Subscribe:

Ads 468x60px

कुल पेज दृश्य

बुधवार, 8 अक्टूबर 2014

अवलोकन - 2014 (4)




आग को ना पीया तो क्या जीया 
अँधेरा तो रोज उतरता है 
सूरज को ना जीया तो क्या जीया  … 


'शीर्ष'क आने तक गया थक

[Saagar.JPG]सागर http://apnidaflisabkaraag.blogspot.in/

नए कमरे की बाथरूम की दीवार पर बहुत सारी बिंदियां सटी हैं। कंधे तक सीमेंट की पुताई की गई उन दीवारों पर बिंदियों की लड़ी अपने लाल होने के बायस ही उभरती प्रतीत होती हैं। बाथरूम की दीवारें नीम नींद में अधमुंदी आंखों से देखती है। जब नल खुलता है और पानी की धार गिरती है तब सीमेंट की पुताई वाली वे दीवारें सौंधी-सौंधी महकती है। दीवार की तन्द्रा टूटती है। वे सारी बिंदियां कमर की ऊंचाई पर चिपके हैं। जब नहाने बैठता हूं तो वे बिंदियां एकदम सामने पड़ती हैं। कई बार नहाना विलंबित कर उन बिंदियों से मूक संवाद करने लग जाता हूं। वे भी मेरी तरह वहां नहाने बैठती होगी। अपने बदन पर पानी डालने डालने तक उसे ये अपने माथे पर से ये बिंदी जल्दबाजी में हटाई होगी। कई बार तो एक दो मग अपने शरीर पर डालने के बाद चेहरे पर हाथ फेरने के क्रम में उसकी उंगलियों से टकराई होगी तब जाकर उसे इसे हटाने की सूझी होगी। ऐसा हर जगह होता है। गांव में चापाकल के पास बैठकर नहाती औरतें पेटीकोट अपने उभारों के ठीक ऊपर बांधने के बाद चुकुमुकु बैठकर चापाकल पर ही बिंदियां साट देती हैं। नदी में डुबकी लगाती औरतें पास के पत्थर पर इसे साट जैसे अपनी हाज़िरी लगा कर भूल जाती हैं।

वहां ये बिंदियां उन अनपढ़ औरतों के भूले कि किए गए हस्ताक्षर हैं। याद रखने की होड़ में उनमें वे छूट गई आदतें हैं जो उन्हें कुछ भला बनाती हैं। खुद की शिनाख्त को भूलवश कुछ यूं छोड़ते क्या उसने कभी यह सोचा होगा कि जिसे मैंने कभी देखा नहीं आज इतवार के इस दोपहर ढ़ले बाथरूम के एकांत में मैं उसके बारे में सोच रहा होऊंगा। यह तय नहीं है कि चार प्याला लगाने के बाद, गीले माथे बिंदियों की संख्या कितनी है, हो सकता है मैं जिस बिंदी को घूर रहा हूं वो एक ही हो लेकिन मुझे बहुत सारी नज़र आ रही हो। 

स्त्रियां अपने होने के निशान को कैसे कैसे छोड़ती हैं! तवे पर अंतिम रोटी सेंक लेने के बाद बंद आंच पर एक चुटकी आटा डाल देने में। रात के खाना होने के बाद भी रोटी वाले डिब्बे में आधी रोटी बचा कर रखने में। कपड़े में मेरी जिंदगी में भी कुठ ऐसी औरतें हैं जो छूटती नहीं। वे किन्हीं न किन्हीं आदतों, स्वभाव की वजह से मन में घर बनाए हुए है। उनकी याद नहाने के बाद भीजे कंधे पर रखी गीले ठंडे एहसास हैं। 

XXX

प्रिय बहार,

सोचकर अच्छा लगता है कि इस घटिया दौर में जब लेखकों और कवियों की साख दांव पर लगी हुई है, जब आमजन की नज़रों में वे एक संदेहास्पद पात्र बने हुए हैं, जब गिनती के कुछ चमकदार चेहरे अतिसाधारण लिख रहे हैं फिर भी तुम्हारा विश्वास उनमें लगातार बना हुआ है। दरअसल हमलोग पलायनवादी स्वभाव के हैं। रंगे हुए सियार। चीज़ों से हमारा लगाव बदलता रहता है। ज्यादातर चीज़ें हम बस मन लगाने के लिए करते हैं। हमारी मातृभाषा में इसे ‘डगरा पर का बैंगन’ बोलते हैं। हिन्दी में कहूं तो जिधर वज़न देखा उधर लुढ़क गए टाइप। तुम्हारी बनावट दूसरी है। जितनी सुंदर तुम हो उतना ही सुंदर सोच और पुख्ता यकीन भी। तुम एक हारे हुए ट्टटू पर दांव लगा रही हो, यह देखकर और भी आश्चर्य होता है। अक्षररूपी ब्रह्म में तुम्हारा विश्वास बना रहे।


श्राद्ध- एक लघुकथा

पम्मी pummy-harmony.blogspot.in

वह स्वच्छन्द स्त्री थी शायद इसीलिए मोहल्ले की उम्रदराज़ औरतें अपनी बहू बेटियों को उस से मिलने जुलने नहीं देती थी..हाल ही में उसकी पड़ोसन ने उससे पूछा, "क्या तुम अपने सास ससुर का श्राद्ध नहीं करोगी?"...उसने कहा मैं तो उनके नाम से गरीब बच्चों को किताबें, यूनिफार्म आदि दिला देती हूँ हर साल...बात बड़ी बुज़ुर्गों तक पहुँची..उन्होंने नाक भौं सिकोड़ी...बोली ," सराद तो सराद ही होवे है...पंडत कू ना जिमाओ तब तक सराद कैसे पूरो होवे ?...वे सब पंडित जी को अपने अपने घर श्राद्ध जीमने बुलाती...पंडित जी सब के घर खाना छूतेे भर और बाकी का खाना पैक करवा घर ले जाते...पंडिताइन पंडित जी की राह ही तक रही होती थी..फिर वह उस स्वच्छंद स्त्री के साथ सभी टिफिन लेकर उसके स्कूटर पर पीछे बैठ जाती...अनाथ आश्रम के बच्चे उन्हीं की राह तक रहे होते..खुशी से चिल्लाते ," अब तो पंद्रह दिन तक खूब खीर पूरी खाने को मिलेंगे...वाह मज़ा आ गया"..


कौन जाने यह विधाता कौन है ? 

- सतीश सक्सेना
मेरा फोटो


ऐसी दुनियां को बनाता कौन है ?

कौन जाने यह विधाता कौन है ?

इस बुढ़ापे में, नज़र क़ाफ़िर हुई,
वरना ऐसे  गुनगुनाता कौन है ?

इश्क़ की पहचान होनी चाहिए
बे वजह यूँ  मुस्कराता कौन है ?

आपको तो, काफिरों से इश्क है !
वर्ना इनको मुंह लगाता कौन है ?

चाँद की दरियादिली तो देखिये 
रात से भी प्यार करता कौन है ? 

जाके वृन्दावन में,क्यों ढूंढें उन्हें ?   
अब वहां मुरली बजाता कौन है ?

कौन दिन थे जब ठहाके गूंजते थे 
आज अपनों को बुलाता कौन है ?

3 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

एक और पर्दा उठा दिया
कुछ दिखा है कहीं
हमे भी दिखा दिया
सुंदर अवलोकन ।

somali ने कहा…

bahut acchi prastuti

Satish Saxena ने कहा…

वाह !!
एक अनोखापन है यहाँ , आभार लिंक्स के लिए !!

एक टिप्पणी भेजें

बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!

लेखागार