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मंगलवार, 10 मई 2016

हर सुबह एक दिन खोलती हूँ




हर सुबह एक दिन खोलती हूँ
सूरज बनाकर उसकी लम्बी किरणों से 
उजाला भर लेती हूँ 
थोड़ी हथेलियों में 
थोड़ा चेहरे पर 
थोड़ा आँगन में 
थोड़ा खिड़की से बिस्तरे पर 
... 
ऐसा नहीं कि अँधेरे से मुझे दुश्मनी है 
बस अँधेरे की गर्म स्वागत के लिए 
सूरज को रगों में भर लेना होता है  ... 


काश मैं वक़्त को रोक पाता
घड़ी की सूइयों को मोड़ पाता
देखता रहता उम्र भर
पूजा की थाली लिए
पलकें झुकाये
गुलाबी साड़ी में लिपटा
सादगी भरा तेरा रूप ...
काश मैं वक़्त को रोक पाता ...

अक्सर हम लोगों को यह कहते सुनते हैं कि हमारे पास जो होता है, हम उससे संतुष्ट नहीं होते और जो नहीं होता, उसके पीछे भागते हैं. कुछ हद तक तो यह सही है, लेकिन क्या पूरा सच यही है? क्या हमें इतने विकल्प उपलब्ध होते हैं कि हम उनमें से मनचाहा चुन सकें? नहीं, अक्सर ऐसा नहीं होता.
मैं एक ऐसे लड़के को जानती थी, जिसे घर के काम बहुत अच्छे लगते थे और वो उन्हें करता भी तरीके से था. हालांकि उसके दोस्त उसे इसके लिए "कुशल गृहिणी" कहकर चिढाते थे. बहुत से लोग उसकी मर्दानगी पर शक भी करते थे. पर वह हंसकर टाल देता था. उसने मुझसे बताया कि उसे बाहर के काम में कोई रूचि नहीं, घर का काम अधिक पसंद है. वो चाहता था कि उसकी शादी ऐसी लडकी से हो जाए जिसे नौकरी करना पसंद हो और उसका घर संभालना बुरा न लगे. लेकिन अंततः क्या हुआ? उसे नौकरी करनी पडी...क्या लड़कों के पास नौकरी न करने के अलावा कोई विकल्प है? या नौकरी ही अपने पसंद की करने का हक़ है? हम भले ही यह कहकर आलोचना करें कि उन्होंने विरोध क्यों नहीं किया, लेकिन क्या ऐसी परिस्थितियाँ होती हैं कि वे विरोध कर सकें? कभी छोटे भाई-बहन की ज़िम्मेदारी, कभी माँ-बाप में से किसी की बीमारी तो कभी कम उम्र में कर दी गयी शादी, हमेशा उसका रास्ता रोककर खड़े होते हैं.
'गाइड' की रोज़ी या 'अनुराधा' की अनुराधा क्या वैसा ही जीवन चाहती थीं, जैसा उन्हें मिला? नहीं, अनुराधा प्रसिद्ध गायिका हो सकती थी और रोज़ी का प्यार नृत्य था. दोनों गृहस्थ जीवन में अकेली थीं. बस फर्क इतना रहा कि अनुराधा अपनी परिस्थितियों से समझौता कर बैठी, लेकिन रोज़ी निकल आयी. उसने अपनी 'जीने की तमन्ना' पूरी की. ये फिल्मों की बातें है लेकिन, असल ज़िंदगी में भी कई महिलाओं ने मुझसे कहा है कि वे वैसा जीवन नहीं चाहती जैसा जी रही हैं. उन्हें परिवार और जिम्मेदारियां नहीं चाहिए थीं. उन्हें गाना था, अभिनय करना था, लिखना था, नाचना था या पेंटिंग करनी थी या सिर्फ भटकना था. लेकिन उन्हें वो जीवन चुनने पर मजबूर किया गया, जिसकी इच्छा उन्होंने कभी नहीं की. अब ज़िम्मेदारियाँ पडी हैं, तो निभानी ही हैं. उन्हें मेरा जीवन आकर्षित करता है लेकिन क्या मैंने ऐसा ही जीवन चाहा था. शायद...कुछ हद तक.
हम सभी परिस्थितियों के बन्धनों में जकड़े हुए हैं, लेकिन यकीन मानिए इनमें से ज़्यादातर हमारी खुद की खींची हुयी लकीरें है, खुद से उठायी हुयी दीवारें हैं. ये बंधन हमने खुद मिलकर बाँध लिए हैं. हमने एक ऐसा समाज बनाया है, जिसमें सबकी भूमिकाएं पहले से लिखी हुयी है, सबके खांचे पहले से बना दिए गए हैं. हम जिन्हें रीति-रिवाज या सामाजिक नियम कहते हैं, उनमें से "अधिकांश" अप्रसांगिक, खोखले और पुराने हो चुके हैं. लेकिन हम अब भी इनके मोह में पड़े हैं. कब तक?

3 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

ब्लाग बुलेटिन के बुलेटिन की छपने की खबर आते ही जैसे ही शीर्षक दिखता है पता चल जाता है आज कौन ले कर आया है सूत्रों के सफर में चलने के रास्ते का नक्शा । बहुत सुन्दर प्रस्तुति ।

कविता रावत ने कहा…

बहुत सुन्दर बुलेटिन प्रस्तुति में मेरी पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!

शिवम् मिश्रा ने कहा…

रात की तह को खोल कर दिन निकालना बेहद जरूरी है ... :)

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