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गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

अवलोकन 2014 (11)




भय एक अव्यक्त सोच है 
जो उन सारी संभावनाओं से डरता है 
जिनसे हम नहीं डरने की बात करते हैं  … 


बच्चों की परवरिश के सही मायने समझें हम

डॉ. मोनिका शर्मा meri-parwaz.blogspot.in
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मॉल के एक मंहगे से आउटलेट के सामने पांच साल के एक बच्चे ने पानी की खाली बोतल ठोकर मार कर उछाल दी । बोतल उस क़ीमती सामान वाली दुकान के दरवाज़े पर खड़े गार्ड के मुंह पर जाकर लगी । देखकर लगा कि गार्ड के चेहरे पर मजबूरी मिश्रित गुस्सा था पर उसने कुछ कहा नहीं । ये सारा खेल वहीँ खड़े संभ्रांत परिवार के दिखने वाले पढ़े लिखे माता पिता ने भी देखा । मुझे हैरानी इस बात पर हुई कि सब कुछ देखने बाद भी उन्होंने बच्चे को कुछ नहीं कहा । फिर सोचा कि संभवतः यहाँ पब्लिक प्लेस में बच्चे को कुछ नहीं कहना चाहते होंगें । जब ध्यान से देखा तो पाया कि उन्होंने तो बच्चे की इस हरकत को उसका सामान्य खेल ही  समझा है । तभी तो ख़ुशी ख़ुशी लाडले का हाथ पकड़ा और वहां से चले गए । ऐसे में मन में यह विचार आया कि कम से कम उन्हें उस गार्ड से जो कि पूरी जिम्मेदारी और मुस्तैदी से अपना काम कर रहा था, माफ़ी तो ज़रूर मांगनी चाहिए थी । मन में ये सवाल भी उठा कि उस गार्ड के मुंह पर जाकर लगी बोतल के बारे में जिन अभिभावकों ने सोचा तक नहीं वे अगर बच्चा घर का कोई छोटा सा सामान या गैजेट तोड़ दे तो क्या इसी तरह चुप रहेगें और अपने सभ्य व्यवहार को बनाये रखेंगें ? 

सवाल ये है कि जब हम बच्चों को मनुष्यता का मान करना ही नहीं सीखा रहे हैं तो वे कैसे नागरिक बनेगें ? यह एक अकेला मामला नहीं है । ऐसी कई घटनाएँ इन दिनों में देखीं तो लगा कि आजकल बच्चे बेधड़क यही सीख रहे हैं कि उन्हें ना तो किसी के श्रम का मान करना है और ना ही उम्र का लिहाज । जबकि मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं बालमन पर छोटी छोटी बातों का गहरा असर पड़ता है । उनकी सोच और समझ की दिशा बचपन में मिली सीख से ही दृढ़ता पाती है । निःसंदेह ये समझाइश सकारात्मक होगी तो बच्चों की सोच और व्यवहार को भी सही दिशा मिलेगी । ठीक इसी तरह यदि उन्हें ऐसे समय पर टोका न जाय तो उनकी सोच और आचरण नकारात्मक मार्ग ही पायेंगें । हमारे आसपास होने वाले ऐसे वाकये इसी बात को पुख्ता करते हैं कि जाने अनजाने अभिभावक ही बच्चों को इंसानियत से ज़्यादा का चीज़ों का मान करना सीखा रहे हैं । ऊँच-नीच और छोटे-बड़े का भेद बता रहे हैं । अब यह समझना तो किसी के लिए भी मुश्किल नहीं कि वे किस आधार पर दूसरों को कमतर या बेहतर समझ रहे हैं या अपनी नई पीढ़ी को समझा रहे हैं ?   

हमारे परिवेश में आये दिन होने वाली अमानवीय घटनाओं को लेकर हम चिंतित रहते हैं । सरकार को कोसते हैं । कानून की कमज़ोरियों की दुहाई देते हैं। पर इन सबके बीच भूल जाते हैं तो बस ये कि अभिभावक होने के नाते बच्चों की फीस और ज़रूरत का सामान जुटाने के अलावा भी हमारी कुछ जिम्मेदारियां है । जिम्मेदारियां, जो सही ढंग से न निभाई जाएँ तो बच्चों का व्यक्तित्व कुछ ऐसा बनेगा जो न केवल अभिभावकों को बल्कि परिवार और समाज को भी प्रभावित करेगा । मन में किसी के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता न होना समाज में पनपने वाली अधिकांश समस्याओं की जड़ है । क्या हमें बच्चों में इस विचारशीलता और सही बर्ताव का आधार बनाने की आवश्यकता नहीं ? छोटी सी उम्र में ही व्यवहार की उग्रता और असंवेदनशीलता आगे चलकर उन्हें हर तरह जिम्मेदारी से उदासीन और भावशून्य ही बनाएगी । मैं जो कह रही हूँ वो कोई नया विचार नहीं है । बच्चों के पालन पोषण को लेकर यह बात शायद हज़ारों बार कही और सुनी गयी है । इस दौरान अभिभावक और सचेत और शिक्षित भी हुए हैं । पर हम सब कहीं गुम हैं । समझ और सहूलियत होने के बावजूद भी अपनी ही जिम्मेदारी के प्रति उदासीन ।  हाँ,  चेतते ज़रूर हैं, पर अक्सर देरी हो जाने के बाद । जबकि ज़रुरत इस बात है कि हम समय रहते चेतें और बच्चों की परवरिश के सही मायने समझें । 


मैं कौन हूँ ?

'रंजना' रंजू भाटिया http://ranjanabhatia.blogspot.in/

मैं कौन हूँ "? यह सवाल अक्सर हर इंसान के दिल में उभर के आता है कुछ इसकी खोज में जुट जाते हैं ...और कुछ रास्ता भटक कर दिशाहीन हो जाते हैं .यह "मैं "की यात्रा इंसान की कोख के अन्धकार से आरम्भ होती है और फिर निरन्तर साँसों के अंतिम पडाव तक जारी रहती है ....यही हमारे होने की पहली सोच है चेतना है जो धीरे धीरे ज़िन्दगी के सफ़र में परिवार से समाज से धर्म से और राजनीति से जुडती चली जाती है ..मैं शब्द ही अपने अस्तित्व को बचाने की एक पुरजोर कोशिश ..और एक ऐसी वाइब्रेशन जो खुद से खुद को  
एक होने के एहसास से रूबरू करवा देती है ...और जब यह तलाश पूरी होती है तो दुनिया को रास नहीं आती है ..मैं मीरा बन के जब जब पुकार करती है तब तब समाज अपने अहम् को ले कर सामने आ जाता है ...जब जब यह मैं की चेतना जागती है तब तब जहर के प्याले होंठो से लगा दिए जाते हैं ..पर न यह खोज रूकती है न यह मैं का ब्रह्मनाद रुकता है यह तो बस नाच उठता है ..पग में बंधे घुंघरू में और नाद बन के जग देता है अंतर्मन को 
खुद में खुद को पाने की लालसा 
खुद में खुद को पाने की तलाश
उस सुख को पाने का भ्रम 
या तो पहुंचा देता है
मन को ऊँचाइयों में 
या कर देता है
दिग्भ्रमित
और तब
लगता है जैसे
मानव मन पर
कोई और हो गया है ..........

यदि यह मैं कौन हूँ का सवाल मिल जाता है तो इंसान बुद्धा हो जाता है ..और नहीं मिलता तो तलाश जारी रहती है ..इसी तलाश में जारी है मेरी एक कोशिश भी ..

सुबह की उजली ओस
और गुनगुनाती भोर से
मैंने चुपके से ..
एक किरण चुरा ली है
बंद कर लिया है इस किरण को
अपनी बंद मुट्ठी में ,
इसकी गुनगुनी गर्माहट से
पिघल रहा है धीरे धीरे
 "मेरा "जमा हुआ अस्तित्व
और छंट रहा है ..
मेरे अन्दर का
जमा हुआ अँधेरा
उमड़ रहे है कई जज्बात,
जो क़ैद है कई बरसों से
इस दिल के किसी कोने में
 भटकता हुआ सा
मेरा बावरा मन..
पाने लगा है अब एक राह
लगता है अब इस बार
तलाश कर लूंगी "मैं "ख़ुद को
युगों से गुम है ,
मेरा अलसाया सा अस्तित्व
अब इसकी मंजिल
"मैं "ख़ुद ही बनूंगी !!


वृक्ष

अनुज अग्रवाल मेरा फोटोhttp://apathlesstraveler.blogspot.in/

और फिर जैसे सिलने के बाद
दर्जी उलट देता है कमीज को अन्दर से बाहर
कुछ वैसे ही ईश्वर ने पलट दिया सृष्टि को !
अब पहाड़ 
छुपाये बैठे हैं
सबसे गहरी बात अपने शिखरों पर
सागर लबालब भरे हैं भावनाओं से
और पृथ्वी बोध की सबसे शुद्ध प्रतिमूर्ति है !
पौधे प्रकृति की कविताएँ हैं
जो बहुत लम्बी ना जाकर
सीधे पहुँचती है उद्देश्य तक
और अपने पराग छोड़
महका देती हैं ह्रदय को !
और वृक्ष
वृक्ष वो सच्ची कहानियाँ है
जो सदियों से चली आ रही हैं ,
कहानियाँ
जीवंत एहसास की
सुदृढ़ विश्वास की
उस मुक्त प्रकाश की
जिसको देखता है वृक्ष हर पल
उस खुले आकाश की
जिसमें सब ओर फैलती है शाखाएँ संसार की
उस स्वच्छंद हवा की
जिसमें साँस लेते हैं हज़ारों पत्ते हर समय
उस छाँव की
जिसमें सुरक्षित है जीवन
उस खामोश उपस्थिति की
जो बचाए रखती है नमी को किसी भी बंजर प्यास से !

वृक्ष वो सच्चा उपन्यास है
जिसके पन्नों में ख़ुशी ख़ुशी गुज़र जाता है बचपन !

4 टिप्पणियाँ:

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

बढ़िया लिंक्स, मेरे विचारों को शामिल किया..... आभार

अ से अनुज ने कहा…

परिवेश में आये दिन होने वाली अमानवीय घटनाओं को लेकर हम चिंतित रहते हैं । सरकार को कोसते हैं । कानून की कमज़ोरियों की दुहाई देते हैं। पर इन सबके बीच भूल जाते हैं तो बस ये कि अभिभावक होने के नाते बच्चों की फीस और ज़रूरत का सामान जुटाने के अलावा भी हमारी कुछ जिम्मेदारियां है । जिम्मेदारियां, जो सही ढंग से न निभाई जाएँ तो बच्चों का व्यक्तित्व कुछ ऐसा बनेगा जो न केवल अभिभावकों को बल्कि परिवार और समाज को भी प्रभावित करेगा । मन में किसी के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता न होना समाज में पनपने वाली अधिकांश समस्याओं की जड़ है ।
बहुत सही और गंभीर बात है .............. ! अच्छा टोपिक अच्छा चिंतन ! @मोनिका जी !

वृक्ष कविता के लिए आभार !

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुंदर चयन सुंदर अवलोकन।

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

shaandaar

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