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सोमवार, 30 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (अट्ठाईसवां)




खत्म होनेवाला है हमारा इस साल का सफ़र।  2020 अपनी गुनगुनी,कुनकुनी आहटों के साथ खड़ा है दो दिन के अंतराल पर। 
चलिए इस वर्ष को विदा देते हुए कुछ बातें कहती चलूँ  ... 
यूँ तो ब्लॉग,फेसबुक के माध्यम से मैं रहती हूँ आपके बीच, लेकिन सच कहूँ तो बड़ी थकान सी लगती है।  जाने कितने एहसास सांता की तरह शब्दों की खनखनाती, सिसकती पोटली लिए मेरे पास आ बैठते हैं, और सागर की लहरों की तरह मुझे छूते हैं।  ज़ोर से झिंझोड़ते हैं, लिखो न  ... चौंक उठती हूँ, कोई और काम करती हुई कहती हूँ, "रुको थोड़ी देर" और उस थोड़ी देर को मैं भूल जाती हूँ, अनमनी सी सोचती हूँ, कुछ तो लिखना था, लेकिन क्या ??? इस तरह कितने खास एहसासों को भूल जाती हूँ या फिर कभी कभी लिखते हुए बीच में ही सोच की दिशा भटक जाती है, ऐसी हतप्रभ,आधी अधूरी जाने कितनी रचनाएं ड्राफ्ट में पड़ी रहती हैं किसी रद्दी कागज़ की तरह । और कई बार की साफ सफाई में उसे हटा देती हूँ ।
लिखना, उसे पोस्ट करके अपनी उपस्थिति दिखाना शायद मेरे जीने का एक उपक्रम है, ठीक उसी तरह जिस तरह मैं ऑनलाइन चीजें देखती हूँ, सेव करती हूँ ... फिर हटा देती हूँ या कभी बेजरूरत ऑर्डर कर देती हूँ ।
आपने देखा होगा, संभवतः शिकायत भी हुई होगी, मैं पोस्ट पढ़ती हूँ, लाइक का बटन दबाती हूँ, कुछ लिखती नहीं । पर यकीन कीजिये, बदहवास खानाबदोश की तरह इधर-उधर घूमते हुए उस लाइक का बहुत अर्थ है । 
आधे पुराने गीत सुनती हूँ, आधी पुरानी-नई फिल्म पर अटकती हूँ - मंथन करती हूँ और अचानक निर्विकार हो जाती हूँ । 
ये कहने का सिर्फ इतना ही मतलब है कि वर्षों इतना कुछ घटित हुआ है वजह बेवजह कि इस नए वर्ष में मेरा कोई वादा नहीं है - न आपसे,न खुद से । सबकुछ समय पर निर्भर है, ... हाँ, खानाबदोश की तरह दिखती रहूँगी ।
और शायद नहीं, निःसंदेह - यही बहुत है । 
  आज का आखिरी वार्षिक अवलोकन 😊

   प्रीति अज्ञात का ब्लॉग 

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बाबा की बेंत

बाबा की चमचमाती, सुन्दर, गोल घुण्डीनुमा बेंत जाने कितने ही काम आती थी। शैतान बच्चों की टोली इसकी खटखट सुनते ही गद्दों और चारपाई के नीचे साँसें रोक दुबक जाती, फिर इसी बेंत की घुंडी में उनकी टांग फँसाकर उन्हें बाहर निकाला जाता। उसके बाद पूरा घर किलकारियों से घंटों यूँ गूँजता रहता जैसे कि दीवारों ने हँसी ने घुँघरू पहन रखे हों। बच्चे डरते कहाँ थे इस बेंत से, उन्हें तो इसे थामे दादाजी का स्नेह भरा हाथ और भी लम्बा लगता था। वे कभी बाबा की पीठ पर झूला झूलते तो कभी उनकी गोदी में जा बैठते।

उन दिनों ये बेंत सबके लिए बहुत उपयोगी हुआ करती थी। कभी बिल्ली तो कभी बन्दर भगाने के भी खूब काम आती। कौन विश्वास करेगा भला कि तब रेगुलेटर खराब होने पर इससे घुमाकर पंखा तक चल जाया करता था! वैसे इसकी पहुँच दूर-दूर तक थी। पड़ोस वाले अंकल जी के बेटे राहुल को जब-जब बगिया से आम या नींबू तोड़ने होते तो तुरंत आवाज देता, "छोटू, जरा बेंत तो दे यार!"
छोटू अपनी महत्ता देख तुरंत गर्व से भर उठता। दौड़कर दादाजी के पास जाता और अपनी गोल-गोल आँखों में प्रसन्नता के हजार पंख लिए पूछता, "बाबा, ले जाऊँ न?"
यह प्रश्न पूछना एक औपचारिकता भर ही होती थी। बाबा के उत्तर देने की प्रतीक्षा करे बिना ही वह बेंत लेकर भाग उठता। बाबा भी अरे, अरे कह उसे रोकने का नाटक भर करते और दिल में खूब आशीष देते।

छोटू जिस तीव्र गति से जाता, उतनी ही गति से लौट भी आता था। वो हमेशा शर्ट को गोलमोल करता ही लौटता और उन तहों को खोलते ही सब तरफ फल बिखर जाते।
बाबा हमेशा टोकते, "क्यों रे, बेंत देने गया था या फल लेने?"
छोटू सीना चौड़ाकर इतराता, "पता है, राहुल भैया ने दिए हैं। बेंत के हुक में कट से अटकाकर झट से इत्ते सारे फल तोड़ लेते हैं। सारे अकेले कैसे खाएंगे?" उसके भोलेपन और गोल बटननुमा आँखों को मटकाते हुए चहकने के अंदाज़ पर बाबा निहाल हो उठते।

इधर घर की बहुएँ भी इसकी ठकठक सुन 'बाबूजी आ गए' कह सहज ही घूँघट खींच खुसपुस ख़ूब चुहलबाज़ियाँ करतीं। उनके लिए ये बाबा की उपस्थिति की सूचक थी, सम्मान थी।
दरअस्ल ये बेंत, बस बेंत भर नहीं थी और न बाबा का सहारा थी। उन्हें तो इसकी आवश्यकता तक न थी पर दादी के गुजर जाने के बाद इससे एक रिश्ता-सा जोड़ लिया था उन्होंने। इसे खूब चमकाकर रखते। जहाँ भी जाते, हमेशा साथ ले जाते। उनके जीवन का जरुरी हिस्सा बन गई थी ये।

बाबा अब बीमार रहने लगे थे। लेकिन अपनी बेंत को सिरहाने रख सोना कभी न भूलते। कभी रह भी जाती तो तुरंत ही किसी न किसी को आवाज़ दे पास रखवा लेते, तब ही उन्हें चैन की नींद आती। छोटे बच्चे गुदगुदाते हुए कहते कि "बाबा, ये बेंत लोरी भी सुनाती है क्या? जैसे दादी हमें सुनाया करती थीं?" दादी का ज़िक्र आते ही बाबा की आँखें
भर आतीं और रुंधे गले से हमेशा एक ही उत्तर देते, "बेटा, तेरी दादी  सा कोई न हो सकेगा। चकरघिन्नी सी लगी रहती थी दिन-रात। न जाने फिर भी इतना हँस कैसे लेती थी!" बाबा की उदासी देख बच्चे उनसे लिपट जाया करते थे। यूँ वो इन गहरी बातों का मर्म ज्यादा समझ तो नहीं पाते थे।

बेंत थी, तो जैसे ऊर्जा थी घर में! घर दिन-रात चहकता। बड़ा मान, बड़ा रौब था इसका। इससे जुड़ी शैतानियाँ थीं, अनगिनत किस्से-कहानियाँ थीं।
फिर एक दिन बाबा ऐसे सोये कि उठे ही नहीं! बाबा गए तो जैसे बेंत की आत्मा भी चली गई। बच्चों को तोड़फोड़ में मजा कम आने लगा। छोटू को अब फल तोड़ने में कोई आनंद नहीं आता था। बहुएँ चुपचाप अपनी-अपनी रसोई बनातीं और कमरे में चली जातीं। धीरे-धीरे हर बात पर लड़ाई-झगड़े होने लगे और कभी किलकारियों से गूँजता ये घर अब गहन उदासीनता से भर सायं-सायं कर काटने को दौड़ता।

एक दिन वसीयत पढ़ी गई। हर वस्तु का बँटवारा हुआ।
लेकिन उसके बाद सीढ़ियों के नीचे बने खाँचे में उपेक्षित पड़ी, वर्षों धूल खाती रही ये बेंत। 
फिर एक दिन माली काका ने इसे भुतहा घोषित कर दिया गया। 

 

रविवार, 29 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (सत्ताईसवां)




डॉ. मोनिका शर्मा का ब्लॉग

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आपसी रंजिशों से उपजी अमानवीयता चिंतनीय


अमानवीय सोच और क्रूरता की कोई हद नहीं बची है अब | छोटी-छोटी बातों से उपजी रंजिशें रक्तपात की घटनाओं का कारण बन रही हैं | हाल ही में अलीगढ़ के टप्पल इलाके में  तीन साल की बच्ची की नृशंस हत्या इसी की बानगी है |  गौरतलब है कि  हाल ही में उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में  महज 10 हजार रुपए के लिए इस घटना को अंजाम दिया गया। यह रकम बच्ची के पिता से उधार ली गई थी और आरोपी उसे वापस नहीं कर पाया था।  जिसके चलते आरोपी और बच्ची के पिता के बीच बहस हुई थी |  सवाल है इस पूरे प्रकरण में उस मासूम की क्या गलती है ?  उसे किस बात की सजा दी गई ? जबकि उधार चुकाने को लेकर   परिवारजनों से बहस करने वाले आरोपी ने अपने  साथी के साथ मिल कर  बच्ची का अपहरण किया और फिर हत्या कर कूड़े में फेंक दिया | पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक, मौत का कारण दम घुटना  है | लेकिन मौत से पहले  बच्ची को बहुत ज़्यादा पीटा गया है |  आत्मा को झकझोर देने वाले इस मामले में मासूम बच्ची का सड़ा-गला देखकर शव पुलिसवालों का  ही नहीं  पोस्टमार्टम करने वाले चिकित्सकों का भी दिल दहल गया |

 दरअसल, आपसी रंजिश, बेवजह का आक्रोश और नैतिक पतन ऐसी अमानवीय घटनाओं को अंजाम देने वाले अहम् कारण बनते जा रहे हैं |  दुःखद है कि ऐसी अमानवीय वृत्तियाँ अब इंसानी मन पर कब्ज़ा जमाकर बैठ गई हैं | नतीजनतन,  ना सही गलत सोचने की सुध बची है और ना ही इंसानियत  का मान करने का भाव | ऐसे में मन को झकझोर  देने वाली इन  घटनाओं की पुरावृत्ति इनका सबसे दुखद पहलू है | छोटी बच्चियों के साथ बर्बरता की बात हो या आपसी रंजिश के चलते  जान ले लेने का मामला | ऐसी घटनाएं आये दिन हो रही हैं |  आस-पड़ोस हो,  रिश्तेदारी हो या कोई सड़क पर चलता कोई अनजान इंसान | जाने कैसा आक्रोश  है कि जान  ले लेने की बर्बर घटनाएं बहुत आम हो गई हैं  ?  इस मासूम बच्ची की हत्या की  जड़ में  भी मात्र दस हजार रुपये की उधारी ही है |

आजकल हर छोटी बात में सबक सिखाने या बदला लेने की सोच भी हावी रहने लगी है | इस मामले में भी आरोपी ने स्वीकारा है  कि उसने बेइज्जती का बदला लेने के लिए अपने साथी के  संग मिलकर  इस भयावह  घटना को अंजाम दिया है । अफसोसनाक है कि  प्रशासन-तंत्र की विफलता भी ऐसी बढती घटनाओं के लिए जिम्मेदार है |  जब तक ऐसा कोई मामला  तूल नहीं पकड़ता कोई सक्रियता नहीं दिखाई जाती   इतना ही नहीं हमारी लचर कानून व्यवस्था भी में अपराधियों को दंड का भय नहीं है |

हालिया सालों में रंजिशों के कारण हो रही हत्याओं के आंकड़े तेज़ी से बढ़े हैं | इनमें सियासी रंजिशों से लेकर सामाजिक-पारिवारिक स्तर पर भी प्रतिशोध लेने के मामले शामिल हैं |  हाल ही में सामने आये  दिल्ली पुलिस  के आंकड़ों  बताते हैं कि देश राजधानी में  वर्ष 2017 में 462 के मुकाबले 2018 में 477 लोगों की  हत्या कर दी गई। इनमें सबसे ज्यादा 38 प्रतिशत लोगों को किसी न किसी रंजिश की वजह से जान गंवानी पड़ी। हर दो दिन में औसतन तीन लोगों को किसी न किसी वजह से मौत के घाट उतार दिया गया। कई मामलों में तो बेहद छोटी सी बात पर  किस इंसान की जान ले ली गई है | कभी -कभी बरसों के मनमुटाव के बाद ऐसी घटनाओं को सोच-समझकर अंजाम दिया जाता है |  गाँव-कस्बे हों या महानगर  क्रोध और प्रतिशोध का भाव इस हद तक बढ़ गया  है कि  मामूली रंजिश में भी लोग परायों को ही नहीं अपनों को भी दर्दनाक मौत देने में नहीं चूक रहे | ऐसे  भी मामले हुए हैं जिनमें केवल शक के आधार पर आवेश में आकर अपनों-परायों की जान लेने के अपराध हुए हैं |  निःसंदेह, इन घटनाओं की बढ़ती संख्या बताती है कि अब नैतिकता के कोई मापदण्ड नहीं बचे हैं |   बस, कहीं बदला लेने का भाव बाकी है तो कहीं सबक सिखाने की सोच |

विचारणीय है कि इन मामलों से अब एक और पहलू भी जुड़ गया है | अब मन को उद्वेलित करने वाली इन घटनाओं के प्रति भी जुर्म का विरोध करने का  भाव  नहीं बल्कि चुनी हुई चुप्पी या मुखरता देखने को मिलती है | सवाल यह है कि जिस समाज में जघन्य अपराधों का विरोध भी सलेक्टिव अप्रोच के साथ किया जाये वहां आपराधिक  प्रवृत्ति के लोगों को डर हो भी तो  किसका ?  अब इस बंटे हुए समाज में बेटियों को सुरक्षा का भरोसा दे भी कौन ?  हाँ,  हम भूल रहे हैं कि धर्म, सम्प्रदाय और  जात -पात के खांचे में  बंटकर हम इस अमानवीयता को और  खाद  पानी दे रहे हैं | जबकि इस  भेदभाव का फर्क तक ना समझने वाली  मासूम बच्चियां आये दिन हो रहे बर्बर मामलों में एक इंसान होने की ख़ता की सजा भोग रही  हैं | ऐसी घटनाओं को लेकर दी जा रहीं प्रतिक्रियाएं हों या मौन रहने चुनाव  | समाज के  विद्रूप हालातों के बारे में  तो सोचा  ही नहीं जा रहा है | सार्थक कानूनी बदलावों और सक्रिय कार्रवाई करने का दबाव बनाने के बजाय बहुत कुछ आरोप-प्रत्यारोपों तक सिमट जाता है | जिसका फायदा आपराधिक प्रवृत्ति के लोग उठाते हैं | कानून और प्रशासनिक अमले की लचरता तो  पहले से ही निराश करने वाली है |  ऐसे में समाज का यूँ   बंटना वाकई तकलीफदेह है |

यह एक कटु सच है कि समाज में हर स्तर पर लोगों में असंतोष और अधीरता की भावना पनप रही है।  ऐसी  घटनाएं आक्रोश, असहिष्णुता और मानसिक रुग्णता की  बानगी बन रही हैं  | आज की आपाधापी ने सबसे पहले हमारा धैर्य ही छीना है | जिसके चलते नकारात्मकता और बेरहमी भी हमारे जीवन में घुसपैठ करने में कामयाब हुई है | अफ़सोस कि यह हिंसक व्यवहार अब आम जीवन में  अपनी इतनी दखल रखने लगा है कि ऐसे बर्बर मामले सामने आ रहे हैं | 



लेखागार