रात का समय, घड़ी नौ से अधिक का समय
बता रही थी. सड़क किनारे एक दुकान के पास बाइक रुकते ही उतरा जाता उससे पहले उससे
नजरें मिली. चंचलता-विहीन आँखें एकटक बस निहार रही थी. आँखों में, चेहरे में शून्य सा स्पष्ट दिख
रहा था. आँखों में भी किसी तरह का निवेदन नहीं, कोई आग्रह नहीं, कोई याचना नहीं. वो उन्हीं
नज़रों के सहारे नजदीक चली आई. एकदम नजदीक आकर भी उसने कुछ नहीं कहा. एक हाथ से
अपने उलझे बालों की एक लट को अपने गालों से हटाकर वापस बालों के बीच फँसाया और
दूसरे हाथ में पकड़े कुछेक गुब्बारों को हमारे सामने कर दिया. बिना कुछ कहे उसका
आशय समझ आ गया. गुब्बारे जैसी क्षणिक वस्तु बेचने का रिस्क और उस पर भी कोई याचना
जैसा नहीं. कोई अनुरोध जैसा नहीं बस आँखों की चंचलता. उस लड़की के हाव-भाव ने, आँखों की चपलता ने प्रभावित किया.
लगा कि उसकी मदद की जानी चाहिए किन्तु घर जाने की स्थिति अभी बनी नहीं थी. इस कारण
गुब्बारे न ले पाने की विवशता ने अन्दर ही अन्दर परेशान किया. चंद रुपयों के साथ भाव
उभरा कि घर न जाने के कारण हम गुब्बारे नहीं ले पा रहे हैं पर ये कुछ रुपये रख लो.
उस लड़की ने रुपयों की तरफ देखे बिना ऐसे बुरा सा मुँह बनाया जैसे उसे रुपये नहीं
चाहिए बस गुब्बारे ही बेचने हैं. अबकी आँखों में कुछ अपनापन सा उभरता दिखाई दिया. आँखों
और होंठों की समवेत मुस्कराहट में गुब्बारे खरीद ही लेने का अनुरोध जैसा आदेश सा
दिखा. हम दोस्तों ने अपने आपको इस मोहजाल से बाहर निकालते हुए गुब्बारे खरीद लिए. गुब्बारों
के बदले रुपये लेते उभरी उस मुस्कान ने, आँखों की चमक ने, चेहरे की दृढ़ता ने, उसके
आत्मसम्मान ने उसके प्रति आकर्षण पैदा किया.
आँखों आँखों में बने रास्ते पर चलकर
नजदीक आई उस लड़की ने हमारे कुछ सवालों पर अपने होंठों को खोला. चंद मिनट में उसने रुक-रुक
कर बहुत कुछ बताया. बड़े से शहर की उस जगह से लगभग पन्द्रह किमी दूर ग्रामीण अंचल
तक उसे अकेले जाना है. कोई उसके साथ नहीं है. अकेले का आना, अकेले का जाना, सुबह
से देर रात तक सिर्फ गुब्बारे बेचना, पूरे दिन में सत्तर-अस्सी रुपयों को जमा कर
लेना, पेट की आग शांत करने के कारण पढ़ न पाना. उम्र, कर्मठता, जिम्मेवारी और
आत्मविश्वास के अद्भुत समन्वय में फुहारों में भीगती ‘शबनम’ सुबह की बजाय रात को
जगमगा रही थी. गीली सड़क पर खड़ी बारह-तेरह वर्ष की वो बच्ची एकाएक प्रौढ़ लगने लगी.
उसके नाजुक हाथों में गुब्बारे की जगह जिम्मेवारियाँ दिखाई देने लगी. स्ट्रीट लाइट
और गाड़ियों की लाइट से उसका चेहरा चमक रहा था. लोगों के लिए इस चमक का कारण
स्ट्रीट लाइट और गाड़ियों की लाइट हो सकती थी मगर हमारी निगाह में वो चमक उसकी
कर्मठता की, उसके आत्मविश्वास की थी.
इसी चमक से चमकती आज की बुलेटिन आपके
बीच...
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6 टिप्पणियाँ:
सेंगर जी, आज आजादी के इतने सालो बाद भी शबनम जैसी कई लडकिया हमारे देश में है । उनकी मज़बूरी देख कर दूख होता है। पर इनकी कर्मठता ही इन्हें जीने का हौसला देती है।
सेंगर जी धन्यवाद.
आपको मेरा लेख अपने पटल पर लगाने हेतु उचित लगा.
आभार,
पेट की आग के आगे कुछ नज़र नहीं आता ...
बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति
आभार!
bahut badiya links ..abhar aapka shamil karne ke liye
आपने मेरा सूत्र यहाँ नहीं लगाया फिर भी मैं आ गया । बहुत सुंदर प्र्स्तुति ।
पेट की आग शांत करने के कारण पढ़ न पाना. उम्र, कर्मठता, जिम्मेवारी और आत्मविश्वास के अद्भुत समन्वय में फुहारों में भीगती ‘शबनम’ सुबह की बजाय रात को जगमगा रही थी. गीली सड़क पर खड़ी बारह-तेरह वर्ष की वो बच्ची एकाएक प्रौढ़ लगने लगी. उसके नाजुक हाथों में गुब्बारे की जगह जिम्मेवारियाँ दिखाई देने लगी.... इन पंक्तियों में लेखक की संवेदनशीलता झलकती है. हालाँकि ऐसे अनेकों शबनम प्रतिदिन सडकों पर किसी न किसी रूप में नजर आ ही जाती है.
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