खत्म होनेवाला है हमारा इस साल का सफ़र। 2020 अपनी गुनगुनी,कुनकुनी आहटों के साथ खड़ा है दो दिन के अंतराल पर।
चलिए इस वर्ष को विदा देते हुए कुछ बातें कहती चलूँ ...
यूँ तो ब्लॉग,फेसबुक के माध्यम से मैं रहती हूँ आपके बीच, लेकिन सच कहूँ तो बड़ी थकान सी लगती है। जाने कितने एहसास सांता की तरह शब्दों की खनखनाती, सिसकती पोटली लिए मेरे पास आ बैठते हैं, और सागर की लहरों की तरह मुझे छूते हैं। ज़ोर से झिंझोड़ते हैं, लिखो न ... चौंक उठती हूँ, कोई और काम करती हुई कहती हूँ, "रुको थोड़ी देर" और उस थोड़ी देर को मैं भूल जाती हूँ, अनमनी सी सोचती हूँ, कुछ तो लिखना था, लेकिन क्या ??? इस तरह कितने खास एहसासों को भूल जाती हूँ या फिर कभी कभी लिखते हुए बीच में ही सोच की दिशा भटक जाती है, ऐसी हतप्रभ,आधी अधूरी जाने कितनी रचनाएं ड्राफ्ट में पड़ी रहती हैं किसी रद्दी कागज़ की तरह । और कई बार की साफ सफाई में उसे हटा देती हूँ ।
लिखना, उसे पोस्ट करके अपनी उपस्थिति दिखाना शायद मेरे जीने का एक उपक्रम है, ठीक उसी तरह जिस तरह मैं ऑनलाइन चीजें देखती हूँ, सेव करती हूँ ... फिर हटा देती हूँ या कभी बेजरूरत ऑर्डर कर देती हूँ ।
आपने देखा होगा, संभवतः शिकायत भी हुई होगी, मैं पोस्ट पढ़ती हूँ, लाइक का बटन दबाती हूँ, कुछ लिखती नहीं । पर यकीन कीजिये, बदहवास खानाबदोश की तरह इधर-उधर घूमते हुए उस लाइक का बहुत अर्थ है ।
आधे पुराने गीत सुनती हूँ, आधी पुरानी-नई फिल्म पर अटकती हूँ - मंथन करती हूँ और अचानक निर्विकार हो जाती हूँ ।
ये कहने का सिर्फ इतना ही मतलब है कि वर्षों इतना कुछ घटित हुआ है वजह बेवजह कि इस नए वर्ष में मेरा कोई वादा नहीं है - न आपसे,न खुद से । सबकुछ समय पर निर्भर है, ... हाँ, खानाबदोश की तरह दिखती रहूँगी ।
और शायद नहीं, निःसंदेह - यही बहुत है ।
आज का आखिरी वार्षिक अवलोकन
प्रीति अज्ञात का ब्लॉग
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बाबा की बेंत
बाबा की चमचमाती, सुन्दर, गोल घुण्डीनुमा बेंत जाने कितने ही काम आती थी। शैतान बच्चों की टोली इसकी खटखट सुनते ही गद्दों और चारपाई के नीचे साँसें रोक दुबक जाती, फिर इसी बेंत की घुंडी में उनकी टांग फँसाकर उन्हें बाहर निकाला जाता। उसके बाद पूरा घर किलकारियों से घंटों यूँ गूँजता रहता जैसे कि दीवारों ने हँसी ने घुँघरू पहन रखे हों। बच्चे डरते कहाँ थे इस बेंत से, उन्हें तो इसे थामे दादाजी का स्नेह भरा हाथ और भी लम्बा लगता था। वे कभी बाबा की पीठ पर झूला झूलते तो कभी उनकी गोदी में जा बैठते।
उन दिनों ये बेंत सबके लिए बहुत उपयोगी हुआ करती थी। कभी बिल्ली तो कभी बन्दर भगाने के भी खूब काम आती। कौन विश्वास करेगा भला कि तब रेगुलेटर खराब होने पर इससे घुमाकर पंखा तक चल जाया करता था! वैसे इसकी पहुँच दूर-दूर तक थी। पड़ोस वाले अंकल जी के बेटे राहुल को जब-जब बगिया से आम या नींबू तोड़ने होते तो तुरंत आवाज देता, "छोटू, जरा बेंत तो दे यार!"
छोटू अपनी महत्ता देख तुरंत गर्व से भर उठता। दौड़कर दादाजी के पास जाता और अपनी गोल-गोल आँखों में प्रसन्नता के हजार पंख लिए पूछता, "बाबा, ले जाऊँ न?"
यह प्रश्न पूछना एक औपचारिकता भर ही होती थी। बाबा के उत्तर देने की प्रतीक्षा करे बिना ही वह बेंत लेकर भाग उठता। बाबा भी अरे, अरे कह उसे रोकने का नाटक भर करते और दिल में खूब आशीष देते।
छोटू जिस तीव्र गति से जाता, उतनी ही गति से लौट भी आता था। वो हमेशा शर्ट को गोलमोल करता ही लौटता और उन तहों को खोलते ही सब तरफ फल बिखर जाते।
बाबा हमेशा टोकते, "क्यों रे, बेंत देने गया था या फल लेने?"
छोटू सीना चौड़ाकर इतराता, "पता है, राहुल भैया ने दिए हैं। बेंत के हुक में कट से अटकाकर झट से इत्ते सारे फल तोड़ लेते हैं। सारे अकेले कैसे खाएंगे?" उसके भोलेपन और गोल बटननुमा आँखों को मटकाते हुए चहकने के अंदाज़ पर बाबा निहाल हो उठते।
इधर घर की बहुएँ भी इसकी ठकठक सुन 'बाबूजी आ गए' कह सहज ही घूँघट खींच खुसपुस ख़ूब चुहलबाज़ियाँ करतीं। उनके लिए ये बाबा की उपस्थिति की सूचक थी, सम्मान थी।
दरअस्ल ये बेंत, बस बेंत भर नहीं थी और न बाबा का सहारा थी। उन्हें तो इसकी आवश्यकता तक न थी पर दादी के गुजर जाने के बाद इससे एक रिश्ता-सा जोड़ लिया था उन्होंने। इसे खूब चमकाकर रखते। जहाँ भी जाते, हमेशा साथ ले जाते। उनके जीवन का जरुरी हिस्सा बन गई थी ये।
बाबा अब बीमार रहने लगे थे। लेकिन अपनी बेंत को सिरहाने रख सोना कभी न भूलते। कभी रह भी जाती तो तुरंत ही किसी न किसी को आवाज़ दे पास रखवा लेते, तब ही उन्हें चैन की नींद आती। छोटे बच्चे गुदगुदाते हुए कहते कि "बाबा, ये बेंत लोरी भी सुनाती है क्या? जैसे दादी हमें सुनाया करती थीं?" दादी का ज़िक्र आते ही बाबा की आँखें
भर आतीं और रुंधे गले से हमेशा एक ही उत्तर देते, "बेटा, तेरी दादी सा कोई न हो सकेगा। चकरघिन्नी सी लगी रहती थी दिन-रात। न जाने फिर भी इतना हँस कैसे लेती थी!" बाबा की उदासी देख बच्चे उनसे लिपट जाया करते थे। यूँ वो इन गहरी बातों का मर्म ज्यादा समझ तो नहीं पाते थे।
बेंत थी, तो जैसे ऊर्जा थी घर में! घर दिन-रात चहकता। बड़ा मान, बड़ा रौब था इसका। इससे जुड़ी शैतानियाँ थीं, अनगिनत किस्से-कहानियाँ थीं।
फिर एक दिन बाबा ऐसे सोये कि उठे ही नहीं! बाबा गए तो जैसे बेंत की आत्मा भी चली गई। बच्चों को तोड़फोड़ में मजा कम आने लगा। छोटू को अब फल तोड़ने में कोई आनंद नहीं आता था। बहुएँ चुपचाप अपनी-अपनी रसोई बनातीं और कमरे में चली जातीं। धीरे-धीरे हर बात पर लड़ाई-झगड़े होने लगे और कभी किलकारियों से गूँजता ये घर अब गहन उदासीनता से भर सायं-सायं कर काटने को दौड़ता।
एक दिन वसीयत पढ़ी गई। हर वस्तु का बँटवारा हुआ।
लेकिन उसके बाद सीढ़ियों के नीचे बने खाँचे में उपेक्षित पड़ी, वर्षों धूल खाती रही ये बेंत।
फिर एक दिन माली काका ने इसे भुतहा घोषित कर दिया गया।
बाबा की चमचमाती, सुन्दर, गोल घुण्डीनुमा बेंत जाने कितने ही काम आती थी। शैतान बच्चों की टोली इसकी खटखट सुनते ही गद्दों और चारपाई के नीचे साँसें रोक दुबक जाती, फिर इसी बेंत की घुंडी में उनकी टांग फँसाकर उन्हें बाहर निकाला जाता। उसके बाद पूरा घर किलकारियों से घंटों यूँ गूँजता रहता जैसे कि दीवारों ने हँसी ने घुँघरू पहन रखे हों। बच्चे डरते कहाँ थे इस बेंत से, उन्हें तो इसे थामे दादाजी का स्नेह भरा हाथ और भी लम्बा लगता था। वे कभी बाबा की पीठ पर झूला झूलते तो कभी उनकी गोदी में जा बैठते।
उन दिनों ये बेंत सबके लिए बहुत उपयोगी हुआ करती थी। कभी बिल्ली तो कभी बन्दर भगाने के भी खूब काम आती। कौन विश्वास करेगा भला कि तब रेगुलेटर खराब होने पर इससे घुमाकर पंखा तक चल जाया करता था! वैसे इसकी पहुँच दूर-दूर तक थी। पड़ोस वाले अंकल जी के बेटे राहुल को जब-जब बगिया से आम या नींबू तोड़ने होते तो तुरंत आवाज देता, "छोटू, जरा बेंत तो दे यार!"
छोटू अपनी महत्ता देख तुरंत गर्व से भर उठता। दौड़कर दादाजी के पास जाता और अपनी गोल-गोल आँखों में प्रसन्नता के हजार पंख लिए पूछता, "बाबा, ले जाऊँ न?"
यह प्रश्न पूछना एक औपचारिकता भर ही होती थी। बाबा के उत्तर देने की प्रतीक्षा करे बिना ही वह बेंत लेकर भाग उठता। बाबा भी अरे, अरे कह उसे रोकने का नाटक भर करते और दिल में खूब आशीष देते।
छोटू जिस तीव्र गति से जाता, उतनी ही गति से लौट भी आता था। वो हमेशा शर्ट को गोलमोल करता ही लौटता और उन तहों को खोलते ही सब तरफ फल बिखर जाते।
बाबा हमेशा टोकते, "क्यों रे, बेंत देने गया था या फल लेने?"
छोटू सीना चौड़ाकर इतराता, "पता है, राहुल भैया ने दिए हैं। बेंत के हुक में कट से अटकाकर झट से इत्ते सारे फल तोड़ लेते हैं। सारे अकेले कैसे खाएंगे?" उसके भोलेपन और गोल बटननुमा आँखों को मटकाते हुए चहकने के अंदाज़ पर बाबा निहाल हो उठते।
इधर घर की बहुएँ भी इसकी ठकठक सुन 'बाबूजी आ गए' कह सहज ही घूँघट खींच खुसपुस ख़ूब चुहलबाज़ियाँ करतीं। उनके लिए ये बाबा की उपस्थिति की सूचक थी, सम्मान थी।
दरअस्ल ये बेंत, बस बेंत भर नहीं थी और न बाबा का सहारा थी। उन्हें तो इसकी आवश्यकता तक न थी पर दादी के गुजर जाने के बाद इससे एक रिश्ता-सा जोड़ लिया था उन्होंने। इसे खूब चमकाकर रखते। जहाँ भी जाते, हमेशा साथ ले जाते। उनके जीवन का जरुरी हिस्सा बन गई थी ये।
बाबा अब बीमार रहने लगे थे। लेकिन अपनी बेंत को सिरहाने रख सोना कभी न भूलते। कभी रह भी जाती तो तुरंत ही किसी न किसी को आवाज़ दे पास रखवा लेते, तब ही उन्हें चैन की नींद आती। छोटे बच्चे गुदगुदाते हुए कहते कि "बाबा, ये बेंत लोरी भी सुनाती है क्या? जैसे दादी हमें सुनाया करती थीं?" दादी का ज़िक्र आते ही बाबा की आँखें
भर आतीं और रुंधे गले से हमेशा एक ही उत्तर देते, "बेटा, तेरी दादी सा कोई न हो सकेगा। चकरघिन्नी सी लगी रहती थी दिन-रात। न जाने फिर भी इतना हँस कैसे लेती थी!" बाबा की उदासी देख बच्चे उनसे लिपट जाया करते थे। यूँ वो इन गहरी बातों का मर्म ज्यादा समझ तो नहीं पाते थे।
बेंत थी, तो जैसे ऊर्जा थी घर में! घर दिन-रात चहकता। बड़ा मान, बड़ा रौब था इसका। इससे जुड़ी शैतानियाँ थीं, अनगिनत किस्से-कहानियाँ थीं।
फिर एक दिन बाबा ऐसे सोये कि उठे ही नहीं! बाबा गए तो जैसे बेंत की आत्मा भी चली गई। बच्चों को तोड़फोड़ में मजा कम आने लगा। छोटू को अब फल तोड़ने में कोई आनंद नहीं आता था। बहुएँ चुपचाप अपनी-अपनी रसोई बनातीं और कमरे में चली जातीं। धीरे-धीरे हर बात पर लड़ाई-झगड़े होने लगे और कभी किलकारियों से गूँजता ये घर अब गहन उदासीनता से भर सायं-सायं कर काटने को दौड़ता।
एक दिन वसीयत पढ़ी गई। हर वस्तु का बँटवारा हुआ।
लेकिन उसके बाद सीढ़ियों के नीचे बने खाँचे में उपेक्षित पड़ी, वर्षों धूल खाती रही ये बेंत।
फिर एक दिन माली काका ने इसे भुतहा घोषित कर दिया गया।