर कहीं नहीं है ,
ज़िंदगी अब वैसी भी नहीं है ,
कुछ अटपटे हैं कुछ चटपटे हैं ,
कई मोहरे पिटें हैं ,प्यादों के हक़ वज़ीर से बड़ें हैं ,
सीधी चाल अब कौन चले ,
मात अब शह से बड़ी है ,
ज़िंदगी अब वैसी भी नहीं है
ज़िंदगी अब वैसी भी नहीं है ,
कई बार देखा है मुड़कर ,
कहीं तेरे पैरों के निशाँ भी नहीं हैं ,
हाँ अब ज़िंदगी वैसी भी नहीं है ,
कई परतें खोलता है ,
पर आईना सच बोलता है ,
दरारें अब बढ़ रही हैं
हँसी चेहरे पर कहीं नहीं है ,
ज़िंदगी अब वैसी भी नहीं है ,
कुछ अटपटे हैं कुछ चटपटे हैं ,
कई मोहरे पिटें हैं ,प्यादों के हक़ वज़ीर से बड़ें हैं ,
सीधी चाल अब कौन चले ,
मात अब शह से बड़ी है ,
ज़िंदगी अब वैसी भी नहीं है
सिलवटें ,
कुछ मन में होती हैं
जिनको अक्सर
हाथों से खींचकर
सीधा कर दिया जाता है ।
कुछ मन में होती हैं
जिनको अक्सर
हाथों से खींचकर
सीधा कर दिया जाता है ।
कुछ खूटियां,
दीवारों पर नही मन में गड़ी होती हैं।
जिन पर टांग दी जाती हैं बिसरती हुई यादें
कभी एकांत में मनमानी याद पहन लेने को।
दीवारों पर नही मन में गड़ी होती हैं।
जिन पर टांग दी जाती हैं बिसरती हुई यादें
कभी एकांत में मनमानी याद पहन लेने को।
कुछ आले ,
दीवारों पर नहीं मन में भी होते हैं
जिनमे जाने क्यों ,
बेतरतीब बिखरी दुखती बातों को
रख लिया जाता है सहेजकर
फिर से घावों को ताज़ा करते रहने को
दीवारों पर नहीं मन में भी होते हैं
जिनमे जाने क्यों ,
बेतरतीब बिखरी दुखती बातों को
रख लिया जाता है सहेजकर
फिर से घावों को ताज़ा करते रहने को
दाह संस्कार ,
शरीरों के ही नहीं किये जाते
कुछ शरीर लिए फिरते हैं
जलती हुई चिताएं अपने भीतर
सुलगती हुई आगें और धुआँ भी,
ये अधजले से शव
चलते फिरते फैलाते है दुर्गन्ध
अपने आस पास
ये कभी मुक्त नहीं होते खुद से,
चलते फिरते फैलाते है दुर्गन्ध
अपने आस पास
ये कभी मुक्त नहीं होते खुद से,
इनको तलाश होती है किसी
मन्नत के हाथों की
जो बाँध आए इनके
चट चटाते शवों को
किसी पीर की दरगाह पर
या किसी पीपल तले
मन्नत के हाथों की
जो बाँध आए इनके
चट चटाते शवों को
किसी पीर की दरगाह पर
या किसी पीपल तले
ये अधजले मन
किसी गंगाजल की शीतलता को
तरसते रहते हैं उम्र भर
तर जाने को ,मुक्त हो जाने को
किसी गंगाजल की शीतलता को
तरसते रहते हैं उम्र भर
तर जाने को ,मुक्त हो जाने को
ये कभी जान नहीं पाते
दाह उनके भीतर था कहीं,
और ,शीतल गंगा जल भी
पर उनके अंदर का ताप
कभी ढूंढ नहीं पाता
भीतर की शीतलता को
और ,वो चट चट कर
जलते रह जाते हैं
दाह उनके भीतर था कहीं,
और ,शीतल गंगा जल भी
पर उनके अंदर का ताप
कभी ढूंढ नहीं पाता
भीतर की शीतलता को
और ,वो चट चट कर
जलते रह जाते हैं
छटपटाते रहते है ,
ताउम्र,जनम जनम,
अपने ही अंतिम संस्कार को,
अपनी ही मुक्ति को।।
ताउम्र,जनम जनम,
अपने ही अंतिम संस्कार को,
अपनी ही मुक्ति को।।
क्षणिकाएँ
1
अब
ना वो कौड्डियाँ
ना गीट्टियाँ
ना परांदे
ना मींडियाँ
ना टप्पे
ना रस्सियाँ
ना इमली
ना अम्बियाँ
कहाँ गई
वो लडकियाँ !!!!!!
1
अब
ना वो कौड्डियाँ
ना गीट्टियाँ
ना परांदे
ना मींडियाँ
ना टप्पे
ना रस्सियाँ
ना इमली
ना अम्बियाँ
कहाँ गई
वो लडकियाँ !!!!!!
2
आज फिर
बचपन आ बैठा
सिरहाने
और मैं
झिर्रियों से झाँकती
धूप को
मुट्ठियों में
भरती रही |
आज फिर
बचपन आ बैठा
सिरहाने
और मैं
झिर्रियों से झाँकती
धूप को
मुट्ठियों में
भरती रही |
3
हवाएँ
तेज़ चलती रही
सर्दी
बदन चीरती रही
धूप बदली की ओट
छिपती रही
और यह
इकलौता फूल
सूखी टहनी पर
इठलाता रहा
कितना जिद्दी है ना वो
मेरी तरह |
हवाएँ
तेज़ चलती रही
सर्दी
बदन चीरती रही
धूप बदली की ओट
छिपती रही
और यह
इकलौता फूल
सूखी टहनी पर
इठलाता रहा
कितना जिद्दी है ना वो
मेरी तरह |
*कौड्डियाँ—डोगरी भाषा में कोड़ियों के लिए प्रयुक्त शब्द
मैं स्किज़ोफ्रेनिक हूँ
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तुम्हें लगता है मैं बड़बड़ा रही हूँ
बतिया रही हूँ अपने आप से
गुस्सा कर रही हूँ
लड़ रही हूँ
घूम रही हूँ यूँ ही बेकाम
बेबात हँस रही हूँ
रो रही हूँ
बतिया रही हूँ अपने आप से
गुस्सा कर रही हूँ
लड़ रही हूँ
घूम रही हूँ यूँ ही बेकाम
बेबात हँस रही हूँ
रो रही हूँ
नहीं
जब तुम नहीं सुन सके मेरी बात
नहीं पढ़ सके मेरा मन
नहीं समझ सके मुझे
तब
हाँ तब
मैंने बतियाना शुरू किया
हँसना रोना शुरू किया
मारना पीटना भी शुरू किया
जब तुम नहीं सुन सके मेरी बात
नहीं पढ़ सके मेरा मन
नहीं समझ सके मुझे
तब
हाँ तब
मैंने बतियाना शुरू किया
हँसना रोना शुरू किया
मारना पीटना भी शुरू किया
अपने आप से बात नहीं करती हूँ मैं
मेरे साथी होते हैं
चिड़िया कबूतर दीवार
या मोटर साइकिल भी
टीवी रेडियो तक मुझसे बात करते हैं
मैं उन्हें सुनाती हूँ अपने मन की बात
क्योंकि वे सुनते हैं मुझे
तुम्हारी तरह सिर्फ सुनाते नहीं हैं
मेरे साथी होते हैं
चिड़िया कबूतर दीवार
या मोटर साइकिल भी
टीवी रेडियो तक मुझसे बात करते हैं
मैं उन्हें सुनाती हूँ अपने मन की बात
क्योंकि वे सुनते हैं मुझे
तुम्हारी तरह सिर्फ सुनाते नहीं हैं
तब
जबकि मुझे ज़रूरत है तुम्हारे
प्यार की स्नेह की और देखभाल की
तुम दुत्कारते हो मुझे
मुझे पागल की उपाधि से नवाजते हो
चुप रहने को कहते हो
खुद पीटते हो
ओझाओं से पिटवाते हो
जबकि मुझे ज़रूरत है तुम्हारे
प्यार की स्नेह की और देखभाल की
तुम दुत्कारते हो मुझे
मुझे पागल की उपाधि से नवाजते हो
चुप रहने को कहते हो
खुद पीटते हो
ओझाओं से पिटवाते हो
बस उससे नहीं मिलवाते
जो समझ सकता है मेरा मन
और तुम्हें भी समझा सकता है
मेरी बड़बड़ाहट
मेरी झल्लाहट
मेरी खीज
मेरा गुस्सा
हाँ, मेरा खुद पर नियंत्रण नहीं है
जो समझ सकता है मेरा मन
और तुम्हें भी समझा सकता है
मेरी बड़बड़ाहट
मेरी झल्लाहट
मेरी खीज
मेरा गुस्सा
हाँ, मेरा खुद पर नियंत्रण नहीं है
पर तुम इस बात को क्या कभी समझ पाओगे
तुमने मेरा जूता तो कभी पहन कर देखा ही नहीं
तुम कारण ढूँढते हो मेरी अवस्था का
मैं बस निवारण चाहती हूँ
तुमने मेरा जूता तो कभी पहन कर देखा ही नहीं
तुम कारण ढूँढते हो मेरी अवस्था का
मैं बस निवारण चाहती हूँ
हाँ मैं एक स्किज़ोफ्रेनिक हूँ
**
( मित्रों, इस रचना के ज़रिये मैंने कोशिश की है कि स्किज़ोफ्रेनिया के लक्षण बता सकूँ...यदि आपके आसपास भी कोई मानसिक रोगी हो तो उससे दूर नहीं जाएँ...वह सिर्फ आपके प्रेम , देखभाल का भूखा है..उसे उचित चिकित्सकीय सेवा उपलब्ध करवाएँ व आप खुद भी उसकी सही देखभाल के तरीके जानने के लिए काउन्सलर से मिलें ...इतना सोचें सिर्फ कि वह रोगी कभी कभी सामान्य अवस्था में भी होता है..उसे इंसान समझ कर प्रेम भरा व्यवहार करें यही उसका सही इलाज है)