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शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

अवलोकन - 2014 (7)




अहंकार से सबकुछ नष्ट हो जाता है अंततः 
- मैं भी मानती हूँ 
पर अहंकारियों की शक्ति जल्लाद जैसी होती है 
विनम्रता के कटे सर लेकर अहंकार अट्टहास करता है 
दबी ज़ुबान से विनम्रता की गाथा कही जाती है 
पर उसके पार्श्व से बोलने को कोई नहीं होता  … 


साँकल

शिखा गुप्ता http://shikhagupta83.blogspot.in/

कई नाग फुँफकारते हैं
अँधेरे चौराहों पर
अटकने लगती है साँसों में
ठिठकी सी सहमी हवायें
खौफनाक हो उठते हैं
दरख्तों के साये भी
अपने ही कदमों की आहट
डराती है अजनबी बन
सूनी राह की बेचैनी
बढ़ जाती है हद से ज़्यादा
तब ...
टाँक लेते हैं दरवाज़े
खुद ही कुंडियों में साँकल
कि इनमें क़रार है पुराना
रखनी है इन्हें महफूज़
ज़िंदगी की मासूमियत

संभल  रहना मगर ए ज़िंदगी !
होने लगती है लहूलुहान
कच्ची मासूमियत भी कभी
कुंडी में अटकी साँकल जब
हो जाती है दरवाज़ों से बड़ी



अकाल के बाद

प्रीति सुराना http://priti-deshlahra.blogspot.in/


सुनो!!
अकसर 
अकाल के बाद
सूखी जमीन को देखकर लगता है 
जमीन बंजर हो गई है,.
जबकि 
संभावनांए इंगित करती है
कहीं गहराई में कंही पल रहा है
कोई लावा,..
पर
जरा सी बारिश के आते ही
जमीन नम तो होती है 
लेकिन बढ़ जाती है उमस,..
क्यूंकि 
जमीन को ऊपर से आती बूंदे
शीतल करने की कोशिश करती हैं,..
पर अन्दर सुलगते लावे का ताप उसे वाष्पित करता है,..
हां !!
आज मैंने
खुद महसूस किया,
जमीन बारिश और लावे की 
इस जटिल परिस्थिति को,..
क्यूंकि
अरसे बाद मेरे मन की जमीन पर
आंसुओं की चंद बूंदे बरसी,
और तभी से बढ़ गई मन की बेचैनी,..
शायद
मन की गहराई में दबे पड़े कई संताप,..
जो मौसम की तरह बदली परिस्थितियों में
निकल पड़े आसुओं के कारण उभर आए,..
तभी तो 
रोकर मन शांत होने की बजाय 
जाग उठे दबे हुए सारे दर्द,..
जो छुपा रखे थे सबसे,..मैंने जाने कबसे,..
पर सुनो,..,..!!
अच्छा ही हुआ 
आज चंद बूंदे बरस गई,..
सुना है,..
दबे हुए लावे अकसर ज्वालमुखी बन जाते हैं,..
लेकिन 
मैंने ये भी सुना है
ज्वलामुखी विपदाओं के साथ साथ 
जमीन में छुपे हुई कीमती संपदाओं को भी बाहर लाता है,..
सच कहूं
आज मैं बहुत असमंजस में हूं,..
मेरे लिए ये आंसू अच्छे हैं 
या मन की घुटन,..???
जो भी हो
आज फिर यही समझा है मैंने
हर चीज सिर्फ अच्छी या सिर्फ बुरी नही होती,..
बल्कि सिक्के के दो पहलुओं की तरह होती है,.. है ना !!!!!! ,... 


आवाज़ मौन की

...कैलाश शर्मा http://sharmakailashc.blogspot.in/
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जीवन के अकेलेपन में     
और भी गहन हो जाती
संवेदनशीलता,
होता कभी अहसास
घर के सूनेपन में
किसी के साथ होने का,
शायद होता हो अस्तित्व
सूनेपन का भी.
     ***
शायद हुई आहट           
दस्तक सुनी दरवाज़े पर
पर नहीं था कोई,
गुज़र गयी हवा
रुक कर कुछ पल दर पर,
सुनसान पलों में हो जाते
कान भी कितने तेज़
सुनने लगते आवाज़
हर गुज़रते मौन की.
      ***
आंधियां और तूफ़ान       
आये कई बार आँगन में
पर नहीं ले जा पाये
उड़ाकर अपने साथ,
आज भी बिखरे हैं
आँगन में पीले पात
बीते पल की यादों के
तुम्हारे साथ.

4 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

अलग अलग तालाबों से मोती ला ला कर रख दिये गये हों जैसे एक सीपी में अवलोकन के लिये बहुत सुंदर ।

कविता रावत ने कहा…

बहुत बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति
आभार!

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत प्रभावी रचनाएँ. मेरी रचना को भी स्थान देने के लिए आभार...

Unknown ने कहा…

रश्मि दी आपने मेरी रचना को यहाँ साँझा करने के योग्य समझा इसके लिये आपकी आभारी हूँ।
अकेलेपन का मौन खूब बोल रहा है यहाँ ... कैलाश जी की रचना बहुत खूबसूरत है।
प्रीति सुराणा जी की 'अकाल के बाद' ने उस स्थिति को शब्द दिए हैं जो सबके जीवन में गुज़रती है मगर कभी उस पर विचार नहीं किया जाता ... आँसुओं को शुक्रिया कहा जाये या उन पर दुखी हुआअ जाये अजीब कश्मकश है
.... और ये तो शाश्वत सत्य है कि दबी ज़ुबान की विनम्रता को समाज पराजित के भाव से देखता है

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