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शनिवार, 17 दिसंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 33



दाँतों की डॉक्टरनी चला बिहारी ब्लॉगर बननेवाले सलिल भाई का शानदार प्रयास है, सलिल भाई के साथ रहा डॉक्टरनी का इंतज़ार - क्लिनिक आज बन्द है" से सभी पाठक का मन छोटा हो जाता था, अच्छा कल' की उम्मीद लिए सभी पाठक फेसबुक  पर चक्कर लगाकर लौट जाते  ... 
किश्तों की यात्रा उत्कंठा देती है, 
पूरी कहानी चाय की मिठास बढ़ा जाती है  .... 
बुलेटिन अवलोकन पूरी कहानी के साथ :)


                                 Image may contain: 1 person , close-up    
                                                      सलिल वर्मा 

डॉक्टरी के पेशे में काम करते हुए, जहाँ हर रोज कई लोगों से, मिलना होता है और उनकी अलग अलग मानसिकता के भाव चेहरे पर पढना पडता है. किसी का गुस्सा भाँपकर, उनके फट पडने से पहले डिफ्यूज कर देना, किसी की खुशियों में साझीदार बन जाना और अफसोस में सांत्वना के दो शब्द कहना... यह सब कुछ चेहरा देखकर समझना पडता है.
लेकिन वो जब भी आता मेरे पास तो उसके चेहरे को देखकर कुछ समझ नहीं आता. दबी दबी सी खुशी, बहुत सारा खालीपन (उदासी तो नहीं है शायद...) लगता है, गले लगा लूँ उसे और कहूँ कि तुम अपना रंजो-गम, अपनी परेशानी मुझे दे दो. लेकिन गला और ज़ुबान दोनों साथ छोड़ देते हैं.
उससे मिलना जितनी खुशी देता है, उतना ही उदास कर जाता है!
उसके दाँत के ऑपरेशन के बाद डॉक्टर...ऊप्स डॉक्टरनी ने गर्म चाय पीने से मना किया था. उसने दो एक बार फोन पर पूछा, लेकिन साफ़ मनाही हो गयी.
एक दिन सुबह उसने फोन किया, "मैम! हम चाय पी सकते हैं?"
"मना किया है ना, थोड़ा रुक जाओ!"
"लेकिन अब कोई तकलीफ नहीं है, ठण्डा करके पी लेंगे!"
"लगता है तुम चाय के बिना नहीं रह सकते!" डॉक्टरनी ने हँसकर कहा," अच्छा कोई बात नहीं, तुम चाय पी सकते हो!"
"थैंक यू! तो फिर आप मेरे घर आएंगी चाय पीने कि हम आपके घर आ जाएँ. आज छुट्टी है!"
"दाँत तोड़ दूंगी!" डॉक्टरनी ने हंसते हुए फोन काट दिया,"स्वीट बॉय!"
"तुम इतना उदास क्यों हो?"
"नहीं तो! ऐसी तो कोई बात नहीं."
"कम से कम अपनी शकल को तो अपनी बात के साथ रखा करो. वो तुम्हारे दिल की चुगली कर देती है."
"क्यों, उदास होने के लिये कोई कोर्स करना होता है क्या!" वो हँस पड़ा... एक सूखी सी हँसी. 
"नहीं! ऐसा नहीं है. पहले तो मुझे लगा था कि मैंने जो तुम्हारा दाँत का ऑपरेशन किया है, उसकी तकलीफ है."
"वही तो है. मैं तो अभी तक खिचड़ी खा रहा हूँ."
"ढंग से झूठ तो बोल लिया करो. घाव भर गया है और तकलीफ बिलकुल नहीं."
.
ये दाँतों की डॉक्टरनी आँखों के रास्ते से दिल का हाल कैसे जान लेती है.
"अब आराम से अपना सिर पीछे टिकाओ, देखूँ दाँत का क्या हाल है!"
...
"हम्म! हील हो चुका है. चलो अब इधर आकर बैठ जाओ." "वो देखो, लगता है तुम्हारे पॉकेट से पेन गिर पड़ा है चेयर पर! ये पेन तुम हमेशा अपनी जेब में रखते हो?"
"हाँ! कुछ खाली कागज़ और एक पेन!"
"क्यों. लिखते क्या हो तुम?"
"कुछ भी. कभी कोई पुरानी बात याद आ गई, कोई नयी बात दिख गई, किसी की बात भा गई, कुछ भी. हमारे आस-पास कितना कुछ है, देखने, सुनने और सुनाने के लिये."
"आस-पास के लोग देखेते हों तो क्या सोचते होंगे!"
"ये फूल्सकैप कागज को चार तह में मोड़ लेता हूँ तो छोटा हो जाता है. फिर हर परत पर एक सीरियल नंबर देकर लिख लेता हूँ, मेट्रो में बैठे हुए, कॉफ़ी हाउस में कॉफ़ी पीते हुए. बाद में नम्बरवार पढूँ तो सब कहानी सा लगता है."
"अच्छा! इंट्रेस्टिंग!! फिर तो तुम्हारे दाँतों पर हुई मेरी ज्यादती की भी बात लिखी होगी तुमने?"
"दाँत के ऑपरेशन में मसूढों को सुन्न करती हैं न आप डॉक्टर, दिमाग और दिल तो अपना काम करते ही रहते हैं!"
"और ये कैसे सुन्न होते हैं?"
"कोई बहुत करीबी जब छोडकर चला जाए तो!"
कराहों की चहलकदमी 
कई दिन से है होठों पे
जुबां मुश्किल में बैठी है छुपी
चुपचाप बैठा मैं 
कि दाँतों की जड़ों में 
दर्द ने झूला लगाया है 
न सो पाता 
न जग पाता
कभी बाएँ, कभी दाएँ
कभी हलके से सहलाता
मैं तलहथियों से 
गालों को!
- (मृदुला प्रधान)

“वॉव! इतना सुन्दर ग्रीटिंग्ज़ कार्ड. किस खुशी में?” 
”आज डॉक्टर्स डे है ना, तो बस आपके लिये.” 
”ब्यूटिफ़ुल!” कार्ड खोलकर देखते हुये, “ये तुमने इसपर अलग से क्या लिख रखा है?” 
”जो छपा है वो उनकी बात है, जो मैंने लिखा है वो मेरी फ़ीलिंग है.” 
”ये स्पेशल ट्रीट्मेण्ट, मेरे लिये?” 
”ऐसा नहीं है. मैं आज भी हाथ से ख़त लिखता हूँ और डाक में पोस्ट करता हूँ. अपनापन सा लगता है.” 
”देखूँ क्या लिखा है तुमने...
दर्द शैतान से बच्चे की तरह 
आख़िरी बेंच पर बैठा था 
दुबक कर चुपचाप
वक़्त-बेवक़्त जब मिले मौक़ा
पिन चुभो देता था वो चुपके से 
कितनी रातों को मैं सोया ही नहीं 
कितने दिन भूखे गुज़ारे हैं 
इसी टीस के साथ 
सख़्त टीचर की तरह आपने पहचान लिया 
और उस दर्द को फ़ौरन ही रस्टिकेट किया.
वण्डरफ़ुल!! तो तुम शायरी भी कर लेते हो!” 
”यही तो ट्रैजिडी है. हम दर्द का बयान भी करें तो लोग शायरी समझकर तालियाँ बजाने लगते हैं!”
“अच्छा, एक बात बताओ. तुम्हें यहाँ का रेफ़रेंस किसने दिया?”
”ओ. हेनरी ने.” 
”क्या मतलब?” 
”मोबाइल ऐप्प पर डेण्टिस्ट ढूँढ रहा था. इस लोकैलिटी में आधा दर्ज़न डेण्टिस्ट दिखाई दिये.” 
”तो...?” 
”ओ. हेनरी की कहानी ‘द ग्रीन डोर’ की तरह मैंने जिस नाम पर ऊँगली रखी, वो यहाँ ले आई.” 
”अच्छा, तो तुम राइटर हो!!” 
”ऊहूँ! कम्प्यूटर सॉफ़्ट्वेयर इंजीनियर... लिटरेचर मेरा पैशन है.” 
”ओके! ओके!!... हाँ तो देखो, सबसे पहले तो एक्स-रे लेना होगा, तभी सही सिचुयेशन समझ में आएगी.” 
”अरे वाह! दर्द का भी एक्स-रे होता है!” 
”एक्स-रे दाँत का होता है, दर्द का ईलाज होता है.” 
”ईलाज क्या होगा?” 
”इंजेक्शन लगेगा. हल्का दर्द भी होगा तुम्हें.” 
”कोई बात नहीं डॉक्टर. जो दर्द इतने साल बर्दाश्त किया है, उसके आगे तो ये मामूली दर्द होगा.” 
”अब ये क्या?” 
”कुछ नहीं. दाँत के दर्द की बात कर रहा हूँ!” 
”नॉटी बॉय!!”
“तुमने कभी ये नहीं बताया कि तुम्हारे घर में कौन-कौन है.”
"आपने कभी पूछा भी तो नहीं."
"अब पूछ रही हूँ!"
”मम्मी-पापा हैं. पापा रिटायर हो गये हैं और मम्मी अभी नौकरी में हैं.” 
”भाई बहन?” 
”भाई मैं और बहन की शादी हो गयी. एक प्यारी सी भांजी भी है मेरी.” 
”और कोई... यहाँ?” 
”एक चाचा हैं मेरे. जब कभी परेशान होता हूँ, उनको परेशान करने उनके पास चला जाता हूँ.” 
”और तुम..?” 
”फ्री लांस काम करता हूँ. न कोई बॉस है न सबॉर्डिनेट. ख़ुद खाना बनाता हूँ, खा लेता हूँ, क्लाएण्ट्स के काम करता हूँ, फ़िल्में देखता हूँ, नॉवेल्स और पोएट्री पढता हूँ.” 
”ये ख़ुद खाना बनाने का काम किसी और को क्यों नहीं दे देते और बदले में फ़िल्में देखने में वो तुम्हें कम्पनी दे!” 
”मम्मी भी कहती रहती हैं. लेकिन मेरे जैसे पागल के लिये कौन खाना बनाने को तैयार होगा.” 
”होगा नहीं... होगी!” 
”ओके... होगी! मगर बदले में शायरी सुनना और सैड इटालियन फ़िल्में देखना.” ”तुम्हें क्या लगता है कि तुम अकेले पागल हो! कोई न कोई तो पगली होगी ही जो मान जाएगी!” 
”पगली तो थी... मान भी गई थी... लेकिन उसके पागलपन का ईलाज यहाँ नहीं था... कनाडा चली गयी.”
“तो क्या हुआ... बात करो उससे! शायद लौट आए."
“कनाडा का डॉक्टर बहुत क़ाबिल है... उसके ईलाज से अब वो पागल ही नहीं रही.”
“डॉक्टर, आप क्लिनिक में ही हैं ना?”
“कहाँ हो तुम. इतनी देर हो गई और आज तुम्हारी दूसरी सिटिंग है.”
“एक क्लाएंट से मिलने जाना पड़ गया और उधर ही देर हो गई... मैं बस पाँच मिनट में पहुँच रहा हूँ.”
“तुम हो कहाँ?”
“नुक्कड़ पे. आ गया बस...!”
“इतनी देर से तुम्हारा फोन ट्राय कर रही थी. स्विचड ऑफ मेसेज आ रहा था.”
“बैटरी खतम हो गई थी. अभी आते हुए मेट्रो में चार्ज की तो अभी बात कर पा रहा हूँ.”
“चलो, जल्दी पहुँचो! आज की सिटिंग कैंसिल करनी पड़ेगी. क्योंकि मैं ऑलरेडी लेट हो चुकी हूँ.”
......
“ये लीजिए आ गया मैं.”
“जब देर हो ही चुकी थी तो मेसेज कर देते. आने की क्या ज़रूरत थी. बेकार परेशानी हुई.”
“मेरी मम्मी कहती है कि किसी को मिलने का समय दो और न जा पाओ, तो उसके पास जाकर उसे बताओ कि तुम नहीं आ सकते. ये तब की बात है जब सेल-फोन नहीं होते थे. मगर आज भी आदत में है मेरे. बस, इसीलिए आया कि आपको बता सकूँ, आप इंतज़ार में होंगीं.”
“इंतज़ार के साथ-साथ मैं परेशान भी थी कि फोन भी नहीं लग रहा और कोई मेसेज भी नहीं... बात क्या है!”
“अब आज मैं आपकी बात दुहराता हूँ – ये स्पेशल ट्रीटमेंट मेरे लिये.”
“हाँ तुम्हारे लिये! वज़ह मत पूछना...!”
“नहीं पूछूँगा! मुझे भी पता है कि ऊपर से आप जितना सख्त बनती हैं ना डॉक्टर, उतनी आप हैं नहीं!”
“आपने फ़िल्म ‘आनंद’ तो देखी ही होगी?”
“हाँ क्यों?”
“क्या सचमुच डॉक्टर और मरीज़ का रिश्ता ऐसा होता है?”
“मेरे कई डॉक्टर दोस्त हैं जो अपने मरीज़ों के साथ दोस्त, भाई और नाते-रिश्तेदारों सा व्यवहार करते हैं. मेरे एक दोस्त का एक मरीज़ तो उनको बाबू मोशाय बुलाता था.”
“और आपको कोई मरीज़ मिला ऐसा…?”
“मुझे ज़्यादातर बच्चे मिले!” 
“आपने कभी सोचा कि अपने प्रोफेशन के बारे में या इससे जुड़ी ऐसी बातें जो आम आदमी को जाननी चाहिये वो लोगों से कहें?”
“मुझे स्कूलों में बुलाते हैं दाँतों की देखभाल पर लेक्चर देने के लिये, बच्चों के बीच.”
“कभी ब्लॉग लिखने के बारे में नहीं सोचा आपने?”
“नहीं... इतना समय भी नहीं और पढता कौन है. मैंने फेसबुक पर भी देखा. ज़्यादातर लोग लाइक का बटन दबाकर चले जाते हैं. बात सीरियस हो तो भी मज़ाक बन जाता है और कभी-कभी किसी की हल्की-फुल्की बात भी दिल दुखा देती है.”
“ऐसा हो ही ज़रूरी तो नहीं. बात पढ़ने वाली हो तो पढते हैं लोग.”
“ऐसी बातें जो लोग पढें, वो या तो पॉलिटिकल होती हैं या कंट्रोवर्सियल. मेरे ख़ुद के डेण्टिस्ट ग्रुप में भी मैंने देखा है. दाँतों की बीमारियों पर बहस करने के बजाए, दाँत काटने को दौड़ते हैं, ज़रा-ज़रा सी बात पर!”
“तो फिर आप अपनी एक वेबसाइट बनाइये. मैंने बहुत सारे डोमेन ख़रीद रखे हैं, बहुत सस्ते दाम पर. एक वेबसाइट ऐसी हो जिसमें आपके प्रोफेशन से जुड़ी दुनिया भर की ख़बरें हों, लेकिन उनके सिर्फ लिंक्स होंगे... कमेंटरी आपकी होगी. इससे आम आदमी और स्पेशलिस्ट दोनों को फ़ायदा होगा.”
“एक बात बताओ... तुम मुझसे बात कर रहे हो कि मेरा इण्टरव्यू ले रहे हो. कल को मेरे नहीं रहने पर यह तुम्हारा एक्स्क्लूसिव इण्टरव्यू होगा.”
“ज़िंदगी और मौत तो ऊपरवाले के हाथ में है जहाँपनाह, इसे ना तो आप बदल सकते हैं और ना हम. हम सभी तो रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं, जिसकी डोर ऊपरवाले के हाथों में है. कब, कहाँ और कैसे कौन उठ जायेगा कोई नहीं जानता. हा हा हा..!”
“आज तुम्हारा क्राउन बनकर आ गया है.” 
”ओह्हो!! तो आज ताजपोशी है हमारी!” 
”तुम्हारी नहीं, तुम्हारे दाँत की. उस दिन जो तुम्हारा नाप लेकर बनवाया था, देखें सही बना है या नहीं.” ”मुँह खोलो.”... “अब मैं यह क्राउन तुम्हारे दाँत पर बिठा रही हूँ. हो सकता है चुभे या हल्का दर्द हो. लेकिन वो सब मामूली दर्द है तुम्हारे लिये.” 
”.....................” 
”अब बताओ, कैसा महसूस हो रहा है?” 
”बिल्कुल ठीक लग रहा है, एकदम असली दाँत की तरह.” 
”गुड... अब तुम्हें खाने में भी कोई परेशानी नहीं होगी.” 
”इतने दिनों से दिमाग जो खा रहा हूँ आपका, उसमें भी कोई परेशानी नहीं हुई.”
”नहीं दिमाग तो बिल्कुल नहीं खाया तुमने. हाँ बहुत सी पुरानी बातें याद करा दीं.”
"कैसी बातें?” 
”तुम्हारी बातें... बातें नहीं बकबक...” 
”पास बैठो कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं. तफसील पूछोगे तो कह दूँगा मुझे कुछ नहीं पता!” 
”ये किस महापुरुष ने कहा है?”
"सनातन कालयात्री ने!” 
”हाँ तो मैं कह रही थी कि तुम्हारी बकबक सुनकर लगता है कोई कहानी या उपन्यास पढ़ रही हूँ.” 
”अरे वाह! तो आप उपन्यास भी पढ़ती हैं. बताया नहीं कभी आपने!” 
”अभी मैंने बताया ही कहाँ है कुछ.” 
”तो बताइये कि आपका प्रिय उपन्यास कौन सा है?” 
”शिवाजी सावंत का मृत्युंजय!” 
”मैंने दो बार पढ़ी है. पहले स्कूल के समय और दुबारा अभी हाल में. लेकिन दुबारा एक बात खटकती रही. घटनाओं को जानबूझकर प्रेडिक्टिव बनाया गया है. जबकि ‘वयम् रक्षाम:’ भी पौराणिक पृष्ठभूमि पर है, लेकिन ज़रा भी प्रेडिक्टिव नहीं.” 
”हम्म्म!” 
”काश ज़िन्दगी इतनी प्रेडिक्टिव होती.” 
”ज़िन्दगी इशारे तो करती ही है. ये और बात है कि हम उसके इशारे नहीं समझ पाते.”
“हम्म्म! लगता है अब दो-तीन सिटिंग में तुम्हारे दाँत बिल्कुल दुरुस्त हो जाएँगे.”
”तो इसे मैं खुशखबरी समझूँ!”
”और क्या! एक डॉक्टर, पुलिस और वकील से छुटकारा मिलना सचमुच खुशी की बात होती है.”
“यानि मुझे अब कुछ दिनों बाद यहाँ आने की ज़रूरत नहीं रहेगी!” 
”बिल्कुल...!” 
”.......................” 
”अरे! तुम्हारा चेहरा तो ऐसे उतर गया जैसे किसी बच्चे के हाथ से उसकी चॉकलेट छीन ली जाए!” 
”......................” 
”कुछ बोलते क्यों नहीं तुम?” 
”इतने दिनों से बोल ही तो रहा हूँ मैं! सच डॉक्टर, इन दिनों जितनी बातें मैंने आपसे की हैं, शायद बरसों में किसी के साथ नहीं की. यहाँ तक कि बिना ऐपॉएण्टमेण्ट के भी चला आता हूँ.” 
”इंसान तो दीवार या पेड़ को भी अपने मन की बात कहकर मन हलका कर लेता है. तुमने तो मुझसे... एक इंसान से अपनी बातें कहीं. तुम्हें तो सुकून महसूस करना चाहिये!” 
”इंसान तो बहुत मिले डॉक्टर, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं. मुझे तो यहाँ तक सुनने को मिला कि अपने दर्द की मारकेटिंग मत करो, दुनिया में पहले ही बहुत है!” 
”ऐसे लोगों को अपना प्रेम तो एहसास लगता है और दूसरों का दर्द कॉमोडिटी. अपनी मुहब्बत के किस्से तो दुनिया भर को बताएंगे, लेकिन जब उनसे दर्द बाँटो तो कहेंगे इसका कोई मार्केट नहीं.”
“जानती हैं डॉक्टर, मुझे निर्मल वर्मा के उपन्यास इसीलिए अच्छे लगते हैं. उनमें एक ईमानदार अवसाद होता है, झूठे एहसास नहीं.”
“लेकिन हम ये सब अभी क्यों डिस्कस कर रहे हैं. तुम्हें अभी आना है मेरे पास... आई मीन यहाँ, कुछ दिन और!”
“और उसके बाद...!”
“बतौर मरीज़ नहीं... मुझसे मिलने आने पर तो मैंने पाबंदी नहीं लगाई.”
“ओफ्फोह! वैसे तो समय से पहले ही आ जाता है और कभी बिना ऐप्वाएण्टमेण्ट के भी. लेकिन आज क्यों नहीं आया अभी तक!”
“हो सकता है कहीं अटक गया होगा, किसी क्लाएंट के साथ. दो चार और पेशेंट देख लूँ, तब तक आ जाएगा.”
“लेकिन वो तो कभी इतनी देर नहीं करता है. कोई ज़रूरी काम होता तो फोन कर देता. ऐसे बिना बताए, चुप बैठने वालों में से नहीं है वो. ओके... नेक्स्ट पेशेंट!”
“.....................”
“साढ़े सात बज गए, उसे छः बजे तक आ जाना चाहिए था. डेढ़ घंटे लेट... हो ही नहीं सकता.”
“चलो मैं ही फोन कर लेती हूँ...!”
“कोई आवाज़ नहीं आ रही है... लग ही नहीं रहा फोन...!”
“हाँ... हाँ... बीप हो रही है. लग जा.. लग जा.. लग जा मेरे भाई...!”
(द वोडाफोन कस्टमर यू हैव कॉल्ड इस इदर स्विचड-ऑफ और आउट ऑफ कवरेज एरिया. आपने जिस ग्राहक को कॉल किया है वो या तो स्विचड ऑफ है या कवरेज क्षेत्र से बाहर है)
“ये दूसरी बार है कि उसका फोन स्विचड ऑफ है. हो सकता है मोबाइल की बैटरी डिस्चार्ज हो गई हो. लेकिन डेढ़ घंटे से भी ज़्यादा समय हो गया है, इतनी देर में उसे चार्ज करने का समय नहीं मिला, ऐसा कैसे हो सकता है. कितनी बार कहा कि एक पावर बैंक ले लो, मगर नहीं!”
“...................”
“मेरी घड़ी का समय मोबाइल से मिला हुआ है और मोबाइल टीवी से. समय गलत नहीं हो सकता.”
“आने दो उसको, सच्ची दाँत न तोड़ दिया तो मेरा नाम... हुँह!!”
(द वोडाफोन कस्टमर यू हैव कॉल्ड इस इदर स्विचड-ऑफ और आउट ऑफ कवरेज एरिया. आपने जिस ग्राहक को कॉल किया है वो या तो स्विचड ऑफ है या कवरेज क्षेत्र से बाहर है)
“क्या कहता था वो ‘मेरी मम्मी कहती है कि किसी को मिलने का समय दो और न जा पाओ, तो उसके पास जाकर उसे बताओ कि तुम नहीं आ सकते.’ कहाँ गई वो बकवास.”
“साढ़े आठ बज रहे हैं और सारे पेशेंट जा चुके हैं. एक लास्ट बार कोशिश करती हूँ, फिर चलती हूँ.”
(द वोडाफोन कस्टमर यू हैव कॉल्ड इस इदर स्विचड-ऑफ और आउट ऑफ कवरेज एरिया. आपने जिस ग्राहक को कॉल किया है वो या तो स्विचड ऑफ है या कवरेज क्षेत्र से बाहर है)
“अब तो गुस्सा करने में भी डर लग रहा है. पता नहीं... छी:!! भगवान करे सबकुछ ठीक-ठाक हो!”
“.....................”
“ड्राइवर! गाड़ी हनुमान मंदिर की तरफ से ले लेना!”
“एक्सक्यूज़ मी! आज की सारी अपॉयण्टमेण्ट ख़तम हो चुकी हैं और आपका तो कोई अपॉयण्टमेण्ट भी नहीं है!” 
”जी नहीं, मैं दरसल आपसे दूसरे सिलसिले में मिलने आई हूँ!” 
”मैं समझी नहीं.”
”मैं उसकी दीदी हूँ.” 
”उसकी?? किसकी???” 
”उसी की जिसका इंतज़ार आप भी कर रही हैं. जो अपनी आख़िरी सिटिंग पर भी नहीं आया.” 
”तुम?? बड़ी बहन???... उसने कभी ज़िक्र भी नहीं किया.” 
”मैं उसकी मुँहबोली बहन हूँ. जब वो इस शहर में आया तो बिल्कुल अजनबी था. संजोग से उसके चाचा का ट्रांसफ़र उसी समय पुणे हो गया और वो फिर से अकेला हो गया. मेरे हसबैण्ड की कम्पनी का काम उसके पास है. इसी सिलसिले में दो एक बार घर आया. पता नहीं क्या सोचकर उसने मुझसे कहा कि वो मुझे भाभी नहीं दीदी कहेगा. बस तब से यही रिश्ता है.” 
”ओह! लेकिन वो...? है कहाँ? आया क्यों नहीं? फ़ोन क्यों नहीं किया? फ़ोन बन्द क्यों है उसका?” 
”एक एक करके जवाब दूँ, तो चलेगा?”
“क्लिनिक बन्द करने का समय हो गया है. मेरा घर पास में ही है. चलें... वहीं चलकर बात करते हैं!” 
”मैं अपने हसबैण्ड को मुझे आपके घर से पिक करने को कहती हूँ.”
“डॉक्टर! आपके घर पर कौन-कौन हैं?” 
”मैं और मेरे पति... और कुछ यादें!”
“तुम चाय पिओगी?”
“कौन बनाएगा?”
“मैं और कौन...!”
“ऐसा है तो मैं बनाती हूँ चाय! आप अदरख की चाय पिएंगी?”
“पी लूंगी. इन्हें अदरख की चाय बिल्कुल पसंद नहीं. कहते हैं चाय सिर्फ चाय होनी चाहिये. अदरख, दालचीनी, इलायची, सौंफ डालना ही है तो बेहतर है उसमें सरसों और ज़ीरे की बघार लगा दो.”
“कमाल का लॉजिक है. वे वकील हैं क्या?”
“नहीं, गायनेकॉलॉगिस्ट हैं.”
“कब तक लौटते हैं वो क्लिनिक से?”
“इस समय तक लौट आते हैं, लेकिन फ़िलहाल किसी सेमिनार में हिस्सा लेने बैंगलोर गये हैं. दो दिन बाद लौटेंगे... तुम चाय बनाओ, मैं चेंज करके आती हूँ. किचन उस तरफ है और सारा सामान वहीं है.”
“जी!... ये रही पत्ती, ये फ्रिज में दूध और अदरख.” 
“लो मैं आ गई. तुम्हारी चाय तैयार हुई कि नहीं.”
“बस लेकर आ रही हूँ.” 
.....
“अरे वाह! चाय तो बहुत अच्छी बनाई है तुमने. एक चुस्की में सारी थकान गायब हो गयी!... अरे हाँ तुमने उसके बारे में बताया नहीं. कहाँ है वो? कहाँ ग़ायब हो गया?”
“वो उस दिन आपके क्लिनिक ही आने वाला था तभी उसे मेसेज मिला कि उसके पापा का ऐक्सिडेण्ट हो गया है. उन्होंने यह भी कहा कि घबराने की बात नहीं, लेकिन वो जाने के लिये तैयार हो गया.”
“ठीक है, लेकिन यह बात वो मुझे बता तो सकता था न?”
“उसके मोबाइल की बैटरी डिस्चर्ज हो गयी थी. और फिर वो सीधा रेलवे स्टेशन गया और बिना रिज़र्वेशन के ट्रेन में चढ गया. भाग-दौड में उसका मोबाइल कहीं गिर गया.”
“घर पहुँचकर क्यों फ़ोन नहीं किया, उसे पता नहीं था कि किसी को फ़िक्र होगी.”
“उसकी ट्रेन रास्ते में पटरी से उतर गयी थी.”
“क्या कहा... ट्रेन डिरेल हो गई...!”
“अरे डॉक्टर, सम्भालिये अपने आप को... ये क्या हुआ! आप ठीक तो हैं न?”
“मैं ठीक हूँ. मुझे कुछ नहीं हुआ! एक ग्लास पानी पिला दो फ्रिज से.”
“अभी लाई!”
“आप ठीक तो हैं ना?”
”मैं ठीक हूँ.”
”वो कहाँ है? उसकी हालत कैसी है?”
”वो बिल्कुल ठीक है. बहुत मामूली सा ऐक्सिडेण्ट था. किसी को कुछ नहीं हुआ. उसके पापा को हार्ट की प्रॉब्लेम रहती है, इसलिये उसने उन्हें भी नहीं बताया. किसी के फ़ोन से उसने मुझे फ़ोन करके आपसे बताने को कहा.”
”अभी है कहाँ वो?”
”पटना में है, अपने घर पर. शायद उन्हें साथ लेकर दो-तीन दिन में यहाँ आए. एम्स के किसी कार्डियोलॉजिस्ट से समय लिया है.”
”ऐसा ही था तो मुझसे क्यों नहीं कहा! उसे मुझसे पूछना चाहिये था.”
”शायद संकोच होगा उसे.”
”संकोच नहीं ज़िद्दी है वो. उसकी पुरानी आदत है. बातों को छिपाकर रखता है और कुछ नहीं बताता. जब हम समझाएंगे तो अपना राग लेकर बैठ जाता है.”
”पुरानी आदत?? आपको कैसे पता?”
”और नहीं तो क्या. एक तो कहता नहीं किसी से और जब समझाने चलो तो ज़िद में आकर मुँह फुला लेता है.” 
“लेकिन...” 
”चुप भी कहाँ होता है वो जबतक उसकी ज़िद पूरी न हो जाए! जब छोटा था तो आँख-मुँह लाल कर लेता था रोते-रोते! लेकिन हर ज़िद पूरी तो नहीं की जा सकती!” 
”मैं कुछ समझी नहीं... एक्स्क्यूज़ मी! लगता है मेरे हस्बैण्ड आ गये हैं. मैं चलती हूँ, लेकिन इस वादे के साथ कि फिर मिलूँगी!”
“(पता नहीं ये दीवार पर लगी तस्वीर किसकी है!)” 
”आती रहना! बहुत सी बातें करनी हैं तुमसे!”
“लीजिये मैं आ गया... सही सलामत वन-पीस में.”
”अच्छा हुआ तुम घर पर आये हो. क्लिनिक पर तो तुम्हें ढंग से डाँट भी नहीं सकती थी.”
”मैं सिर झुकाए खड़ा हूँ, जितनी डाँट लगानी हो लगा लीजिये आप!”
”तुम्हारी इसी ऐक्टिंग के आगे तो हमेशा हार जाती हूँ मैं. पापा कैसे हैं? रिपोर्ट्स कैसी हैं?”
”कुछ खास नहीं. तीन महीने बाद फिर से बुलाया है रूटीन चेक-अप के लिये.”
”इस तरह कोई गुम होता है क्या!”
”मैंने कहा था न कि मुसीबतें मेरा पीछा करती रहती हैं. अब भी याद करता हूँ तो विश्वास नहीं होता, कितना भयानक दिन था वो.”
“तुमने मोबाइल लिया नया?”
”हाँ पापा ने लेकर दिया!”
”अब 16 सितम्बर को तुम्हारे जन्मदिन पर मैं तुम्हें एक पावर-बैंक गिफ्ट करूँगी. तब ये तो नहीं कहोगे तुम कि बैटरी डिस्चार्ज हो गई.”
”लेकिन मेरा जन्मदिन तो 12 फरवरी को होता है!”
”ओह सॉरी...! मैं भूल गयी थी.” 
”कोई बात नहीं. लेकिन ये तारीख़ आपको कैसे याद आई?”
”बस यूँ ही!”
”डॉक्टर साहब नहीं दिख रहे.”
”कोई इमरजेंसी ड्यूटी है. देर से लौटेंगे!”
”ख़ैर! मेरे दाँतों का ईलाज अब कब से शुरू होगा?”
”सोमवार से...”
”तो अब चलूँ. सोमवार को मिलता हूँ अपने दाँत तुड़वाने के लिये. आज तो बच गया.”
”ज़रा सी बात पर क्यों तुम मुझसे बचना चाहते हो? तुम्हारी दुश्मन तो नहीं हूँ ना मैं!”
”अरे! मैंने ऐसा तो नहीं कहा कुछ.”
”वेरी सॉरी! मुझे क्या होता जा रहा है.”
”आप कुछ अपसेट लग रही हैं. मुझसे कहिये तो सही. कुछ तो है आपके मन में.”
“अगर उसी दिन कह दिया होता, तो कितना अच्छा होता.” 
”आप आराम कीजिये. मैं सोमवार को मिलता हूँ. ये दीवार पर किस हैण्डसम लड़के की तस्वीर है?” 
”तुम्हारी ही तो है.”
“तुम्हें मेरी बातें अटपटी लगती होंगी ना! ग़ैर-सिलसिलेवार... बेसिरपैर...”
“नहीं तो...! बिल्कुल नहीं. बल्कि मैं तो ख़ुद भी इसी तरह की बातें करता रहता हूँ.” 
”तुम्हारी बातों को लोग डायलॉग कह देते हैं और मेरी बातों को स्किज़ोफ़्रेनिक बड़बड़ाना... लेकिन मैं आज तुम्हारी बात दोहराना चाहती हूँ.” 
”कौन सी बात?” 
”वही कि मेरी बकबक नायाब होती हैं. तफसील पूछोगे तो कह दूँगा पता नहीं... या फिर इन दिनों मैं महसूस करने लगी हूँ कि मेरी आधी बातें बेमतलब होती हैं, लेकिन मैं सिर्फ इसलिये वो सब कहना चाहती हूँ कि तुम या और लोग उसे पूरा समझ सकें!” 
”समझ का क्या है डॉक्टर! जब मुझे लगता है कि मैं सबकुछ समझ रहा हूँ सामने वाला कह देता है तुम नहीं समझोगे.” 
”तुमने कभी समझाना भी तो नहीं चाहा. कई बार ये सोच लेना कि सामने वाले को समझ आ गया होगा, एक भ्रम होता है.” 
”हाँ शायद यही भूल रही हो मेरी. लेकिन यह सब बातें आपको कैसे मालूम?” ”
क्यों... तुम्हें ये क्यों लगता है कि जो पता है वो बस तुम्हें ही है और मैंने धूप में बाल सफ़ेद किये हैं! बस यही... यही ग़लतफ़हमी है तुम्हारी.” 
”आप ग़लत समझ रही हैं.” 
”मैं तो ग़लत समझूँगी ही. माँ-बाप हमेशा ग़लत होते हैं. वो बच्चों को नहीं समझते. बच्चे सही होते तो वो मद्रासन तुम्हें छोड़कर दुबई क्यों चली जाती.” 
”वो मद्रासन नहीं, बंगालन थी और वो कनाडा गई थी दुबई नहीं. और हाँ, वो मुझे छोड़कर नहीं गयी, हमारी आपसी रज़ामन्दी से गयी थी.” 
”मैं तुम्हारी बात नहीं कर रही.” 
”................” 
”अब चुप क्यों हो? बोलते क्यों नहीं?” 
”नहीं... कुछ नहीं... कुछ नहीं कहना मुझे!” 
”तुम्हें हर्ट किया. मैं सॉरी बोलूँ तो क्या अच्छा लगेगा तुम्हें!” 
”नहीं पाप लगेगा मुझे!”
“ये भगवान भी कभी-कभी बड़े भद्दे मज़ाक करता है.” 
”वो तो सिर्फ करता है, क्योंकि उसने हमारे लिये सब कुछ सोच रखा है. वो तो हम हैं, जो उसे भद्दा, अच्छा, मज़ाक और आशीर्वाद मान लेते हैं.” 
”कितने बड़े हो गये हो तुम... कितनी बड़ी-बड़ी बातें करने लगे हो.” 
”बातें सिम्पल हैं बिल्कुल... हम हमेशा उससे माँगते ही तो रहते हैं, ऐसे में ना मिले तो उसे ‘भद्दा मज़ाक’ कह देते हैं... बजाए इसके, जो मिला है उससे, जो दिया है उसने, उसी का धन्यवाद करें तो मन में दु:ख जैसा क्यों रहेगा कुछ भी.” 
”बहुत बड़ी-बड़ी बातें करने लगे हो तुम... तर्क करने की आदत गई नहीं तुम्हारी!” ”छोटा मुँह बड़ी बात कह जाऊँ तो माफ़ कर दीजियेगा, डॉक्टर!” 
”नहीं नहीं, अच्छा लगता है...!” 
”हाँ तो आप क्या कह रही थीं?”
“भद्दा मज़ाक नहीं, तो जो भी कह लो इसे. डॉक्टर साहब को लोग भगवान मानते हैं. कितनी सूनी गोद उनके ईलाज से हरी हुईं. लेकिन ख़ुद उनके घर की दीवारें किसी बच्चे की किलकारी सुनने को तरस गईं.” 
”तो फिर ये तस्वीर...” 
”सोलह सितम्बर उन्नीस सौ नब्बे... तब हमारा क्वार्टर हॉस्पिटल कम्पाउण्ड में ही था... सुबह जब मैंने दरवाज़ा खोला तो एक सुन्दर सा बच्चा एक बास्केट में दरवाज़े पर रखा था. हमें लग गया कि कोई छोड़ गया है.”
“फिर आपने क्या किया?” 
”हॉस्पिटल, पुलिस, कोर्ट और फिर कस्टडी...!”
“ये सब तो काफ़ी मुश्किल रहा होगा?” 
”पता नहीं. अपनी प्रैक्टिस छोड़कर मैं उस बच्चे के पीछे ऐसी लगी कि पूछो मत. समय पर दूध पिलाना, उसकी नैप्पी बदलना, उसे नहलाना-धुलाना, उसका वैक्सिन चार्ट बनाना... उस महीने भर के समय में माँ का रोल निभाते-निभाते कब मैंने ख़ुद को उस बच्चे की माँ मानना शुरू कर दिया, मुझे पता ही नहीं चला.”
“उसके बाद?” 
”डॉक्टर साहब ने एक दिन कहा कि उस बच्चे को गोद ले लेते हैं.”
“गोद तो ले ही लिया था आपने, बाकी क्या था?” 
”कानूनी फ़ॉर्मेलिटीज़ के बाद वो बच्चा हमें मिल गया... उसके बर्थ सर्टिफ़िकेट पर हमारा नाम लिखा था और उस दिन डॉक्टर साहब ने मुझसे कहा - भगवान ने देवकी बनने का मौक़ा तो नहीं दिया यशोदा बनने का सौभाग्य तुम्हें मिला है... कुंती न सही राधा ही सही!”
“बचपन से ही वो पढने लिखने में बहुत अच्छा था. लेकिन उसका मन लिटरेचर, आर्ट और ड्रामा में बहुत लगता था. स्कूल का कोई फ़ंक्शन ऐसा नहीं होगा जिसमें उसने हिस्सा नहीं लिया हो... या यूँ कहो कि उसके बिना स्कूल का कोई फंक्शन होता ही नहीं था.” 
”फिर तो मुझसे भी बेहतर डायलॉग बोलता होगा वो!” 
”सिर्फ डायलॉग नहीं, ऐक्टिंग भी शानदार... कभी कोई ड्रामा लिखकर ले आता और मुझसे कहता कि ये वाला रोल तुम करो मम्मी. मना कर दो तो मुँह फुलाकर बैठ जाता.” 
”फिर तो आप भी ऐक्टिंग करने लगी होंगी उसके साथ.” 
”माँ का तो सारा जीवन ही ऐक्टिंग करते बीत जाता है... बच्चों की ज़िद की ख़ातिर, उनकी बात ना भी पसन्द आये तो अच्छा कहना पड़ता है. कभी सच्ची-कभी बनावटी. 
"भगवान राम ने भी तो चाँद की ज़िद की थी कौशल्या माता से.” 
”वो भी ऐसा ही ज़िद्दी है... बहुत. कोई भी बात मना करो तो पूछता कि इसका लॉजिक क्या है. मैं तुम्हारी माँ हूँ ये लॉजिक काफ़ी नहीं कहने पर चुप हो जाता. कहता – माँ कहकर आप मुझे दबा सकती हैं, लेकिन कन्विन्स नहीं कर सकतीं.” ”कमाल का लॉजिक है ये भी.” 
”किसी बात पर उसे मेरा लॉजिक पसन्द नहीं आया तो घर से चला गया किसी दोस्त के घर... रात भर नहीं लौटा. कभी महीनों मुझसे बातचीत बन्द. मैं सॉरी बोलूँ तो कहता पाप लगेगा और ख़ुद सॉरी बोलकर मुझसे बच्चों की तरह लिपट जाता.” 
”मेरे वाला डायलॉग.” 
”एन.आई.टी. में क्वालिफ़ाय हुआ तो कहने लगा इंजीनियरिंग नहीं पढना है. बाद में डॉक्टर साहब के समझाने पर सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग की पढाई की और बी.टेक. किया.” 
”कहीं सेलेक्शन हुआ उसका?” 
”अमेरिका की कोई कम्पनी थी, लेकिन नहीं गया. कहने लगा अभी सोचूँगा आगे क्या करना है.” 
”कुछ बताया क्या करना है उसे?” 
”एक दिन कहने लगा शादी करनी है, वो भी एक मद्रासी लड़की से. हमारे मना करने पर कि पहले नौकरी कर लो फिर जो जी में आये करो... कहने लगा लॉजिक क्या है.” 
”डॉक्टर, एक बात बताइये... मैं बस पूछ रहा हूँ, उसकी वकालत नहीं कर रहा. आपको मद्रासी लड़की से परहेज था कि नौकरी न होने से प्रॉब्लेम थी?” 
"दोनों से... वो लड़की भी शायद किसी के साथ शादी करके दुबई चली गयी... ये बात भी उसी ने मुझे बताई.” 
”एक सीधी बात मुझे बताइये कि आप दोनों के सम्बन्ध आपस में कैसे थे?” 
”कहीं तुम ये तो नहीं सोच रहे कि हमारे रिश्तों में कड़वाहट थी. दरसल हम दोनों लड़ते-झगड़ते रहे हैं, लेकिन वो मुझे बहुत प्यार करता है और मैं तो उसके बग़ैर रह भी नहीं सकती. बचपन से लेकर अब तक उसके सारे नाटक, कविताएँ, नोट्स, कहानियाँ यहाँ तक कि उसकी बचपन की ड्राइंग तक मैंने सहेज कर रखी है.” 
”तो फिर...? कहाँ क्या गलत हो गया कि इस घर का चिराग दीवार पर तस्वीर बनकर रह गया?"
बेटे, हमलोग तुम्हारे माँ-बाप हैं. तुम्हें क्यों लगता है कि हम तुम्हारे बारे में ग़लत सोचेंगे!”
”मैंने ऐसा कब कहा माँ! मैंने तो हमेशा वही किया जो आपलोग चाहते थे. कभी किसी बात के लिये ज़िद नहीं की. मेरे दोस्तों ने यहाँ तक कहा कि माँ के पल्लू से बाहर निकल, लेकिन मैं हमेशा यही कहता रहा कि मेरी दुनिया है माँ तेरे आँचल में.”
”हमने कभी ऐसा नहीं चाहा कि तुम हमारे साये से बाहर न निकल सको. मैं ‘हम’ और ‘हमलोग’ कह रही हूँ, इसका मतलब इसमें तुम्हारे डैडी भी शामिल हैं.”
”मुझे पता है. मेरे कहने का ढंग सही नहीं हो सकता है, लेकिन मैंने वही किया जो आप लोगों ने चाहा, क्योंकि मैं आप लोगों से बहुत प्यार करता हूँ. आप कहा करती थीं कि दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि मुझे फलाँ काम नहीं करना है, जबकि उनमें से ज़्यादातर ऐसे लोग होते हैं जिन्हें वो काम मिला ही नहीं होता. इसलिये किसी को नकारने से पहले उसे पाकर दिखाओ, फिर उसे छोड़ो. पता तो चले तुम उसके लायक हो भी कि नहीं.”
”मैं आज भी इस बात को मानती हूँ. मेरा मेडिकल और डेण्टल दोनों में सेलेक्शन हुआ था, लेकिन मुझे डेण्टल पसन्द था, मैंने मेडिकल छोड़ दिया. ये नहीं कि मेडिकल में सेलेक्शन न होने के बाद कहा कि मुझे मेडिकल पसन्द नहीं, इसलिये डेण्टल में गई.”
”मैं भी आपका ही बेटा हूँ मम्मी! मैंने तो बी. टेक. अच्छे ग्रेड से पूरा किया और अब कह रहा हूँ कि मुझे पसन्द नहीं.”
“तुमने फ़ैसला कर लिया है कि मम्मी की बात नहीं मानोगे?”
”फ़ैसला ही तो नहीं किया कभी ख़ुद से, वरना आप आज सिर्फ माँ नहीं, सासू माँ होतीं.”
”अब तुम बड़े हो गये हो और जब तुमने फ़ैसला कर ही लिया है, तो क्या मैं पूछ सकती हूँ कि क्या सोचा है तुमने? क्या बनने का इरादा है?”
”एक अच्छा कलाकार बनना चाहता हूँ. थियेटर करना चाहता हूँ. प्लीज़ मम्मी , मुझे मना मत कीजिये.”
“ये नाटक-वाटक में क्या रखा है. ये सब शौक के लिये तो ठीक है, लेकिन कैरियर के लिये... हम क्या कहेंगे अपने सर्किल में.”
”मम्मी! एक बुरा इंजीनियर बनने से एक अच्छा कलाकार बनना कहीं बेहतर है. और आप अपने सर्किल की फ़िक्र बिल्कुल मत कीजिये. मैं जो भी काम करूँगा, उससे आपका सिर कभी नीचा नहीं होगा.”
”मगर बेटा...!”
”प्लीज़ मम्मी! मुझे ख़ूबसूरत कमल नहीं बनना है, क्योंकि मैं अपने अन्दर गुलाब की खुशबू महसूस करता हूँ. मुझे अर्जुन की तरह मछली की आँख दिख रही है. मैं नहीं जानता मैं अर्जुन बन सकता हूँ कि नहीं, लेकिन कर्ण के रूप में भी मेरी अलग पहचान होगी.”
“इतना सब हो गया माँ-बेटे के बीच! मैं फिर से वही सवाल दोहराना चाहता हूँ डॉक्टर कि आप दोनों के बीच क्या सब कुछ ठीक-ठाक था?”
”तुम क्या समझ रहे हो कि ये विद्रोह की आवाज़ थी! नहीं...! सुबह के निकले बेटे का क़द, अगर शाम को माँ-बाप के बराबर हो जाए तो उसे बेटा नहीं कहते हैं... दोस्त बना लेते हैं.”
”तो फिर ये विरोध...?”
”विरोध नहीं, मतभेद... डिफरेंस ऑफ ओपिनियन... और हमारे परिवार में सबके विचारों का सम्मान किया जाता रहा है, चाहे कितना भी हर्ट करने वाला क्यों न हो.”
”लेकिन...!”
”ऐसा नहीं होता तो वो सब बातें हम-दोनों कर ही नहीं पाते. मैं उसे माँ होते हुये हुक्म सुनाती और वो बेटे की तरह सिर झुकाकर आदेश का पालन करता. लेकिन उसने अपनी बात रखी और मैंने अपने तर्क दिये. ये बात और है कि उन तमाम बातों में एक माँ के इमोशंस भी थे.”
”उसकी बातें भी ठीक हैं अपनी जगह. उसने वो सब किया जो आपलोग चाहते थे... बदले में उसे वो करना था जो वो चाहता था.”
“तुम लोग ये कैसे सोच लेते हो कि हम जो सोचेंगे तुम्हारे बारे में, वो ग़लत ही होगा!”
”लेकिन आप सोचें ही क्यों?? आपके पास अपना बहुत कुछ है सोचने को. सचिन अगर बोर्ड की परीक्षा की तैयारी कर रहा होता, तो आज भारत रत्न नहीं होता. क्या उसके परिवार को गर्व नहीं है उस पर? एक वयस्क नागरिक देश चला सकता है, सरकार बनाने के लिये वोट दे सकता है, तो अपने बारे में नहीं सोच सकता?”
”ये बातें लॉजिकली सही लगती हैं, इमोशनली नहीं.” 
”इमोशन अगर बेड़ियाँ बन जाए, तो लॉजिकल होना बेहतर है. प्यार तो मुक्ति है, बन्धन नहीं.
”यही तो मैं भी सोचती हूँ... मानती भी हूँ... अब मानने लगी हूँ.” 
”मेरा सवाल तो अब भी वही है. फिर ऐसा क्या हो गया कि एक जीता जागता इंसान तस्वीर बनकर दीवार पर लटक गया?” 
”एक दिन उसने कहा कि वो जा रहा है और हमलोग उसकी खोज न करें. अब वो कुछ बनकर ही लौटेगा इस घर में. हमें लगा कि ऊपरवाला हमें बे-औलाद रखना चाहता था इसीलिये औलाद नहीं दी. हमने ज़बरदस्ती उसके फ़ैसले के ख़िलाफ़ पहल की, तो उसने उसे भी हमसे अलग कर दिया.” 
”आपने उसे ढूँढा नहीं? पुलिस कम्प्लेंट?” 
”प्यार तो मुक्ति है, बन्धन नहीं. अगर वो मेरा होगा तो लौट आएगा और नहीं लौटा तो वो मेरा कभी रहा ही नहीं होगा.”
“इतने दिनों में, क्या कभी उसने आपको कॉनटैक्ट करने की कोशिश की या ये बताया कि वो कहाँ है और क्या कर रहा है.” 
”वो मेरा बेटा है, मेरी ही तरह ज़िद्दी. मैं जानती हूँ कि वो मुझसे तब तक सम्पर्क नहीं करेगा जबतक वो अपने मिशन में कामयाब नहीं हो जाता. वो मुझे जताना चाहेगा कि वो सही था.” 
”आप अगर हार भी गईं, तो क्या आपको हारने का अफ़सोस होगा?” 
”इंसान सारी दुनिया से भी जीत जाये तो अपने बच्चों से हार जाता है. ऐसा न होता तो क्या दुर्योधन को रोकना भीष्म और धृतराष्ट्र के लिये मुश्किल होता.” ”इसे ज़िद्दी कहना सही होगा कि धुन का पक्का?” 
”जो भी कह लो... तुमने फ़िल्म “इजाज़त” देखी है... बिल्कुल अनुराधा पटेल की तरह का कैरेक्टर है वो.... ऐसा शख्स तुमने नहीं देखा होगा कभी.” 
”एक लड़का था मेरे साथ, मैं पहले जिस कम्पनी में काम करता था वहाँ. मेरे ग्रुप में इंजीनियर था, बहुत इंटेलिजेण्ट. काम में परफ़ेक्शन के अलावा वो शायरी करता था, लिटरेचर पढता था, कहानियाँ लिखता था, फ़िल्में देखता था और ड्रामा करता था.”
“हम्म्म.” 
”डॉक्टर, उसने मुझे भी फिल्में देखने की लत लगा दी थी. रविवार को एक साथ तीन-तीन फ़िल्में लगातार देख जाना और मुझे उनकी बारीकी समझाना... फिर एक दिन वो रिज़ाइन करके चला गया. कभी कभार बातें होती रहती थीं उससे, फिर मैं इधर चला आया.” 
”तो तुम्हें ये डायलॉग मारने और लिटरेचर की बीमारी उसी से मिली!” 
”कुछ जर्म्स रहे होंगे मेरे अन्दर भी, उसने उन्हें पनपने का माहौल पैदा कर दिया.”
“ये इंजीनियरिंग और आर्ट एक साथ कैसे चल सकते हैं... मतलब अजीब कॉम्बिनेशन है ना?” 
”अजीब नहीं... कई ऐसे हैं जिन्हें मैं जानता हूँ जो साहित्य को छोड़िये, प्राचीन शास्त्रों की इतनी गहरी और गूढ व्याख्या कर सकते हैं कि कोई प्रकाण्ड पण्डित भी पैर छू ले.”
“मैं फ़िल्में तो देख लेती हूँ, कुछेक लिटररी नॉवेल्स भी पढे हैं मैंने... अच्छे लगते हैं वो. मेरा बेटा मुझे उपन्यासों के कैरेक्टर और कहानी की बारीकियाँ समझाता था. इन फ़ैक्ट, मेरे अन्दर तो जो भी आर्ट के प्रति दिलचस्पी पैदा हुई है, वो सब उसी के कारण है. कई बार वो मुझे नाटक दिखाने भी ले गया, अच्छे लगे.” 
”बस अच्छा लगना ही तो आम जैसा मीठा है, अच्छा क्यों है, इस गुठली को तो फेंक ही देना चाहिये. क्या पता उसी गुठली से कोई नया आम जन्म ले.”
“ये बात तुम्हारी सही है, लेकिन मुझे लगता था कि वो अपने थियेटर के झुकाव को जस्टिफ़ाय करने के लिये मुझे लेकर जाता है. जबकि मैं सचमुच पसन्द करती थी.” 
”ये तो आपने कभी बताया ही नहीं. तो चलिये कल मैं आपको ले चलता हूँ दिखाने... और टिकट के पैसे आपकी फ़ीस में से नहीं काटूँगा.” 
“काट भी लो तो क्या फ़र्क पड़ता है, मेरे बेटे ही हो तुम.” 
”यह नाटक कई बार, कई मंच पर, अलग-अलग कलाकारों ने प्रस्तुत किया है. इस बार बिल्कुल नये कलाकारों की टीम है. प्लीज़ चलिये न.” 
”ज़िद्दी तुम भी कम नहीं. कब चलना है?” 
”कल शाम का शो.”
आज ड्रामा फ़ेस्टिवल का अंतिम दिन था. कल अवार्ड सेरेमनी है. फिर भी हमें एक नाटक देखने का मौक़ा तो मिला.” 
“ये नाटक भी बड़ी अजीब शै है. एक बन्द कमरे में, सैकड़ों लोगों के बीच एक सीमित दायरे में ज़िन्दा इंसानों का ख़ुद से अलग... ख़ुद की दुनिया से अलग... एक नया संसार रचना... कितना थ्रिलिंग लगता है ना.”
”सिनेमा में भी तो ऐसा ही होता है.”
”क्या बात करते हो तुम! सिनेमा और थियेटर में तो सबसे बड़ा अंतर यही है कि नाटक में रि-टेक नहीं होता. जो हो गया सो हो गया.”
”बिल्कुल सही कहा डॉक्टर! फ़िल्मों में तो टुकड़े-टुकड़े में शूटिंग करते हुये ख़ुद कलाकार को भी नहीं पता होता कि वो क्या कर रहा है और कहानी क्या है फ़िल्म की.”
”थियेटर में एक आदमी एक ही समय पर पूरी कहानी जीता है. एक बदला हुआ किरदार... वो अपना व्यक्तित्व ही भूल चुकता है पूरी तरह.”
”इसीलिये थियेटर से फ़िल्मों में आये कलाकार ज़्यादा सधी हुई और वास्तविक ऐक्टिंग करते हैं.”
“कुछ ऐक्टर्स तो आज भी फ़िल्मों की शूटिंग के पहले मेक-अप करके ख़ुद को उस चरित्र में ढालने की कोशिश करते हैं, ताकि उन्हें थियेटर का फ़ील हो.”
”थियेटर में आवाज़ का असर भी कम करामाती नहीं होता. हर आर्टिस्ट अपनी आवाज़ को आख़िरी दर्शक तक पहुँचाने की कोशिश करता है, साथ ही यह ख़्याल भी रखता है कि आवाज़ बिगड़े नहीं. जबकि सिनेमा में डबिंग के माध्यम से आवाज़ की भी कॉस्मेटिक सर्जरी हो जाती है.”
”मैं तुम्हारा सचमुच धन्यवाद करती हूँ कि तुम मुझे आज नाटक दिखाने लाए. इतनी ख़ूबसूरत कहानी कि मैं तो कई बार रो पड़ी. माँ-बेटे के रिलेशन को जितने इमोशनल तरीके से दिखाया है कि मुझे कई बार लगा कि ये मेरी कहानी है. ख़ासकर वे दृश्य जहाँ दोनों का कनफ़्रण्टेशन दिखाया गया है.”
”मैं तो ख़ुद इमोशनल हो गया. कई बार तो यह फ़ैसला करना मुश्किल हो गया कि माँ की बात को जस्टिफ़ाय करें कि बेटे की बात को.”
”नाटककार तो लिटररी परसन होता ही है, लेकिन मुझे लगता है कि एक कलाकार के लिये भी पोएट्री या दूसरे लिटरेचर को जानना-समझना बहुत ज़रूरी है. जब कोई अदाकार नाटककार की मनोदशा को छू पाता है, तभी वह उस पात्र की आत्मा को अपने अन्दर पूरी ईमानदारी से उतार सकता है. ज़ुबान से ऐक्टिंग करना और दिल से ऐक्टिंग करने में यही फर्क होता है शायद.”
“जब मैंने रश्मिरथी और राम की शक्तिपूजा पढी, तो मुझे उसे बार-बार पढने की इच्छा हुई. और जब बार-बार पढता गया तो लगा कि मैं उन चरित्रों में ढल गया हूँ... एक अदाकार को साहित्य की समझ होनी ही चाहिये!” 
”ख़ैर, आज की रात मुझे अपने बेटे की बहुत याद आएगी. शायद मैं भी ख़ुद से बात कर सकूँ और समझ सकूँ या समझने की कोशिश कर सकूँ अपने बेटे को!” 
”इस बात से आप दोनों से भी ज़्यादा खुशी मुझे होगी, डॉक्टर!” 
”तुम मुझे डॉक्टर क्यों कहते हो.” 
”फिर क्या कहूँ?” 
”माँ कहोगे तो मुझे अच्छा लगेगा!”
सुधिजन्, एक पखवाड़े तक चलने वाले नाट्य पर्व की आज पूर्णाहुति है. कल आपने हमारी अंतिम प्रस्तुति का आनन्द लिया. इस प्रकार हमने विगत चौदह दिनों में आपके समक्ष लगभग पन्दरह नाट्य-संस्थाओं द्वारा प्रस्तुत किये गये तीस नाटकों का मंचन किया. थियेटर और सिनेमा जगत से जुड़े वरिष्ठ कलाकारों, निर्देशकों व अन्य तकनीशियनों के एक पैनेल ने इन सभी नाटकों का एक सम्पूर्ण मूल्यांकन किया है तथा विभिन्न सम्वर्ग में सर्वश्रेष्ठ प्रतिभागी का चुनाव किया है. ध्यान रहे कि यह चुनाव बहुत कठिन था और प्रत्येक प्रतिभागी का कार्य सराहनीय. इस बात की पुष्टि प्रत्येक मंचन के पश्चात समाचारपत्रों में प्रकाशित समीक्षाएँ भी करती हैं. 
इस वर्ष की प्रविष्टियों की विशेषता यह रही कि भारी संख्या में नये कलाकारों ने भाग लिया, जिसके परिणामस्वरूप इस वर्ष नयी प्रतिभाओं को देखने, परखने और सराहने का अवसर मिला. साथ ही यह एक सुखद संकेत है कि वर्तमान युवा पीढी में अभी भी कला के प्रति जो समर्पण दिखाई दे रहा है उससे यह आशा की जा सकती है कि भरत मुनि द्वारा प्रज्ज्वलित ज्योति सुरक्षित हाथों में है. पुरस्कारों की घोषणा से अलग, मैं एक कलाकार का नाम लेना चाहूँगा, जिसे एकमत से निर्णायक मण्डल के सभी सदस्यों ने सराहा है... जिसने दो नाटकों में चार पात्रों को निभाया और एक नाटक में निभाये गये दो पात्रों में अभिनेता के स्तर पर भी दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति होने का आभास कराया...
......
आपकी करतलध्वनि यह बता रही है कि वो नाम आपसे छिपा नहीं... और वो नाम है....”
”अरे! ये क्या बात हुई. मुझे तो नाम सुनाई ही नहीं दिया. इतना शोर और इतनी तालियाँ. मुझे तो कुछ भी सुनाई नहीं दिया. तुम्हें सुनाई दिया क्या?” 
”नहीं डॉक्टर... सॉरी माँ, मुझे भी नहीं पता चला. कोई बात नहीं, अभी स्टेज पर आएगा तो देख पाएंगे... शायद दुबारा नाम पुकारें.” 
.....
”अब मैं उनसे अनुरोध करूँगा कि वे मंच पर पधारें तथा दो शब्द कहें अपनी इस रंगयात्रा के बारे में.” 
”ओफ्फोह!! अजीब बिहेव कर रहे हैं यहाँ के लोग. सब के सब खड़े हो गये हैं और मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है.” 
”माँ आप चुपचाप बैठी रहिये. थोड़ी देर में भीड़ अपने आप शांत हो जाएगी. तब हम देख भी सकेंगे और सुन भी सकेंगे.” 
”फिर भी इन्हें बच्चों की तरह बिहेव नहीं करना चाहिये.” 
”जाने दीजिये... सुनिये...!” 
....
”सबसे पहले आप तमाम दर्शकों को मैं प्रणाम करता हूँ. एक कलाकार की सबसे बड़ी भूख दर्शकों की सराहना और उनकी तालियाँ होती है जो एक कलाकार की कला साधना के यज्ञ में समिधा का काम करती हैं. मैं आप सभी के प्रति पुन: आभार प्रकट करता हूँ और यह वादा करता हूँ कि मैं आपकी तालियों की कसौटी पर खरा उतरने की कोशिश करूँगा.” 
”ज़रा सुनो... सामने वाले आदमी को बैठने को तो कहो.” 
”माँ आप परेशान मत होइये. मैं कोशिश करता हूँ... भाई साहब, आप प्लीज़ बैठ जाएंगे... इत्मिनान से बैठेंगे तो सब देख सुन सकेंगे... ओफ्फोह! कोई नहीं सुन रहा है.” 
”मुझे आगे की ओर ले चलो.” 
”आप तो काँप रही हैं... क्या हुआ... आपकी तबियत तो ठीक है ना? घर चलें?” ”नहीं, मैं बिल्कुल ठीक हूँ. तुम बस मुझे किसी तरह स्टेज के पास ले चलो.” 
”आप देख रहीं हैं न कितनी भीड़ है आगे. लोग पैसेज में खड़े हैं और चींटी सरकने भर की भी जगह नहीं है. थोड़ा सबर कीजिये.” 
”और कितना सबर करूँ मैं. कितना सबर... इतने सालों का सबर क्या कम है?” ”बात क्या है माँ?” 
”ये आवाज़ सुनी हुई लग रही है. मैं बस देखना चाहती हूँ कि क्या वो चेहरा भी मेरा पहचाना हुआ है.”
“आज जब मैं यहाँ हूँ, तो मुझे लग रहा है कि मेरा बरसों पुराना सपना पूरा हो गया है. मुझे याद भी नहीं आता कि मैंने इसके अलावा कोई सपना भी देखा हो. यही एक सपना अपनी आँखों में लिये, मैं एक लंबे सफर पर न जाने कब निकल पड़ा था. आज जब मंजिल पे खडा हूँ तो लगता है कि यह एक मरीचिका है, मेरी मंजिल तो न जाने कहीं और आगे है. मेरा सफर लगता है अब और अभी शुरू हुआ है.”
“उपस्थित देवियों और सज्जनों!! अब मैं आप लोगों के समक्ष यह घोषणा करता हूँ कि इस नाट्य पर्व के निर्णायक मण्डल ने यह निर्णय लिया है कि इस वर्ष का नटराज पुरस्कार उस कलाकार को प्रदान किया जाए जो आपके सामने खड़ा है और जिसका परिचय आपका यह शोर और तालियाँ हैं.”
....
“अब मैं नहीं रुक सकती. मैं नहीं बैठी रहूंगी यहाँ. मुझे ले चलो... उस तरफ ले चलो मुझे... मुझे देखना है कि यह कौन है. क्यों इसकी आवाज़ सुनकर मेरे दिल में एक टीस सी उठ रही है.”
“माँ! एक मिनट रुक जाइए. लोगों ने आगे रास्ता बंद कर रखा है. मैं आपको धीरे-धीरे रास्ता बनाते हुए ले चलता हूँ... भाई साहब, ज़रा रास्ता देंगे... प्लीज़ इनकी तबियत ठीक नहीं है.”
“मैं बिलकुल ठीक हूँ... मुझे खुद को संभालना आता है. बस मुझे देखना है कि ये कौन है.”
“माँ, एक मिनट, सुनिए... मंच पर उसे अवार्ड दिया जा रहा है.. शायद वो कुछ कहना चाहता है...!”
“मैं चेयर पर खड़ी हो जाती हूँ.. मुझे सहारा दो.”
“ऐसा नहीं कर सकते... पीछे से लोग हल्ला करेंगे.”
...
“मैं निर्णायक मण्डल के गुणी जनों का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ. इतने बड़े गुरु लोगों ने मेरे नाम का चुनाव नटराज पुरस्कार के लिये किया है, मैं विश्वास नहीं कर पा रहा. यह पुरस्कार पाना किसी भी कलाकार के लिये सम्मान का विषय होता है, लेकिन साथ ही इसे अपने हाथों में उठाना बहुत कठिन काम है. इस नटराज प्रतिमा का भार हाथों से कहीं अधिक अपने कंधों पर महसूस होता है मुझे. चोटी पर पहुँचना और वहाँ बने रहना दोनों दो अलग और विपरीत अवस्थाएं हैं. मैं लोगों की आशाओं पर खरा उतरने की कोशिश सदा करता रहूँगा.”
“और यह पुरस्कार प्रदान करने के लिये...”
“क्या मैं एक छोटी सी विनती कर सकता हूँ?”
“बताइये...”
“मैं चाहूँगा कि यह नटराज पुरस्कार मैं अपनी माँ के हाथों ग्रहण करूँ.”
“अरे! आपकी माँ भी यहाँ आई हैं?... देवियों और सज्जनों, इनका आग्रह है कि यह पुरस्कार वे अपनी माँ के हाथों ग्रहण करें. क्यों न आप ही अपनी माँ को आवाज़ देते हैं.”
“अवश्य!! ये किसी न किसी महापुरुष ने ज़रूर कहा होंगा कि मैं जो हूँ और जो होने की उम्मीद करता हूँ, वो सिर्फ अपनी माँ की बदौलत... लेकिन मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं कि ये बात किसने कही थी... मैं बस इतना जानता हूँ कि यह आज मैं कह रहा हूँ. मेरी रंग यात्रा में मेरी माँ के आंसुओं के बादलों ने हमेशा मुझे शीतल छाया प्रदान की है. मेरा इस पुरस्कार को पाना इसलिए भी माने रखता था कि मुझे अपनी माँ के इंतजार और आंसुओं को जाया नहीं होने देना था... माँ, आप कहाँ हैं... मंच पर आइये और मुझे गले लगाइए.”
“ड्राइवर! गाड़ी हनुमान मन्दिर की तरफ से ले लेना... आज मैं कितनी खुश हूँ बता नहीं सकती. डॉक्टर साहब को फोन पर नहीं बताया, उनके लिये भी सरप्राइज़ होगा.” 
”अच्छा डॉक्टर... माँ! क्या आपको यकीन था कि ये लौट आएगा?” 
”एक माँ के दिल से पूछो तो उसने ये उम्मीद कभी खोयी ही नहीं थी. जब छोटा था तो भी ये छिप जाता था... कितना भी ढूँढो, नहीं मिलता... मैं चुपचाप बैठकर स्वेटर बुनने लगती, तो पीछे से आकर आँखें बन्द कर लेता था... इस बार उसका छिपना कुछ लंबा रहा... बोलते क्यों नहीं तुम.”
“क्या बोलूँ माँ... थियेटर करते समय, हर मौक़े के लिये मुझे सम्वाद लिखकर दे दिये जाते हैं... उनको बोलकर लगता है मैंने मन की सारी बात कह डाली... लेकिन ज़िन्दगी के स्टेज पर डायलॉग चुक जाते हैं, इंसान स्पीचलेस हो जाता है. बस आपको इस कदर जकड़ने का जी चाह रहा है कि वो सारी दूरियाँ, जो इतने सालों में पसर गयी थीं, सिमट कर मिट जाएँ.” 
”इतने सालों में कभी माँ नहीं याद आई.” 
”हा हा हा! आपको तो पता है कि हमारी फ़ैमिली में हर आदमी के सीने में ज़िप लगी हुई है और जब कोई याद आने या प्यार करने पर शक करता है, अगला तुरत ज़िप खोलकर दिखा दिया जाता है... मैं भी दिखाऊँ दिल चीरकर कि आपकी कितनी याद आती थी.” 
”माँ से डायलॉग बोलने की ज़रूरत नहीं... अरे मैं तो भूल ही गई... इससे मिलो, ये मेरा पेशेण्ट बनकर आया था और आज बेटा बनकर हमारे साथ है... अगर ये नहीं होता, तो शायद मैं तुमसे मिल भी नहीं पाती. तुम्हारा क्या, तुम तो इस फ़ेस्टिवल के बाद चुपचाप खिसक गये होते. जब आने की ख़बर माँ को नहीं की, तो जाने की बात बताने की तो कोई ज़रूरत भी नहीं रहती न.” 
”ऐसा नहीं है माँ. आप नहीं होतीं तो ये ट्रॉफ़ी लेकर ही मैं आपके पास आता.” ”तुझे कैसे पता कि ये अवार्ड तुझे ही मिलेगा.” 
”आपने ही तो बताया था कि कोई भी काम शुरू करने के पहले ये कभी मत सोचो कि दूसरे तुमसे बेहतर हो सकते हैं, हमेशा ये दिमाग़ में बिठा लो कि तुम सबसे बेहतर हो. टॉपमॉस्ट अवार्ड हमेशा एक ही होता है, लेकिन तुम्हें दो की ज़रूरत भी नहीं होती... बस मैंने मान लिया कि नटराज अवार्ड मुझे ही मिलेगा और मैंने कहा कि मैं अवार्ड अपनी माँ के हाथों से ही लूँगा.” 
”एक माँ के लिये इससे बड़ा अवार्ड कोई हो ही नहीं सकता... लेकिन एक मिनट... एक मिनट... तुमने कहा कि मैं यह अवार्ड अपनी माँ के हाथों से लूँगा... तुम्हें कैसे पता चला कि मैं वहाँ हॉल में हूँ,.. जब मैं तुम्हें नहीं देख पा रही थी तो तुमने कैसे देख लिया मुझे?”
अब बताओ कि तुम्हें कैसे पता चला कि मैं तुम्हारे अवार्ड फंक्शन में आने वाली हूँ?”
“मैं जानता था... अगर आप पूरी शिद्दत से किसी से मिलने की ख्वाहिश करें तो सारी कायनात आपको उससे मिलाने में जुट जाती है.”
“ये सब बातें आज तक किसी ने अपनी माँ के लिये नहीं कही. ये सब अपनी गर्ल-फ़्रेंड के लिये कोई कहे तो अच्छा लगता है.”
“मैं औरों की तरह नहीं हूँ माँ.”
“ये सब जाने दो, लेकिन सच सच बताओ तुम्हें पता कैसे चला?”
“आपके इस दूसरे बेटे ने मुझे बताया.”
“इसे ये तो पता है कि मेरा बेटा थियेटर की धुन में घर से चला गया है, लेकिन वो तुम हो ये इसे कैसे पता चला? तुम्हारी तस्वीर देखकर? लेकिन तब भी इसके पास इतना समय कहाँ था कि तुम्हें बता सकता, क्योंकि आज तो ये सारे समय मेरे साथ ही था.”
“माँ, मैं बताता हूँ ये सब. आपके जीवन में कौन सी घटना कब होने वाली है यह तो परमात्मा के अलावा कोई नहीं बता सकता, क्योंकि उसी ने यह सब निर्धारित कर रखा है. लेकिन इस नाटक में आपका उससे मिलना भी उसी का लिखा था, इसलिए उसे पता था कि आप आएंगी.”
“क्या मतलब? पहेलियाँ मत बुझाओ... सब सच-सच बताओ.”
“डॉक्टर... माँ! आपको याद होंगा मैंने आप को बताया था कि मैं पहले जिस कम्पनी में काम करता था, वहाँ एक इंजीनियर था मेरे ग्रुप में.”
“वही जो शायरी करता था और लिटरेचर भी पढ़ता था और थियेटर करना चाहता था.”
“वही माँ वही. वो उस कम्पनी में काम करता था ताकि अपने थियेटर क्लास की फीस जमा कर सके.”
“तो क्या वो दोस्त...?”
“हाँ माँ, वो दोस्त यही था.”
“माँ, जब मुझे पता चला कि ये फ्री लांस काम करने नौकरी छोडकर यहाँ सेटल होना चाह रहा है तो मैंने उसे आपसे मिलने की बात बताई और ये कहा कि तुम माँ को मेरे बारे में बता देना... कह देना कि मैं ठीक हूँ.”
“फिर इसने मुझे बताया क्यों नहीं!”
“माँ, मैंने सोचा कि मुझे अपने दाँत का इलाज तो करवाना ही है, साथ ही मैं आपके मन की बात भी जान लूँ और ये देखूँ कि मेरा दोस्त कितना सही था अपने विद्रोह में. लेकिन आपको देखकर, आपकी बातें सुनकर मुझे लगा कि मुझसे ये नाटक नहीं होंगा. मुझे आपको उससे मिलवाना ही होंगा.”
“तो तुमने मुझे उसी समय क्यों नहीं बताया?”
“मैंने ट्रेन एक्सीडेंट का बहाना बनाया और मेरी दीदी मेरे कहने पर आपसे वो सब कहने गई. मैं इस बीच इससे मिलने गया यह बताने कि मुझसे और नाटक नहीं होगा.”
“मेरा ड्रामा फेस्टिवल यहाँ होना था, सो मैंने इसे समझाया कि कुछ दिन और यह भेद छिपाकर रखे. अगर मुझे अवार्ड मिला तो माँ के हाथों लूँगा और नहीं भी मिला तो अंतिम दिन मैं सीधा घर पहुंचकर माँ के पैर छू लूँगा.”
“आपको थियेटर तक ले जाना मेरे लिये बहुत मुश्किल था. इसीलिये मैं आपको वो नाटक दिखाने ले गया जिसमें इसने काम नहीं किया था और फिर आख़िरी दिन यानि आज.”
“इतना बड़ा नाटक तुम दोनों ने मेरे साथ मिलकर खेला, माँ हूँ मैं शाप भी नहीं दे सकती अपने बच्चों को.”
“प्रभु हूँ या परात्पर 
पर पुत्र हूँ तुम्हारा, तुम माता हो!
मैंने अर्जुन से कहा –
सारे तुम्हारे कर्मों का पाप-पुण्य, योगक्षेम 
मैं वहन करूँगा अपने कन्धों पर
अट्ठारह दिनों के इस भीषण संग्राम में 
कोई नहीं केवल मैं ही मरा हूँ करोड़ों बार
....
जीवन हूँ मैं तो मृत्यु भी तो मैं ही हूँ माँ
शाप यह तुम्हारा स्वीकार है!”

5 टिप्पणियाँ:

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

टुकड़ों-टुकड़ों में पढ़ना और फिर से यहाँ एक साथ पढ़ना...उम्मीद से दुगुना...शुक्रिया फिर से उस आनंद से सराबोर करने के लिए...

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

लाजवाब :)

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

यह जो आपने किया है ( सभी किश्तों को एक साथ देने का ) बहुत महत्त्वपूर्ण और आवश्यक कार्य था रश्मि जी . एक साथ फुरसत से पढ़ती हूँ

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

किश्तों में तो आरम्मभ में कहानी का जो अनुमान हो रहा था अन्त एकदम अप्रत्याशित लगा था लेकिन एक साथ पढ़ने पर पता चलता है जैसे कि आरम्भ से ही कहानी सुव्यवस्थित और पूर्वनियोजित तरीके से बढ़ती आई है जैसे मरीज को देखकर डाक्टर का एकसाथ उत्साह से भरना और उदास होना , जन्म की तारीख अलग बताना , यादों में खोजाना और उसकी ज्यादा चिन्ता करना ..वाकई सब कुछ खूबसूरत तरीके से व्यक्त हुआ है . बीच बीच लेखक की अनुभूतियाँ व साहित्यिक ज्ञान भी बखूबी देखने मिलता है .

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

मैं अपनी व्यस्तताओं में दीदी का आभार कहना भूल गया था. आज मौक़ा मिला तो क्षमा सहित आभार!!

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