आज रामायण के पाठ के समय अरण्य काण्ड के दो कथाएं पढ़ी, आइये आप भी राम भक्ति का लाभ लीजिये।
एक बार इंद्र का पुत्र जयंत, भगवान श्री राम के बल की थाह लेने और सीता के रूप पर मोहित होकर एक काग का रूप धारण कर उसके निकट गया।
सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा॥
सीता के पैर पर जब उस काग ने अपनी चोंच से प्रहार किया तब सीता माता के कष्ट के दंडस्वरूप भगवान श्रीराम ने एक सरकंडे को अभिमंत्रित करके उस काग पर छोड़ दिया। तीनों लोको के प्रभु श्रीराम की की प्रभुता को न मानने वाले जयंत को रामबाण से बचने और कहीं भी छिपने की जगह न मिली, अब भला रामद्रोह करने वाले को जगह कौन देता।
काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना
मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना
रामद्रोही के लिए काकभुशुण्डि कहते हैं कि उसके लिए माता मृत्यु के समान, पिता यमराज के समान और अमृत विष के समान हो जाता है।
अंत में कोई उपाय न जानकर नारद की मंत्रणा पर जयंत ने भगवान श्रीराम के चरणों में आत्म समर्पण कर दिया। अब ब्रह्मास्त्र के मंत्रों से अभिमंत्रित राम द्वारा छोड़ी कुशा व्यर्थ नहीं जा सकती थी, अत: उसने कौए की दाहिनी आँख फोड़ दी, किंतु उसके प्राण बच गए।
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मुनि सुतीक्ष्ण से मिलने के पश्चात जब राम पंचवटी में निवास कर रहे थे तब एक बार लक्ष्मण भगवान राम के पास एक शंका लेकर आये। उनकी शंका पशु और मनुष्य के भेद और भक्ति के सम्बन्ध में थी। भगवान राम ने लक्ष्मण की शंका समाधान करते हुए कहा...
ज्ञान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥
कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥
कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥
भावार्थ : ज्ञान वह है, जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी (दोष) नहीं है और जो सबसे समान रूप से ब्रह्म को देखता है। हे तात! उसी को परम वैराग्यवान् कहना चाहिए, जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो॥4॥
गीता इसी की व्याख्या करते हुए कहती है, जिसमें मान, दम्भ, हिंसा, क्षमाराहित्य, टेढ़ापन, आचार्य सेवा का अभाव, अपवित्रता, अस्थिरता, मन का निगृहीत न होना, इंद्रियों के विषय में आसक्ति, अहंकार, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधिमय जगत् में सुख-बुद्धि, स्त्री-पुत्र-घर आदि में आसक्ति तथा ममता, इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में हर्ष-शोक, भक्ति का अभाव, एकान्त में मन न लगना, विषयी मनुष्यों के संग में प्रेम- ये अठारह न हों और नित्य अध्यात्म (आत्मा) में स्थिति तथा तत्त्व ज्ञान के अर्थ (तत्त्वज्ञान के द्वारा जानने योग्य) परमात्मा का नित्य दर्शन हो, वही ज्ञान कहलाता है।
ज्ञान और भक्ति दो अलग अलग तत्व हैं लेकिन यदि ध्यान से देखे तो जिसे भक्ति का ज्ञान है वह श्रेष्ठ है, जिसे ज्ञान पर मान अभिमान है वह भक्ति से उतना ही दूर है।
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5 टिप्पणियाँ:
ज्ञान और भक्ति तक तो समझ में आता है राम और रामचरित मानस। राज और उसकी नीतियों की मिलावट होते ही शंकायें शुरु हो जाती हैंं। राम ऊपर या आदमी ? राम के निर्देश या आदमी के आदेश और यहीं से शुरु हो जाता है ब्र्हम का भ्रम हो जाना । बहुत सुन्दर प्रस्तुति और सार्थक विषय ज्ञान का भी और भक्ति का भी । आभार देव जी 'उलूक' का सम्मान देने के लिये उसके सूत्र 'सारे नंगे....होता है' को आज की बुलेटिन में जगह दे कर ।
शुभ प्रभात
हीरे की परख तो जौहरी ही करता है
बाकी तो सब
कंकड़ पत्थर चुनते हैं
आभार देव जी
आप का बहुत- बहुत धन्यवाद। आप के ब्लॉग को शुभ कामनाएँ ।
बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति ..
रामायण की सर्थक सीख के साथ सुंदर सूत्रों से सजा बुलेटिन।
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